गोस्वामी तुलसीदासजी
जनक-सुनयना
संवाद, भरतजी
की महिमा
दोहा :
* बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा कीन्हि सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥287॥
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥287॥
भावार्थ:-राजा-रानी ने बार-बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके
सीताजी को विदा किया। चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी में भरतजी
की दशा का वर्णन किया॥287॥
चौपाई :
* सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥
मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥
मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥
भावार्थ:-सोने
में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा
ने (प्रेम विह्वल होकर) अपने (प्रेमाश्रुओं के) जल से
भरे नेत्रों को मूँद लिया (वे भरतजी के प्रेम में मानो ध्यानस्थ हो गए)। वे शरीर से पुलकित हो गए और मन में आनंदित होकर भरतजी के सुंदर यश की सराहना करने
लगे॥1॥
* सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥2॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥2॥
भावार्थ:-(वे बोले-) हे सुमुखि! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरतजी की कथा संसार के बंधन से छुड़ाने वाली है।
धर्म, राजनीति
और ब्रह्मविचार- इन तीनों विषयों में
अपनी बुद्धि के अनुसार मेरी (थोड़ी-बहुत) गति है (अर्थात इनके संबंध में मैं कुछ जानता हूँ)॥2॥
* सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥3॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥3॥
भावार्थ:-वह
(धर्म, राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश रखने वाली)
मेरी बुद्धि भरतजी की महिमा का वर्णन तो क्या
करे, छल
करके भी उसकी छाया तक को नहीं छू पाती! ब्रह्माजी, गणेशजी, शेषजी, महादेवजी, सरस्वतीजी, कवि, ज्ञानी, पण्डित और बुद्धिमान-॥3॥
* भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥4॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥4॥
भावार्थ:-सब
किसी को भरतजी के चरित्र, कीर्ति, करनी, धर्म, शील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य समझने में और सुनने में सुख देने वाले हैं और
पवित्रता में गंगाजी का तथा स्वाद (मधुरता) में अमृत का भी तिरस्कार करने वाले हैं॥4॥
दोहा :
* निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥288॥
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥288॥
भावार्थ:-भरतजी
असीम गुण सम्पन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरतजी के समान बस, भरतजी ही हैं, ऐसा जानो।
सुमेरु पर्वत को क्या सेर के बराबर कह सकते हैं? इसलिए (उन्हें किसी पुरुष के साथ उपमा देने में) कवि समाज की बुद्धि
भी सकुचा गई!॥288॥
चौपाई :
* अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥
भावार्थ:-हे
श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे
ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरतजी की अपरिमित महिमा को एक श्री रामचन्द्रजी ही जानते हैं, किन्तु वे भी उसका
वर्णन नहीं कर सकते॥1॥
* बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥2॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥2॥
भावार्थ:-इस
प्रकार प्रेमपूर्वक भरतजी के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर राजा
ने कहा- लक्ष्मणजी लौट जाएँ और भरतजी वन को जाएँ, इसमें सभी का भला है
और यही सबके मन में है॥2॥
* देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥3॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥3॥
भावार्थ:-परन्तु
हे देवि! भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का प्रेम और एक-दूसरे पर विश्वास, बुद्धि और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि श्री रामचन्द्रजी समता की सीमा हैं, तथापि भरतजी प्रेम
और ममता की सीमा हैं॥3॥
* परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥
भावार्थ:-(श्री रामचन्द्रजी के प्रति अनन्य प्रेम को
छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की
ओर स्वप्न में भी मन से भी नहीं ताका है। श्री रामजी के चरणों का प्रेम
ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरतजी का बस, यही एक मात्र
सिद्धांत जान पड़ता है॥4॥
दोहा :
* भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥
भावार्थ:-राजा
ने बिलखकर (प्रेम से गद्गद होकर) कहा-
भरतजी भूलकर भी श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को मन
से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिए॥289॥
चौपाई :
* राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई।
प्रातःकाल दोनों राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं की पूजा
करने लगे॥1॥
* गे नहाइ गुर पहिं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥2॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥2॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी स्नान करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए और चरणों की वंदना करके उनका रुख पाकर बोले-
हे नाथ! भरत, अवधपुर वासी तथा
माताएँ, सब
शोक से व्याकुल और वनवास से दुःखी हैं॥2॥
* सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥3॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥3॥
भावार्थ:-मिथिलापति
राजा जनकजी को भी समाज सहित क्लेश सहते बहुत दिन हो गए, इसलिए हे नाथ!
