गोस्वामी तुलसीदासजी
इंद्र-बृहस्पति संवाद
* देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥4॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥4॥
भावार्थ:-भरतजी के (इस प्रेम
के) प्रभाव को देखकर देवराज
इन्द्र को सोच हो गया (कि
कहीं इनके प्रेमवश श्री रामजी लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)।
संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा
ही दिखता है)।
उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे
प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे
श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो॥4॥
दोहा :
* रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं। बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिए
कुछ छल ढूँढकर इसका उपाय कीजिए॥217॥
चौपाई :
* बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
भावार्थ:-इंद्र के वचन
सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए।
उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा- हे देवराज! माया के स्वामी
श्री रामचंद्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही
ऊपर आ पड़ती है॥1॥
* तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
भावार्थ:-उस समय (पिछली बार) तो श्री रामचंद्रजी का रुख
जानकर कुछ किया था, परन्तु इस समय कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज! श्री रघुनाथजी का स्वभाव
सुनो, वे अपने प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते॥2॥
* जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
भावार्थ:-पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह
श्री राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद
दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को
दुर्वासाजी जानते
हैं॥3॥
* भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥4॥
भावार्थ:-सारा जगत् श्री राम को जपता है, वे श्री रामजी जिनको जपते हैं, उन
भरतजी के समान श्री रामचंद्रजी का प्रेमी कौन होगा?॥4॥
दोहा :
* मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
भावार्थ:-हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ
श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइए।
ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक का सामान दिनोंदिन
बढ़ता ही चला जाएगा॥218॥
चौपाई :
* सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥
भावार्थ:-हे देवराज! हमारा
उपदेश सुनो। श्री रामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा
से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं॥1॥
* जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥2॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥2॥
भावार्थ:-यद्यपि वे सम
हैं- उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य
और गुण-दोष ही ग्रहण
करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता
है, वह वैसा ही फल भोगता है॥2॥
* तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥3॥
अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥3॥
भावार्थ:-तथापि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम
व्यवहार करते हैं (भक्त
को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं)। गुणरहित, निर्लेप, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्री राम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए हैं॥3॥
* राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥4॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी सदा अपने सेवकों (भक्तों) की
रुचि रखते आए हैं। वेद,
पुराण, साधु और देवता इसके
साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुंदर
प्रीति करो॥4॥
दोहा :
* राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
भावार्थ:-हे देवराज इंद्र! श्री
रामचंद्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों
के दुःख से दुःखी और दयालु होते हैं। फिर भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि
हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥219॥
चौपाई :
* सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित
करने वाले हैं और भरतजी श्री रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले
हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश
होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा
ही मोह है॥1॥
* सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥2॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥2॥
भावार्थ:-देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी चिंता
मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने
लगे॥2॥
भरतजी चित्रकूट के
मार्ग में
* एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥3॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥3॥
भावार्थ:-इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा
देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर
लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है॥3॥
* द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥4॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥4॥
भावार्थ:-उनके (प्रेम
और दीनता से पूर्ण) वचनों
को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों
का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके
भरतजी यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया॥4॥
दोहा :
* रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के (श्याम) रंग
का सुंदर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी (प्रेम विह्वल
होकर) श्री रामजी के विरह रूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेक रूपी जहाज पर चढ़ गए (अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के प्रेम
में विह्वल हो गए और उन्हें न पाकर विरह व्यथा से पीड़ित हो गए, तब भरतजी
को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेक
से वे फिर उत्साहित हो गए)॥220॥
चौपाई :
* जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
भावार्थ:-उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके
लिए (खान-पान आदि की) सुंदर व्यवस्था
हुई (निषादराज का संकेत पाकर) रात ही रात में घाट-घाट की अगणित नावें
वहाँ आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥
* प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-सबेरे एक ही
खेवे में सब लोग पार हो गए और श्री रामचंद्रजी
के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके और नदी
को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों भाई चले॥2॥
* आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
भावार्थ:-आगे अच्छी-अच्छी
सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है।
उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं॥3॥
* सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
भावार्थ:-सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्री रघुनाथजी का
स्मरण करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ
श्री रामजी ने निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं॥4॥
दोहा :
* मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥
भावार्थ:-मार्ग में रहने वाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज
छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप (सौंदर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनंदित होते हैं॥221॥
चौपाई :
* कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥
भावार्थ:-गाँवों की स्त्रियाँ एक-दूसरे
से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे
सखी! इनकी अवस्था, शरीर
और रंग-रूप तो वही है। शील, स्नेह
उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है॥1॥
* बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥2॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥2॥
भावार्थ:-परन्तु सखी! इनका
न तो वह वेष (वल्कल
वस्त्रधारी मुनिवेष) है, न
सीताजी ही संग हैं और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है।
फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। हे सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता
है॥2॥
* तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥3॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥3॥
भावार्थ:-उसका तर्क (युक्ति) अन्य
स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई नहीं है। उसकी सराहना
करके और 'तेरी वाणी सत्य है'
इस प्रकार उसका
सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली॥3॥
* कहि सप्रेम बस कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥4॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ
था, वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती
स्त्री श्री भरतजी के शील,
स्नेह और स्वभाव की सराहना करने
लगी॥4॥
दोहा :
* चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
भावार्थ:-(वह बोली-) देखो, ये
भरतजी पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए
श्री रामजी को मनाने के लिए जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है?॥222॥।
चौपाई :
* भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥
भावार्थ:-भरतजी का भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले हैं।
हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी
कहा जाए, वह थोड़ा है। श्री रामचंद्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों॥1॥
* हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
भावार्थ:-छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों
की गिनती में आ गईं। इस प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ
पछताती हैं और कहती हैं- यह
पुत्र कैकयी जैसी माता के योग्य नहीं है॥2॥
* कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
भावार्थ:-कोई कहती है- इसमें
रानी का भी दोष नहीं है। यह सब विधाता ने ही किया है, जो
हमारे अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से
हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ,॥3॥
* बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
भावार्थ:-जो बुरे देश (जंगली प्रान्त) और
बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों
में भी) नीच स्त्रियाँ
हैं! और कहाँ यह महान् पुण्यों
का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा ही
आनंद और आश्चर्य गाँव-गाँव
में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग
गया हो॥4॥
दोहा :
* भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥
भावार्थ:-भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहने वाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो दैवयोग से
सिंहलद्वीप के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो!॥223॥
चौपाई :
* निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥
भावार्थ:-(इस प्रकार) अपने
गुणों सहित श्री रामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथजी को
स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों के
आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं॥1॥
* मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥2॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥2॥
भावार्थ:-और मन ही मन यह वरदान माँगते हैं कि श्री सीता-रामजी के चरण कमलों में प्रेम हो। मार्ग में
भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी
और विरक्त मिलते हैं॥2॥
* करि प्रनामु पूँछहिं जेहि तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥3॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥3॥
भावार्थ:-उनमें से जिस-तिस
से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्री रामजी और जानकीजी किस वन
में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते
हैं॥3॥
* जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥4॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥4॥
भावार्थ:-जो लोग कहते
हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको
ये श्री राम-लक्ष्मण
के समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और श्री रामजी के वनवास
की कहानी सुनते जाते हैं॥4॥
दोहा :
* तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
भावार्थ:-उस दिन वहीं
ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही श्री रघुनाथजी का
स्मरण करके चले। साथ के सब लोगों को भी भरतजी के समान ही श्री
रामजी के दर्शन की लालसा (लगी
हुई) है॥224॥
चौपाई :
* मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥
भावार्थ:-सबको मंगलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ) नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं। समाज सहित
भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्री रामचंद्रजी मिलेंगे और दुःख
का दाह मिट जाएगा॥1॥
* करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥2॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥2॥
भावार्थ:-जिसके जी में
जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है।
सब स्नेही रूपी मदिरा से छके (प्रेम में
मतवाले हुए) चले
जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं
और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं॥2॥
* रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥3॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥3॥
भावार्थ:-रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके
निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते हैं॥3॥
* देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥4॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥4॥
भावार्थ:-सब लोग उस पर्वत को देखकर 'जानकी जीवन श्री रामचंद्रजी की जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत प्रणाम
करते हैं। राजसमाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्री रघुनाथजी अयोध्या
को लौट चले हों॥4॥
दोहा :
* भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥
भावार्थ:-भरतजी का उस
समय जैसा प्रेम था, वैसा
शेषजी भी नहीं कह सकते। कवि के लिए तो वह वैसा ही अगम
है, जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानंद!॥225॥
चौपाई :
* सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥
भावार्थ:-सब लोग श्री
रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के
कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर में) दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं (बिना खाए-पीए ही) रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी के प्रेमी भरतजी ने आगे गमन किया॥1॥
श्री सीताजी का
स्वप्न, श्री
रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध
* उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2॥
भावार्थ:-उधर श्री रामचंद्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे वे
श्री रामचंद्रजी को सुनाने लगीं) मानो
समाज सहित भरतजी यहाँ आए हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर
संतप्त है॥2॥
* सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥3॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥3॥
भावार्थ:-सभी लोग मन में उदास, दीन
और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का स्वप्न
सुनकर श्री रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर गया और सबको सोच से छुड़ा
देने वाले प्रभु स्वयं (लीला
से) सोच के वश हो गए॥3॥
* लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने॥4॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने॥4॥
भावार्थ:-(और बोले-) लक्ष्मण! यह स्वप्न अच्छा नहीं है।
कोई भीषण कुसमाचार (बहुत
ही बुरी खबर) सुनावेगा।
ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेवजी का
पूजन करके साधुओं का सम्मान किया॥4॥
छंद :
* सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
भावार्थ:-देवताओं का
सम्मान (पूजन) और
मुनियों की वंदना करके श्री रामचंद्रजी बैठ गए और उत्तर दिशा
की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है, बहुत से पक्षी और पशु व्याकुल
होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि
प्रभु श्री रामचंद्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे चित्त
में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों ने आकर सब समाचार कहे।
सोरठा :
* सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री
रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई और शरद्
ऋतु के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गए॥226॥
चौपाई :
* बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥
भावार्थ:-सीतापति श्री
रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने
का क्या कारण है? फिर एक ने आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है॥1॥
* सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥
भावार्थ:-यह सुनकर श्री रामचंद्रजी को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो
पिता के वचन और उधर भाई भरतजी का संकोच! भरतजी के स्वभाव को मन में
समझकर तो प्रभु श्री रामचंद्रजी चित्त को ठहराने
के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं॥2॥
* समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥
भावार्थ:-तब यह जानकर
समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा
मेरे कहने में (आज्ञाकारी) हैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्री
रामजी के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना
नीतियुक्त विचार कहने लगे-॥3॥
* बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥
भावार्थ:-हे स्वामी! आपके
बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ, सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं समझा
जाता (अर्थात् आप पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा
अवसर नहीं है, इसलिए यह मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)।
हे स्वामी! आप
सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब जानते
ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता
हूँ॥4॥
दोहा :
* नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
भावार्थ:-हे नाथ! आप
परम सुहृद् (बिना
ही कारण परम हित करने वाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह
के भंडार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही
समान जानते हैं॥227॥
चौपाई :
* बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥
भावार्थ:-परंतु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नीतिपरायण, साधु
और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है, इस
बात को सारा जगत् जानता है॥1॥
* तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥
भावार्थ:-वे भरतजी आज
श्री रामजी (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को
मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवास में अकेले (असहाय) हैं,॥2॥
* करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-अपने मन में
बुरा विचार करके, समाज
जोड़कर राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए हैं।
करोड़ों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर
सेना बटोरकर दोनों भाई आए हैं॥3॥
* जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥
भावार्थ:-यदि इनके हृदय में कपट और कुचाल न होती, तो
रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे
समय) किसे सुहाती? परन्तु
भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत् ही
पागल (मतवाला) हो जाता है॥4॥
दोहा :
* ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥
भावार्थ:-चंद्रमा गुरुपत्नी गामी हुआ,
राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा और राजा
वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया॥228॥
चौपाई :
* सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥
भावार्थ:-सहस्रबाहु, देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत
ने यह उपाय उचित ही किया है,
क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं
रखना चाहिए॥1॥
* एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥2॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥2॥
भावार्थ:-हाँ, भरत ने एक बात अच्छी नहीं की,
जो रामजी (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर
किया! पर आज संग्राम
में श्री रामजी (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह
बात भी उनकी समझ
में विशेष रूप से आ जाएगी (अर्थात् इस निरादर का फल भी वे अच्छी
तरह पा जाएँगे)॥2॥
* एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥3॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥3॥
भावार्थ:-इतना कहते ही
लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गए और युद्धरस रूपी वृक्ष
पुलकावली के बहाने से फूल उठा (अर्थात् नीति की बात कहते-कहते
उनके शरीर में वीर रस छा गया)।
वे प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों की वंदना करके, चरण
रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले॥3॥
* अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! मेरा कहना
अनुचित न मानिएगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम
छेड़छाड़ नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए, जब
स्वामी हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!॥4॥
दोहा :
* छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
भावार्थ:-क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह जगत् जानता है। (फिर
भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह
भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥229॥
चौपाई :
* उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥
भावार्थ:-यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर,
हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से
जाग उठा हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ
में लेकर कहा-॥1॥
* आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-आज मैं श्री
राम (आप) का सेवक होने का यश लूँ और
भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ। श्री रामचंद्रजी
(आप) के निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण शय्या पर
सोवें॥2॥
* आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥
भावार्थ:-अच्छा हुआ जो
सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब
क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है
और बाज जैसे लवे को लपेट में ले लेता है॥3॥
* तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥
भावार्थ:-वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार
करके मैदान में पछाड़ूँगा। यदि शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो
भी, मुझे रामजी की सौगंध है, मैं उन्हें
युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं)॥4॥
दोहा :
* अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी को
अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी
प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर सब
लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥230।
चौपाई :
* जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥
भावार्थ:-सारा जगत् भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार
बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई- हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव
को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?॥1॥
* अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥2॥
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥2॥
भावार्थ:-परन्तु कोई भी काम हो, उसे
अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद
और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे
पछताते हैं, वे बुद्धिमान् नहीं हैं॥2॥
श्री रामजी का
लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना
* सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥3॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥3॥
भावार्थ:-देववाणी सुनकर लक्ष्मणजी सकुचा गए। श्री रामचंद्रजी और
सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान किया (और कहा-) हे तात! तुमने
बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य
का मद सबसे कठिन मद है॥3॥
* जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥4॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥4॥
भावार्थ:-जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे
ही राजा राजमद रूपी मदिरा का आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले
हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो, भरत
सरीखा उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न
देखा ही गया है॥4॥
दोहा :
* भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥
भावार्थ:-(अयोध्या के
राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु
और महादेव का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों
से क्षीरसमुद्र
नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥231॥
चौपाई :
* तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥
भावार्थ:-अन्धकार चाहे
तरुण (मध्याह्न के) सूर्य
को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल जाए।
गो के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी स्वाभाविक
क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे॥1॥
* मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥2॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥2॥
भावार्थ:-मच्छर की फूँक से चाहे सुमेरु उड़ जाए, परन्तु
हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो
सकता। हे लक्ष्मण! मैं
तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत
के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है॥2॥
* सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
भावार्थ:-हे तात! गुरु रूपी
दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य प्रपंच (जगत्) को रचता
है, परन्तु भरत ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष
का विभाग कर दिया (दोनों
को अलग-अलग कर दिया)॥3॥
* गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
भावार्थ:-गुणरूपी दूध को ग्रहण कर और अवगुण रूपी जल को त्यागकर
भरत ने अपने यश से जगत् में उजियाला कर दिया है। भरतजी के गुण, शील
और स्वभाव को कहते-कहते
श्री रघुनाथजी प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए॥4॥
दोहा :
* सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी की वाणी सुनकर और भरतजी पर उनका प्रेम देखकर समस्त देवता उनकी सराहना
करने लगे (और
कहने लगे) कि
श्री रामचंद्रजी के समान कृपा के धाम प्रभु
और कौन है?॥232॥
चौपाई :
* जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥
भावार्थ:-यदि जगत् में भरत का जन्म न होता, तो
पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण करता? हे
रघुनाथजी! कविकुल
के लिए अगम (उनकी
कल्पना से अतीत) भरतजी
के गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है?॥1॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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