गोस्वामी तुलसीदासजी
बारात का जनकपुर में
आना और स्वागतादि
चौपाई :
* कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥
भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥
भावार्थ:-(दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर
सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के
समान भाँति-भाँति
के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के
सुंदर बर्तन,॥1॥
* फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥
भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥
भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥
भावार्थ:-उत्तम फल तथा
और भी अनेकों सुंदर वस्तुएँ राजा ने हर्षित
होकर भेंट के लिए भेजीं। गहने, कपड़े, नाना
प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न),
पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी
और बहुत तरह की सवारियाँ,॥2॥
* मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥
दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥
भावार्थ:-तथा बहुत प्रकार के सुगंधित एवं सुहावने मंगल द्रव्य और शगुन के पदार्थ राजा ने भेजे।
दही, चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले॥3॥
* अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनंदु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥
भावार्थ:-अगवानी करने
वालों को जब बारात दिखाई दी, तब
उनके हृदय में आनंद छा गया और शरीर रोमांच से
भर गया। अगवानों को सज-धज
के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाए॥4॥
दोहा :
* हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥
भावार्थ:-(बाराती तथा
अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोड़कर (सरपट) दौड़ चले और ऐसे मिले मानो
आनंद के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों॥305॥
चौपाई :
* बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥
भावार्थ:-देवसुंदरियाँ
फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनंदित
होकर नगाड़े बजा रहे हैं।
(अगवानी में आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम
से विनती की॥1॥
* प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥
भावार्थ:-राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर
उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को
दे दी गईं। तदनन्तर पूजा,
आदर-सत्कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे
की ओर लिवा ले चले॥2॥
* बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥
भावार्थ:-विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का
अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ
सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥
* जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥
भावार्थ:-सीताजी ने बारात जनकपुर में आई जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई। हृदय में स्मरणकर
सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिए
भेजा॥4॥
दोहा :
* सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥
भावार्थ:-सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ
सारी सम्पदा, सुख और इंद्रपुरी के भोग-विलास
को लिए हुए गईं॥306॥
चौपाई :
* निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥
भावार्थ:-बारातियों ने
अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से
सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर
रहे हैं॥1॥
* सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई॥2॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका
प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का
समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनंद समाता
न था॥2॥
* सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-संकोचवश वे
गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु
मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी
नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ॥3॥
* हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥
भावार्थ:-प्रसन्न होकर
उन्होंने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया।
उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल
भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी
थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥
दोहा :
* भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥
भावार्थ:-जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब
वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥
चौपाई :
* मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥
भावार्थ:-पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया।
विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल
पूछी॥1॥
* पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥2॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे॥2॥
भावार्थ:-फिर दोनों भाइयों को दण्डवत् प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों
को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होंने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया।
मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥
* पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने
वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ
ने प्रेम के आनंद में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों
ने सब ब्राह्मणों की वंदना की और मनभाए आशीर्वाद पाए॥3॥
* भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को
प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया।
लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम
से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥
दोहा :
* पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥
भावार्थ:-तदन्तर परम
कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी
अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मंत्रियों और मित्रों सभी से यथा योग्य मिले॥308॥
* रामहि देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह
शांत हो गई)।
प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा
के पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम
और मोक्ष शरीर धारण किए हुए हों॥1॥
चौपाई :
* सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥
भावार्थ:-पुत्रों सहित
दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाश में) देवता फूलों की वर्षा करके
नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर
नाच रही हैं॥2॥
* सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥
भावार्थ:-अगवानी में आए हुए शतानंदजी, अन्य
ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥
* प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥
भावार्थ:-बारात लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे
जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद
प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ़ जाएँ (बड़े
हो जाएँ)॥4॥
* रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥
भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुंदरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा
हैं, जहाँ-तहाँ
जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों
के समूह इकट्ठे हो-होकर
यही कह रहे हैं॥309॥
चौपाई :
* जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥
भावार्थ:-जनकजी के सुकृत (पुण्य) की
मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी
हैं। इन (दोनों
राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की
आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए॥1॥
* इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥
भावार्थ:-इनके समान जगत में न कोई हुआ, न
कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि
हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए,॥2॥
* जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥
भावार्थ:-और जिन्होंने
जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है।
हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति नेत्रों का
लाभ लेंगे॥3॥
* कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥
भावार्थ:-कोयल के समान
मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि
हे सुंदर नेत्रों वाली! इस विवाह
में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये
दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे॥4॥
दोहा :
* बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥
भावार्थ:-जनकजी स्नेहवश बार-बार
सीताजी को बुलावेंगे और करोड़ों कामदेवों के समान सुंदर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेंगे॥310॥
चौपाई :
* बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥
भावार्थ:-तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न
होगी! तब-तब हम सब नगर
निवासी श्री राम-लक्ष्मण
को देख-देखकर सुखी होंगे॥1॥
* सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥
भावार्थ:-हे सखी! जैसा श्री
राम-लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे
ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी
एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुंदर हैं। जो लोग
उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥
* कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥
भावार्थ:-एक ने कहा- मैंने
आज ही उन्हें देखा है, इतने सुंदर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी
की ही शकल-सूरत
के हैं। स्त्री-पुरुष
उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥
* लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मण और
शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से
शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर
मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के
योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥4॥
छन्द :
* उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं॥
भावार्थ:-दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील
और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ
आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों
का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुंदर मंगल गावें।
सोरठा :
* कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥
भावार्थ:-नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल
भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे
सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र
हैं, त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे॥311॥
चौपाई :
* एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब
मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमंग-उमंगकर (उत्साहपूर्वक) आनंद
से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने
भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया॥1॥
* कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस प्रकार
कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बड़े आनंदित हैं॥2॥
* मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥
भावार्थ:-मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमंत ऋतु और
सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग
और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार
किया,॥3॥
* पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥
भावार्थ:-और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी।
जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥
दोहा :
* धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥
भावार्थ:-निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन
होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥
चौपाई :
* उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंब कर कारनु काहा॥
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए॥1॥
भावार्थ:-तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देरी का
क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का
सामान सजाकर ले आए॥1॥
* संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥
भावार्थ:-शंख, नगाड़े, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा
आदि) सजाई गईं। सुंदर सुहागिन
स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर
रहे हैं॥2॥
* लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥
भावार्थ:-सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए।
अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र
भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥
* भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा॥4॥
भावार्थ:-(उन्होंने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी
से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं
के समाज को साथ लेकर चले॥4॥
दोहा :
* भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥
भावार्थ:-अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी
आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥
चौपाई :
* सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥
भावार्थ:-देवगण सुंदर
मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े
बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी
आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥
* प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥
भावार्थ:-और प्रेम से
पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री
रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने
अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने
लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥
* चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥
भावार्थ:-विचित्र मंडप
को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे
चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार,
सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील
और सुजान हैं॥3॥
* तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥
भावार्थ:-उन्हें देखकर
सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए
जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को
विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ
उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥
दोहा :
* सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य
में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल
ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात् भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥
चौपाई :
* जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥
भावार्थ:-जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती
है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये
वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी
हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥
* एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नंदीश्वर को आगे बढ़ाया।
देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए
चले जा रहे हैं॥2॥
* साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥
भावार्थ:-उनके साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणों की
मंडली ऐसी शोभा दे रही है,
मानो समस्त सुख
शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुंदर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित
हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किए हुए हों॥3॥
* मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥
भावार्थ:-मरकतमणि और
सुवर्ण के रंग की सुंदर जोड़ियों को देखकर
देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई)। फिर रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजा की
सराहना करके उन्होंने फूल बरसाए॥4॥
दोहा :
* राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥
भावार्थ:-नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुंदर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी
का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओं के) जल
से भर गए॥315॥
चौपाई :
* केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए॥1॥
भावार्थ:-रामजी का मोर
के कंठ की सी कांतिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने
वाले प्रकाशमय सुंदर (पीत) रंग के वस्त्र हैं। सब मंगल
रूप और सब प्रकार के सुंदर भाँति-भाँति
के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं॥1॥
* सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥
सकल अलौकिक सुंदरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥
भावार्थ:-उनका सुंदर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के
समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को लजाने
वाले हैं। सारी सुंदरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है,
दिव्य सच्चिदानन्दमयी
है) वह कहीं नहीं जा सकती, मन
ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥
* बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥
भावार्थ:-साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो
चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ
घोड़ों को (उनकी
चाल को) दिखला रहे हैं और वंश की
प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली
सुना रहे हैं॥3॥
* जेहि तुरंग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥
भावार्थ:-जिस घोड़े पर
श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी
(तेज) चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं, उसका वर्णन
नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुंदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष
धारण कर लिया हो॥4॥
छन्द :
* जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥
भावार्थ:-मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी
अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुंदर
घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।
दोहा :
* प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥
भावार्थ:-प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह
घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा
बिजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥316॥
चौपाई :
* जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥1॥
भावार्थ:-जिस श्रेष्ठ
घोड़े पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका
वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्री रामचन्द्रजी के रूप
में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत
ही प्यारे लगने लगे॥1॥
* हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥
भावार्थ:-भगवान विष्णु
ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब
वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी
के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा
देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥
* सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥
भावार्थ:-देवताओं के
सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बड़ा उत्साह
है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात बारह नेत्रों से
रामदर्शन का सुंदर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख
रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥
* देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥
भावार्थ:-सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि
आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री
रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और
दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥
छन्द :
* अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं॥
भावार्थ:-दोनों ओर से
राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बड़े जोर से
नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और 'रघुकुलमणि
श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे
और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मंगल द्रव्य सजाने लगीं॥
दोहा :
* सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥
भावार्थ:-अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मंगल द्रव्यों को
यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी
की सी चाल वाली) उत्तम
स्त्रियाँ आनंदपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥
चौपाई :
* बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥
भावार्थ:-सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और
सभी मृगलोचनी (हरिण
की सी आँखों वाली) हैं
और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुड़ाने वाली हैं। रंग-रंग की सुंदर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर
पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥
* सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥
भावार्थ:-समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाए हुए वे
कोयल को भी लजाती हुई (मधुर
स्वर से) गान
कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव
के हाथी भी लजा जाते हैं॥2॥
* बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥
भावार्थ:-अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश
और नगर दोनों स्थानों में सुंदर मंगलाचार हो रहे हैं।
शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ
थीं,॥3॥
* कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥
करहिं गान कल मंगल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥
भावार्थ:-वे सब कपट से
सुंदर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं
और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः
किसी ने उन्हें पहचाना नहीं॥4॥
छन्द :
* को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई॥
भावार्थ:-कौन किसे जाने-पहिचाने! आनंद के वश हुई सब दूलह बने
हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता
फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनंदकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं।
उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुंदर अंगों
में पुलकावली छा गई॥
दोहा :
* जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥
श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की
माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे
हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥
चौपाई :
* नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥
भावार्थ:-मंगल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों
में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥
* पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-पंचशब्द (तंत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन
पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पंचध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि
और हुलूध्वनि) और मंगलगान
हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने
(रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मंडप में गमन किया॥2॥
* दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला॥3॥
भावार्थ:-दशरथजी अपनी
मंडली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर
लोकपाल भी लजा गए। समय-समय
पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शांति पाठ करते हैं॥3॥
* नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥
भावार्थ:-आकाश और नगर
में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार
श्री रामचन्द्रजी मंडप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥
छन्द :
* बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥
भावार्थ:-आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र
और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण
का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित
करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान
रहे हैं।
दोहा :
*नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥
भावार्थ:-नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनंदित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके
हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥319॥
चौपाई :
* मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥
भावार्थ:-वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े
प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि
उनके लिए उपमा खोज-खोजकर
लजा गए॥1॥
* लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥
भावार्थ:-जब कहीं भी
उपमा नहीं मिली, तब
हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की
कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त
हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥
* जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥
भावार्थ:-(वे कहने लगे-) जबसे
ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु
सब प्रकार से समान साज-समाज
और बराबरी के (पूर्ण
समतायुक्त) समधी
तो आज ही देखे॥3॥
* देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए॥4॥
भावार्थ:-देवताओं की
सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति
छा गई। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को
आदरपूर्वक मंडप में ले आए॥4॥
छन्द :
* मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥
भावार्थ:-मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से
मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित
हो गए)। सुजान
जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर
सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल
के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त
किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते
ही नहीं बनती॥
दोहा :
* बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥
भावार्थ:-राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और
सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥
चौपाई :
* बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने
कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके
संबंध से) अपने
भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई
की॥1॥
* पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥
भावार्थ:-राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही
सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन
दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥
* सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-राजा जनक ने
दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल
और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥
* कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥
भावार्थ:-वे कपट से ब्राह्मणों का सुंदर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी
ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें
सुंदर आसन दिए॥4॥
छन्द :
* पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥
भावार्थ:-कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई
है। आनंदकन्द दूलह को देखकर दोनों ओर आनंदमयी स्थिति हो रही
है। सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं
को पहिचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु
का शील-स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनंदित
हुए।
दोहा :
* रामचन्द्र मुख चंद्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुंदर नेत्र रूपी चकोर आदरपूर्वक
पान कर रहे हैं, प्रेम और आनंद कम नहीं है (अर्थात
बहुत है)॥321॥
चौपाई :
* समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥
भावार्थ:-समय देखकर वशिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। वशिष्ठजी
ने कहा- अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र
ले आइए। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले॥1॥
* रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥2॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमंगल गाईं॥2॥
भावार्थ:-बुद्धिमती रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बड़ी
प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को
बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुंदर मंगल गीत गाए॥2॥
* नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुंदरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ देवांगनाएँ, जो सुंदर मनुष्य-स्त्रियों
के वेश में हैं, सभी स्वभाव से ही सुंदरी और श्यामा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ
सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो
रही हैं॥3॥
* बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥4॥
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मंडपहिं चलीं लवाई॥4॥
भावार्थ:-उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। (रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ) सीताजी
का श्रृंगार करके, मंडली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मंडप में लिवा चलीं॥4॥
श्री सीता-राम विवाह, विदाई
छन्द :
* चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
भावार्थ:-सुंदर मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ
और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी
सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं।
उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें
भी लजा जाती हैं। पायजेब,
पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर
बज रहे हैं।
दोहा :
* सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
भावार्थ:-सहज ही सुंदरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार
शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम
मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥322॥
चौपाई :
* सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत
बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते
देखा॥1॥
* सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
भावार्थ:-सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी
को देखकर तो सभी पूर्णकाम
(कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना
आनंद था, वह कहा नहीं जा सकता॥2॥
* सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
भावार्थ:-देवता प्रणाम
करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों
के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा
शोर मच रहा है। सभी नर-नारी
प्रेम और आनंद में मग्न हैं॥3॥
*एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार सीताजी मंडप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसर
की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए॥4॥
छन्द :
* आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
भावार्थ:-कुलाचार करके
गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी
और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश
की पूजा करवा रहे हैं)।
देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा
रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाह
मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन
पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं॥1॥
* कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
भावार्थ:-स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता
देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं
की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन
दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का प्रेम किसी को लख नहीं
पड़ रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन,
बुद्धि और वाणी से भी परे है, उसे
कवि क्यों कर प्रकट करे?॥2॥
दोहा :
* होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
भावार्थ:-हवन के समय
अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहुति
ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ
बताए देते हैं॥323॥
चौपाई :
* जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
भावार्थ:-जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत
(पुण्य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया
है॥1॥
* समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
भावार्थ:-समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक
ले आईं। सुनयनाजी (जनकजी
की पटरानी) जनकजी
की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो
हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों॥2॥
* कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगंध मंगल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
भावार्थ:-पवित्र, सुगंधित और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुंदर परातें राजा और रानी
ने आनंदित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं॥3॥
* पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
भावार्थ:-मुनि मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश
से फूलों की झड़ी लग गई है। दूलह को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र
चरणों को पखारने लगे॥4॥
छन्द :
* लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
भावार्थ:-वे श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम
से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश
और नगर में होने वाली गान,
नगाड़े और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड़ चली, जो
चरण कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर
में सदा ही विराजते हैं,
जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता
आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं,॥1।
* जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
भावार्थ:-जिनका स्पर्श
पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो
पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गंगाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान
है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन
चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं
चरणों को भाग्य के पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं, यह
देखकर सब जय-जयकार
कर रहे हैं॥2॥
*बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
भावार्थ:-दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर
शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य
और मुनि आनंद में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय
आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप महाराज जनकजी
ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥3॥
* हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
भावार्थ:-जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान
विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी
ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन
कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें
सचमुच विदेह (देह
की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और
भाँवरें होने लगीं॥4॥
दोहा :
* जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
भावार्थ:-जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित
हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं॥324॥
चौपाई :
* कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
भावार्थ:-वर और कन्या
सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन
नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी॥1॥
* राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी और श्री सीताजी की सुंदर परछाहीं मणियों के
खम्भों में जगमगा रही हैं,
मानो कामदेव
और रति बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं॥2॥
* दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
भावार्थ:- उन्हें (कामदेव
और रति को) दर्शन
की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं (अर्थात बहुत हैं),
इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने
वाले आनंदमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए॥3॥
* प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निवेरीं॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
भावार्थ:-मुनियों ने
आनंदपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग सहित सब
रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर
दे रहे हैं, यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती॥4॥
* अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
भावार्थ:-मानो कमल को
लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से
साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। (यहाँ श्री राम के हाथ को कमल की, सेंदूर को पराग की, श्री
राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गई है।) फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब
दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे॥5॥
छन्द :
* बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें
देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने
सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित
हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी
का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान है, फिर
भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है॥1॥
* तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
भावार्थ:- तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी
और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की
बड़ी कन्या माण्डवीजी को,
जो गुण, शील, सुख
और शोभा की रूप ही थीं,
राजा जनक
ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया॥2॥
* जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
भावार्थ:-जानकीजी की
छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में
शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी
को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है
और जो सुंदर नेत्रों वाली,
सुंदर मुखवाली, सब
गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको
राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया॥3॥
* अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
भावार्थ:-दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने
अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचाते हुए हृदय में हर्षित
हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुंदरता की सराहना करते हैं और
देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुंदरी दुलहिनें सुंदर दूल्हों के साथ एक ही मंडप
में ऐसी शोभा पा रही हैं,
मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति
और तुरीय) अपने
चारों स्वामियों (वि�
श्री सीता-राम विवाह, विदाई
छन्द :
* चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
भावार्थ:-सुंदर मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ
और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी
सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं।
उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें
भी लजा जाती हैं। पायजेब,
पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर
बज रहे हैं।
दोहा :
* सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
भावार्थ:-सहज ही सुंदरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार
शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम
मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥322॥
चौपाई :
* सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत
बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते
देखा॥1॥
* सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
भावार्थ:-सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी
को देखकर तो सभी पूर्णकाम
(कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना
आनंद था, वह कहा नहीं जा सकता॥2॥
* सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
भावार्थ:-देवता प्रणाम
करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों
के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा
शोर मच रहा है। सभी नर-नारी
प्रेम और आनंद में मग्न हैं॥3॥
*एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार सीताजी मंडप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसर
की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए॥4॥
छन्द :
* आचारु करि गुर गौरि ग�
श्री सीता-राम विवाह, विदाई
छन्द :
* चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त कुंजर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥
भावार्थ:-सुंदर मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ
और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी
सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं।
उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें
भी लजा जाती हैं। पायजेब,
पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर
बज रहे हैं।
दोहा :
* सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥
भावार्थ:-सहज ही सुंदरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार
शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम
मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥322॥
चौपाई :
* सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी की सुंदरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत
बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते
देखा॥1॥
* सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥
भावार्थ:-सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी
को देखकर तो सभी पूर्णकाम
(कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना
आनंद था, वह कहा नहीं जा सकता॥2॥
* सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥
भावार्थ:-देवता प्रणाम
करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों
के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा
शोर मच रहा है। सभी नर-नारी
प्रेम और आनंद में मग्न हैं॥3॥
*एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार सीताजी मंडप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ पढ़ रहे हैं। उस अवसर
की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए॥4॥
छन्द :
* आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥
भावार्थ:-कुलाचार करके
गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी
और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश
की पूजा करवा रहे हैं)।
देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा
रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाह
मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन
पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं॥1॥
* कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिंघासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥
भावार्थ:-स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता
देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं
की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुंदर सिंहासन
दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का प्रेम किसी को लख नहीं
पड़ रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन,
बुद्धि और वाणी से भी परे है, उसे
कवि क्यों कर प्रकट करे?॥2॥
दोहा :
* होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥
भावार्थ:-हवन के समय
अग्निदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहुति
ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ
बताए देते हैं॥323॥
चौपाई :
* जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
सुजसु सुकृत सुख सुंदरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥
भावार्थ:-जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत
(पुण्य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया
है॥1॥
* समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनी जनु मयना॥2॥
भावार्थ:-समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक
ले आईं। सुनयनाजी (जनकजी
की पटरानी) जनकजी
की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो
हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों॥2॥
* कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगंध मंगल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥
भावार्थ:-पवित्र, सुगंधित और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुंदर परातें राजा और रानी
ने आनंदित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं॥3॥
* पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥
भावार्थ:-मुनि मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश
से फूलों की झड़ी लग गई है। दूलह को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र
चरणों को पखारने लगे॥4॥
छन्द :
* लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥
भावार्थ:-वे श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम
से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश
और नगर में होने वाली गान,
नगाड़े और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड़ चली, जो
चरण कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर
में सदा ही विराजते हैं,
जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता
आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं,॥1।
* जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥
भावार्थ:-जिनका स्पर्श
पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो
पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गंगाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान
है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन
चरणकमलों का सेवन करके मनोवांछित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं
चरणों को भाग्य के पात्र (बड़भागी) जनकजी धो रहे हैं, यह
देखकर सब जय-जयकार
कर रहे हैं॥2॥
*बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥
भावार्थ:-दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर
शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य
और मुनि आनंद में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय
आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार स्वरूप महाराज जनकजी
ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥3॥
* हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥
भावार्थ:-जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान
विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी
ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुंदर नवीन
कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें
सचमुच विदेह (देह
की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोड़ी की गई और
भाँवरें होने लगीं॥4॥
दोहा :
* जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥
भावार्थ:-जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित
हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं॥324॥
चौपाई :
* कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥
भावार्थ:-वर और कन्या
सुंदर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन
नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोड़ी होगी॥1॥
* राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खंभन माहीं
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी और श्री सीताजी की सुंदर परछाहीं मणियों के
खम्भों में जगमगा रही हैं,
मानो कामदेव
और रति बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं॥2॥
* दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥
भावार्थ:- उन्हें (कामदेव
और रति को) दर्शन
की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं हैं (अर्थात बहुत हैं),
इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने
वाले आनंदमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए॥3॥
* प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निवेरीं॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥
भावार्थ:-मुनियों ने
आनंदपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग सहित सब
रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर
दे रहे हैं, यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती॥4॥
* अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥
भावार्थ:-मानो कमल को
लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से
साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। (यहाँ श्री राम के हाथ को कमल की, सेंदूर को पराग की, श्री
राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गई है।) फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब
दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे॥5॥
छन्द :
* बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें
देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने
सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित
हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी
का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान है, फिर
भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है॥1॥
* तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥
भावार्थ:- तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी
और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की
बड़ी कन्या माण्डवीजी को,
जो गुण, शील, सुख
और शोभा की रूप ही थीं,
राजा जनक
ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया॥2॥
* जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥
भावार्थ:-जानकीजी की
छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुंदरियों में
शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी
को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है
और जो सुंदर नेत्रों वाली,
सुंदर मुखवाली, सब
गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको
राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया॥3॥
* अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुंदरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥
भावार्थ:-दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने
अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचाते हुए हृदय में हर्षित
हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुंदरता की सराहना करते हैं और
देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुंदरी दुलहिनें सुंदर दूल्हों के साथ एक ही मंडप
में ऐसी शोभा पा रही हैं,
मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति
और तुरीय) अपने
चारों स्वामियों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ
और ब्रह्म) सहित
विराजमान हों॥4॥
दोहा :
* मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥
भावार्थ:-सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे
आनंदित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया
और ज्ञानक्रिया) सहित
चारों फल (अर्थ, धर्म, काम
और मोक्ष) पा
गए हों॥325॥
चौपाई :
* जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी
रीति से सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं
जाती, सारा मंडप सोने और मणियों से भर गया॥1॥
* कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥2॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥2॥
भावार्थ:-बहुत से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति
के विचित्र रेशमी कपड़े,
जो थोड़ी कीमत के न थे (अर्थात
बहुमूल्य थे) तथा
हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ
और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-॥2॥
* बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥
भावार्थ:-(आदि) अनेकों वस्तुएँ
हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाए। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने
देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गए। अवधराज दशरथजी
ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण किया॥3॥
* दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने वह
दहेज का सामान याचकों को, जो
जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा,
वह जनवासे
में चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल
वाणी से बोले॥4॥
छन्द :
* सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥
प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ॥1॥
भावार्थ:-आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान आनंद के साथ प्रेमपूर्वक
लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियों के समूह की पूजा एवं वंदना की। सिर नवाकर, देवताओं
को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो
भाव ही चाहते हैं, (वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों
को कोई कुछ देकर कैसे संतुष्ट कर सकता है), क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र संतुष्ट हो सकता
है॥1॥
* कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥
भावार्थ:-फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से
स्नेह, शील और सुंदर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्! आपके साथ संबंध हो जाने से
अब हम सब प्रकार से बड़े हो गए। इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के
लिए हुए सेवक ही
समझिएगा॥2॥
* ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥
भावार्थ:-इन लड़कियों को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन कीजिएगा। मैंने बड़ी
ढिठाई की कि आपको
यहाँ बुला भेजा, अपराध
क्षमा कीजिएगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी
को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भंडार ही हो गए)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों
के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥
* बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥
भावार्थ:-देवतागण फूल
बरसा रहे हैं, राजा
जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि
हो रही है, आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है (आनंद छा रहा
है), तब मुनीश्वर की आज्ञा पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती हुई दुलहिनों सहित
दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं॥4॥
दोहा :
* पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥
भावार्थ:-सीताजी बार-बार रामजी
को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे
उनके नेत्र सुंदर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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