जो उचित हो वही कीजिए। आप ही के हाथ सभी का हित है॥3॥
* अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुल के लखि सीलु सुभाऊ॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥4॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥4॥
भावार्थ:-ऐसा
कहकर श्री रघुनाथजी अत्यन्त ही सकुचा गए। उनका शील स्वभाव देखकर (प्रेम और आनंद से) मुनि वशिष्ठजी पुलकित हो गए। (उन्होंने खुलकर कहा-) हे राम!
तुम्हारे बिना (घर-बार आदि)
सम्पूर्ण सुखों के साज दोनों राजसमाजों को नरक के समान हैं॥4॥
दोहा :
* प्रान-प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥290॥
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥290॥
भावार्थ:-हे
राम! तुम प्राणों के भी प्राण, आत्मा के भी आत्मा
और सुख के भी सुख हो। हे तात! तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हे विधाता विपरीत
है॥290॥
चौपाई :
* सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥
भावार्थ:-जहाँ
श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम
प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥1॥
* तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥2॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥2॥
भावार्थ:-तुम्हारे
बिना ही सब दुःखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं। जिस किसी के जी में
जो कुछ है तुम सब जानते हो। आपकी आज्ञा सभी के सिर पर है। कृपालु (आप) को सभी की स्थिति अच्छी तरह मालूम है॥2॥
जनक-वशिष्ठादि
संवाद, इंद्र
की चिंता, सरस्वती
का इंद्र को समझाना
* आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥3॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥3॥
भावार्थ:-अतः
आप आश्रम को पधारिए। इतना कह मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गए। तब श्री रामजी प्रणाम करके
चले गए और ऋषि वशिष्ठजी धीरज धरकर जनकजी के पास आए॥3॥
* राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥4॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥4॥
भावार्थ:-गुरुजी
ने श्री रामचन्द्रजी के शील और स्नेह से युक्त स्वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनकजी को
सुनाए (और कहा-) हे महाराज! अब वही कीजिए, जिसमें सबका धर्म सहित हित हो॥4॥
दोहा :
* ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥291॥
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥291॥
भावार्थ:-हे
राजन्! तुम ज्ञान के भंडार, सुजान, पवित्र और धर्म में
धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना इस दुविधा को दूर करने में और कौन समर्थ है?॥291॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥
भावार्थ:-मुनि
वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को
भी वैराग्य हो गया (अर्थात उनके ज्ञान-वैराग्य छूट से गए)। वे प्रेम से शिथिल
हो गए और मन में विचार करने लगे कि हम यहाँ आए, यह अच्छा नहीं किया॥1॥
* रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥2॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥2॥
भावार्थ:-राजा
दशरथजी ने श्री रामजी को वन जाने के लिए कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को प्रमाणित
(सच्चा) कर दिया (प्रिय वियोग में प्राण त्याग दिए), परन्तु हम अब इन्हें
वन से (और गहन) वन को भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनन्दित होते हुए लौटेंगे (कि हमें जरा भी मोह नहीं है,
हम श्री रामजी को वन में छोड़कर चले आए, दशरथजी की तरह मरे
नहीं!)॥2॥
* तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥3॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥3॥
भावार्थ:-तपस्वी, मुनि और
ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गए। समय का विचार
करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाज सहित भरतजी के पास चले॥3॥
* भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥4॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥4॥
भावार्थ:-भरतजी
ने आकर उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका
स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन दिए। तिरहुतराज
जनकजी कहने लगे- हे तात भरत!
तुमको श्री रामजी का स्वभाव मालूम ही है॥4॥
दोहा :
* राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखने वाले हैं, इसीलिए वे संकोचवश संकट सह रहे हैं, अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही जाए॥292॥
चौपाई :
* सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी
यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले-
हे प्रभो! आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और
कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है॥1॥
* कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी आदि
मुनियों और मंत्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी उपस्थित
हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार
चलने वाला समझकर शिक्षा दीजिए॥2॥
* एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
भावार्थ:-इस
समाज और (पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना!
इस पर यदि मैं मौन रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा और बोलना
पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह बड़ी बात कहता हूँ। हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा॥3॥
* आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
भावार्थ:-वेद, शास्त्र और
पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है। स्वामी
धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में)
और स्वार्थ में विरोध है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और
प्रेम को ज्ञान नहीं रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल
होने का भय है)॥4॥
दोहा :
* राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥
भावार्थ:-अतएव
मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर)
श्री रामचन्द्रजी के रुख (रुचि),
धर्म और
(सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और
सबके लिए हितकारी हो आप सबका प्रेम पहचानकर वही कीजिए॥293॥
चौपाई :
* भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥
भावार्थ:-भरतजी
के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी
के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं, परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है॥1॥
* ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥
भावार्थ:-जैसे
मुख (का प्रतिबिम्ब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख का प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजी की
यह अद्भुत वाणी भी पकड़
में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय
समझ में नहीं आता)। (किसी से कुछ उत्तर
देते नहीं बना) तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि
वशिष्ठजी समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता रूपी कुमुदों को खिलाने वाले (सुख देने वाले) चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी
थे॥2॥
* सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-यह
समाचार सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग से मछलियाँ व्याकुल
होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठजी की (प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा,॥3॥
* राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥
भावार्थ:-और
तब श्री रामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदय
में हार मान गए (निराश हो गए)। उन्होंने सब किसी को श्री राम प्रेम में सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोच
के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब नहीं॥4॥
दोहा :
* रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
भावार्थ:-देवराज
इन्द्र सोच में भरकर कहने लगे कि श्री रामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोच के वश में हैं, इसलिए सब लोग मिलकर
कुछ प्रपंच (माया) रचो, नहीं तो काम बिगड़ा (ही समझो)॥294॥
चौपाई :
* सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
भावार्थ:-देवताओं
ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति)
की और कहा- हे देवी!
देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए। अपनी माया रचकर भरतजी की
बुद्धि को फेर दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए॥1॥
* बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
भावार्थ:-देवताओं
की विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती सरस्वतीजी
बोलीं- मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो!
हजार नेत्रों से भी तुमको सुमेरू नहीं सूझ पड़ता!॥2॥
* बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥3॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥3॥
भावार्थ:-ब्रह्मा, विष्णु और महेश की
माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी
की बुद्धि की ओर ताक नहीं सकती। उस बुद्धि को,
तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे में डाल दो)! अरे!
चाँदनी कहीं प्रचंड किरण वाले सूर्य को चुरा सकती है?॥3॥
* भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
भावार्थ:-भरतजी
के हृदय में श्री सीता-रामजी का निवास है।
जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं। देवता ऐसे व्याकुल हुए जैसे
रात्रि में चकवा व्याकुल होता है॥4॥
दोहा :
* सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥
भावार्थ:-मलिन
मन वाले स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा। प्रबल माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥295॥
चौपाई :
* करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥
भावार्थ:-कुचाल
करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श्री रघुनाथजी के
पास गए। सूर्यकुल के दीपक श्री रामचन्द्रजी ने सबका सम्मान किया,॥1॥
* समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥
भावार्थ:-तब
रघुकुल के पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल)
वचन बोले। उन्होंने पहले जनकजी और भरतजी का संवाद सुनाया।
फिर भरतजी की कही हुई सुंदर बातें कह सुनाईं॥2॥
* तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-(फिर बोले-) हे तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें!
यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी
बोले-॥3॥
* बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥
भावार्थ:-आपके
और मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा (अनुचित)
है। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके
कहता हूँ वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी॥4॥
श्री राम-भरत
संवाद
दोहा :
* राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए (स्तम्भित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का
मुँह ताक रहे हैं॥296॥
चौपाई :
* सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बंधु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥1॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥1॥
भावार्थ:-भरतजी
ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरतजी)
ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने (उमड़ते हुए) प्रेम को संभाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचल को अगस्त्यजी
ने रोका था॥1॥
* सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
भावार्थ:-शोक
रूपी हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की)
बुद्धि रूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुण समूह
रूपी जगत की योनि (उत्पन्न करने वाली)
थी। भरतजी के विवेक रूपी विशाल वराह (वराह रूप धारी भगवान) ने (शोक रूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही परिश्रम
उसका उद्धार कर दिया!॥2॥
* करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
भावार्थ:-भरतजी
ने प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी
और साधु-संत सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कह
रहा हूँ॥3॥
* हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥4॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥4॥
भावार्थ:-फिर
उन्होंने हृदय में सुहावनी सरस्वती का स्मरण किया। वे मानस से (उनके मन रूपी मानसरोवर से) उनके मुखारविंद पर आ
विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीति से युक्त भरतजी की वाणी सुंदर हंसिनी (के समान गुण-दोष का विवेचन करने वाली) है॥4॥
दोहा :
* निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥297॥
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥297॥
भावार्थ:-विवेक
के नेत्रों से सारे समाज को प्रेम से शिथिल देख, सबको प्रणाम कर, श्री सीताजी और श्री
रघुनाथजी का स्मरण करके भरतजी बोले-॥297॥
चौपाई :
* प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥
भावार्थ:-हे
प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र),
गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय,
श्रेष्ठ मालिक, शील के भंडार, शरणागत की रक्षा करने वाले, सर्वज्ञ, सुजान,॥1॥
* समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥2॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥2॥
भावार्थ:-समर्थ, शरणागत का
हित करने वाले, गुणों का आदर करने वाले और अवगुणों तथा पापों को हरने वाले हैं। हे गोसाईं!
आप सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामी के साथ द्रोह करने
में मेरे समान मैं ही हूँ॥2॥
* प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥3॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥3॥
भावार्थ:-मैं
मोहवश प्रभु (आप) के और पिताजी के
वचनों का उल्लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया हूँ। जगत में भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमृत और अमर पद (देवताओं का पद), विष और
मृत्यु आदि-॥3॥
* राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥4॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥4॥
भावार्थ:-किसी
को भी कहीं ऐसा नहीं देखा-सुना जो मन में भी
श्री रामचन्द्रजी (आप)
की आज्ञा को मेट दे। मैंने सब प्रकार से वही ढिठाई की, परन्तु प्रभु ने उस
ढिठाई को स्नेह और सेवा मान लिया!॥4॥
दोहा :
* कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
भावार्थ:-हे
नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया, जिससे मेरे दूषण (दोष) भी भूषण (गुण) के समान हो गए और चारों ओर मेरा सुंदर यश छा
गया॥298॥
चौपाई :
* राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥
भावार्थ:-हे
नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में
प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है।
जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) और निःशंक (निडर) है॥1॥
* तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
भावार्थ:-उन्हें
भी आपने शरण में सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करने पर ही अपना लिया। उन (शरणागतों)
के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके
गुणों को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया॥2॥
* को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
भावार्थ:-ऐसा
सेवक पर कृपा करने वाला स्वामी कौन है, जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे (उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर दे) और स्वप्न में भी अपनी कोई करनी न समझकर (अर्थात मैंने सेवक के लिए कुछ किया है, ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को संकोच होगा, इसका सोच अपने हृदय में रखे!॥3॥
* सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
भावार्थ:-मैं
भुजा उठाकर और प्रण रोपकर (बड़े जोर के साथ)
कहता हूँ,
ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। (बंदर आदि) पशु नाचते और तोते (सीखे हुए) पाठ में प्रवीण हो जाते हैं, परन्तु तोते का (पाठ प्रवीणता रूप) गुण और पशु के नाचने
की गति (क्रमशः)
पढ़ाने वाले और नचाने वाले के अधीन है॥4॥
दोहा :
* यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥
भावार्थ:-इस
प्रकार अपने सेवकों की (बिगड़ी)
बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओं का शिरोमणि
बना दिया। कृपालु (आप)
के सिवा अपनी विरदावली का और कौन जबर्दस्ती (हठपूर्वक)
पालन करेगा?॥299॥
चौपाई :
* सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥
भावार्थ:-मैं
शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही
माना (मेरे इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)॥1॥
* देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥
भावार्थ:-मैंने
सुंदर मंगलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर स्वभाव
से ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बड़ी चूक
होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!॥2॥
* कृपा अनुग्रहु अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥
भावार्थ:-कृपानिधान
ने मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था,
उतनी अधिक सर्वांगपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से
मेरा दुलार रखा॥3॥
* नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥
भावार्थ:-हे
नाथ! मैंने स्वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अविनय
या विनय भरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव!
मेरे आर्तभाव (आतुरता)
को जानकर आप क्षमा करेंगे॥4॥
दोहा :
* सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300॥
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300॥
भावार्थ:-सुहृद्
(बिना ही हेतु के हित करने वाले), बुद्धिमान और
श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना बड़ा अपराध है, इसलिए हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥300॥
चौपाई :
* प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥
भावार्थ:-प्रभु
(आप) के चरणकमलों
की रज, जो
सत्य, सुकृत
(पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि)
है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय को जागते, सोते और स्वप्न में भी बनी रहने वाली
रुचि (इच्छा) कहता हूँ॥1॥
* सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥
भावार्थ:-वह
रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन
के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥2॥
* अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥3॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥3॥
भावार्थ:-भरतजी
ऐसा कहकर प्रेम के बहुत ही विवश हो गए। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का)
जल भर आया। अकुलाकर (व्याकुल होकर) उन्होंने प्रभु श्री रामचन्द्रजी
के चरणकमल पकड़ लिए। उस समय को और स्नेह को कहा नहीं जा सकता॥3॥
* कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥
भरत बिनय सुनिदेखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥4॥
भरत बिनय सुनिदेखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥4॥
भावार्थ:-कृपासिन्धु श्री
रामचन्द्रजी ने सुंदर वाणी से भरतजी का सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने
पास बिठा लिया। भरतजी की विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा और
श्री रघुनाथजी स्नेह से शिथिल हो गए॥4॥
छन्द :
* रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी, साधुओं का समाज, मुनि वशिष्ठजी और मिथिलापति जनकजी स्नेह से शिथिल हो गए। सब मन ही मन भरतजी
के भाईपन और उनकी भक्ति की अतिशय महिमा को सराहने लगे। देवता मलिन से मन से
भरतजी की प्रशंसा करते हुए उन पर फूल बरसाने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं-
सब लोग भरतजी का भाषण सुनकर व्याकुल हो गए और ऐसे सकुचा
गए जैसे रात्रि के आगमन से कमल!
सोरठा :
* देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥301॥
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥301॥
भावार्थ:-दोनों
समाजों के सभी नर-नारियों को दीन और
दुःखी देखकर महामलिन मन इन्द्र मरे हुओं को मारकर अपना मंगल चाहता है॥301॥
चौपाई :
* कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥
भावार्थ:-देवराज
इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की
रीति कौए के समान है। वह छली और मलिन मन है, उसका कहीं किसी पर विश्वास नहीं
है॥1॥
* प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥2॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥2॥
भावार्थ:-पहले
तो कुमत (बुरा विचार) करके कपट को बटोरा (अनेक प्रकार के कपट का साज सजा)। फिर वह (कपटजनित)
उचाट सबके सिर पर डाल दिया। फिर देवमाया से सब लोगों को
विशेष रूप से मोहित कर दिया, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के प्रेम से उनका अत्यन्त बिछोह नहीं हुआ (अर्थात उनका श्री रामजी के प्रति प्रेम कुछ तो बना ही रहा)॥2॥
* भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥3॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥3॥
भावार्थ:-भय
और उचाट के वश किसी का मन स्थिर नहीं है। क्षण में उनकी वन में रहने की इच्छा होती है और
क्षण में उन्हें घर अच्छे लगने लगते हैं। मन की इस प्रकार की दुविधामयी स्थिति
से प्रजा दुःखी हो रही है। मानो नदी और समुद्र के संगम का जल क्षुब्ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समुद्र के संगम का जल स्थिर नहीं रहता, कभी इधर आता और कभी
उधर जाता है, उसी प्रकार की दशा प्रजा के मन की हो गई)॥3॥
* दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥4॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥4॥
भावार्थ:-चित्त
दो तरफा हो जाने से वे कहीं संतोष नहीं पाते और एक-दूसरे से अपना मर्म भी नहीं कहते। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी यह दशा देखकर
हृदय में हँसकर कहने लगे- कुत्ता, इन्द्र और नवयुवक (कामी पुरुष) एक सरीखे (एक ही स्वभाव के) हैं। (पाणिनीय व्याकरण के
अनुसार, श्वन, युवन और मघवन शब्दों
के रूप भी एक सरीखे होते हैं)॥4॥
दोहा :
* भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
भावार्थ:-भरतजी, जनकजी, मुनिजन, मंत्री और ज्ञानी
साधु-संतों को छोड़कर अन्य सभी पर जिस मनुष्य को जिस
योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थिति का)
पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग गई॥302॥
चौपाई :
* कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥
भावार्थ:-कृपासिंधु
श्री रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी देखा।
सभा, राजा
जनक, गुरु, ब्राह्मण और मंत्री
आदि सभी की बुद्धि को भरतजी की भक्ति ने कील दिया॥1॥
* रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
भावार्थ:-सब
लोग चित्रलिखे से श्री रामचन्द्रजी की ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाए हुए से
वचन बोलते हैं। भरतजी की प्रीति,
नम्रता,
विनय और बड़ाई सुनने में सुख देने वाली है, पर उसका वर्णन करने
में कठिनता है॥2॥
* जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
भावार्थ:-जिनकी
भक्ति का लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए, उन भरतजी की
महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुंदर भाव से (कवि के)
हृदय में सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)॥3॥
* आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
भावार्थ:-परन्तु
वह बुद्धि अपने को छोटी और भरतजी की महिमा को बड़ी जानकर कवि परम्परा की मर्यादा
को मानकर सकुचा गई (उसका वर्णन करने का
साहस नहीं कर सकी)। उसकी गुणों
में रुचि तो बहुत है, पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धि की गति बालक के वचनों की तरह हो गई (वह कुण्ठित हो गई)!॥4॥
दोहा :
* भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥303॥
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥303॥
भावार्थ:-भरतजी
का निर्मल यश निर्मल चन्द्रमा है और कवि की सुबुद्धि चकोरी है, जो भक्तों के हृदय
रूपी निर्मल आकाश में उस चन्द्रमा को उदित देखकर उसकी ओर टकटकी लगाए देखती
ही रह गई है (तब उसका वर्णन कौन करे?)॥303॥
चौपाई :
* भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥
भावार्थ:-भरतजी
के स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की चंचलता को कवि लोग
क्षमा करें! भरतजी के सद्भाव को कहते-सुनते कौन मनुष्य श्री सीता-रामजी के चरणों में अनुरक्त न हो जाएगा॥1॥
* सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभु तेहि सरिस बाम को॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥2॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥2॥
भावार्थ:-भरतजी
का स्मरण करने से जिसको श्री रामजी का प्रेम सुलभ न हुआ, उसके समान वाम (अभागा) और कौन होगा? दयालु और सुजान श्री रामजी ने सभी की दशा देखकर
और भक्त (भरतजी) के
हृदय की स्थिति जानकर,॥2॥
* धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर॥
देसु कालु लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥3॥
देसु कालु लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥3॥
भावार्थ:-धर्मधुरंधर, धीर, नीति में चतुर, सत्य, स्नेह, शील और सुख के
समुद्र, नीति
और प्रीति के पालन करने वाले श्री रघुनाथजी देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,॥3॥
* बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥4॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥4॥
भावार्थ:-(तदनुसार) ऐसे वचन बोले जो मानो वाणी के सर्वस्व ही थे, परिणाम में हितकारी थे और सुनने में
चन्द्रमा के रस (अमृत)
सरीखे थे। (उन्होंने कहा-)
हे तात भरत! तुम धर्म की
धुरी को धारण करने वाले हो, लोक और वेद दोनों के जानने वाले और प्रेम में प्रवीण हो॥4॥
दोहा :
* करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥304॥
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥304॥
भावार्थ:-हे
तात! कर्म से, वचन से और मन से निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं
हो। गुरुजनों के समाज में और ऐसे कुसमय में छोटे भाई के गुण किस तरह कहे जा सकते हैं?॥304॥
चौपाई :
* जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥
भावार्थ:-हे
तात! तुम सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी
की कीर्ति और प्रीति को, समय, समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्यादा)
को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके मन की बात को जानते
हो॥1॥
* तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥2॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥2॥
भावार्थ:-तुमको
सबके कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्म का पता है। यद्यपि मुझे
तुम्हारा सब प्रकार से भरोसा है,
तथापि मैं समय के अनुसार कुछ कहता हूँ॥2॥
* तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥3॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥3॥
भावार्थ:-हे
तात! पिताजी के बिना (उनकी अनुपस्थिति में) हमारी बात केवल
गुरुवंश की कृपा ने ही
सम्हाल रखी है, नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद
हो जाते॥3॥
* जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥4॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-यदि
बिना समय के (सन्ध्या से पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाए, तो कहो जगत में किस को क्लेश न होगा? हे तात! उसी प्रकार का उत्पात विधाता ने यह (पिता की असामयिक मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराज ने तथा मिथिलेश्वर ने
सबको बचा लिया॥4॥
दोहा :
* राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
भावार्थ:-राज्य
का सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर-
इन सभी का पालन (रक्षण) गुरुजी
का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥305॥
चौपाई :
* सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
भावार्थ:-गुरुजी
का प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की
आज्ञा (का पालन) समस्त धर्म रूपी पृथ्वी को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
* सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥2॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥2॥
भावार्थ:-हे
तात! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुल
के रक्षक बनो। साधक के लिए यह एक ही (आज्ञा पालन रूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धियों की देने वाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है॥2॥
* सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारू सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥3॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥3॥
भावार्थ:-इसे
विचारकर भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभी ने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष)
तक बड़ी कठिनाई है (सबसे अधिक दुःख है)॥3॥
* जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के धाए॥4॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के धाए॥4॥
भावार्थ:-तुमको
कोमल जानकर भी मैं कठोर (वियोग की बात)
कह रहा हूँ। हे तात! बुरे समय में मेरे
लिए यह कोई अनुचित बात नहीं है। कुठौर (कुअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक होते हैं। वज्र के
आघात भी हाथ से ही रोके जाते हैं॥4॥
दोहा :
* सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥
भावार्थ:-सेवक
हाथ, पैर और
नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदासजी कहते हैं कि
सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी
सराहना करते हैं॥306॥
चौपाई :
* सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥
भावार्थ:-श्री
रघुनाथजी की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए)
अमृत में सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया, सबको प्रेम समाधि लग
गई। यह दशा देखकर सरस्वती ने चुप साध ली॥1॥
* भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥
भावार्थ:-भरतजी
को परम संतोष हुआ। स्वामी के सम्मुख (अनुकूल)
होते ही उनके दुःख और दोषों ने मुँह मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गए)। उनका मुख प्रसन्न
हो गया और मन का विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो॥2॥
* कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने
फिर प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलों को जोड़कर वे बोले- हे नाथ! मुझे आपके साथ जाने का सुख
प्राप्त हो गया और मैंने जगत में जन्म लेने का लाभ भी पा लिया।3॥
* अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥
भावार्थ:-हे
कृपालु! अब जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धर कर आदरपूर्वक करूँ!
परन्तु देव! आप मुझे
वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें, जिसकी सेवा कर मैं अवधि का पार पा जाऊँ (अवधि को बिता दूँ)॥4॥
दोहा :
* देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥307॥
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥307॥
भावार्थ:-हे
देव! स्वामी (आप) के अभिषेक के लिए गुरुजी की आज्ञा पाकर मैं सब
तीर्थों का जल लेता आया हूँ, उसके लिए क्या आज्ञा होती है?॥307॥
चौपाई :
* एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥
भावार्थ:-मेरे
मन में एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा-) हे भाई!
कहो। तब प्रभु की आज्ञा पाकर भरतजी स्नेहपूर्ण सुंदर
वाणी बोले-॥1॥
* चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥2॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥2॥
भावार्थ:-आज्ञा
हो तो चित्रकूट के पवित्र स्थान,
तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पर्वतों के समूह तथा विशेष कर प्रभु (आप) के चरण चिह्नों से अंकित भूमि को देख
आऊँ॥2॥
* अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥3॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥3॥
भावार्थ:-(श्री रघुनाथजी बोले-)
अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करो (उनसे पूछकर वे जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वन
में विचरो। हे भाई! अत्रि मुनि के प्रसाद
से वन मंगलों का देने वाला, परम पवित्र और अत्यन्त सुंदर है-॥3॥
* रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥4॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥4॥
भावार्थ:-और
ऋषियों के प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं (लाया हुआ) तीर्थों का जल स्थापित कर देना। प्रभु के वचन
सुनकर भरतजी ने सुख पाया और आनंदित होकर मुनि अत्रिजी के चरणकमलों में सिर
नवाया॥4॥
दोहा :
* भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥308॥
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥308॥
भावार्थ:-समस्त
सुंदर मंगलों का मूल भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का संवाद सुनकर स्वार्थी देवता रघुकुल
की सराहना करके कल्पवृक्ष के फूल बरसाने लगे॥308॥
चौपाई :
* धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआईं॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥
भावार्थ:-'भरतजी धन्य हैं, स्वामी श्री रामजी
की जय हो!'
ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक) हर्षित होने लगे। भरतजी के वचन सुनकर मुनि
वशिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और
सभा में सब किसी को बड़ा उत्साह (आनंद) हुआ॥1॥
* भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन॥2॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन॥2॥
भावार्थ:-भरतजी
और श्री रामचन्द्रजी के गुण समूह की तथा प्रेम की विदेहराज जनकजी पुलकित होकर प्रशंसा
कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनों का सुंदर स्वभाव है। इनके नियम और
प्रेम पवित्र को भी अत्यन्त पवित्र करने वाले हैं॥2॥
* मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु विषादू॥3
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु विषादू॥3
भावार्थ:-मंत्री
और सभासद् सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धि के
अनुसार सराहना करने लगे।
श्री रामचन्द्रजी और भरतजी का संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजों के हृदयों में हर्ष और विषाद (भरतजी के सेवा धर्म को देखकर हर्ष और रामवियोग की सम्भावना से
विषाद) दोनों हुए॥3॥
* राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥4॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी
की माता कौसल्याजी ने दुःख और सुख को समान जानकर श्री रामजी के गुण
कहकर दूसरी रानियों को धैर्य बँधाया। कोई श्री रामजी की बड़ाई (बड़प्पन) की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजी के
अच्छेपन की सराहना करते हैं॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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