गोस्वामी तुलसीदासजी
श्री राम-कौसल्या संवाद
* अति बिषाद बस लोग लोगाईं। गए मातु पहिं रामु गोसाईं॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥4॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ॥4॥
भावार्थ:-सभी पुरुष और
स्त्रियाँ अत्यंत विषाद के वश हो रहे हैं।
स्वामी श्री रामचंद्रजी माता कौसल्या के पास गए। उनका मुख प्रसन्न है
और चित्त में चौगुना चाव (उत्साह) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख
न लें। (श्री
रामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को
छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता
कैकेयी की आज्ञा और पिता की मौन सम्मति पाकर वह सोच मिट
गया।)॥4॥
दोहा :
* नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान॥51॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी का मन नए पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बाँधने की
काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। 'वन जाना है' यह
सुनकर, अपने को बंधन
से छूटा जानकर, उनके
हृदय में आनंद बढ़ गया है॥51॥
चौपाई :
* रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे। भूषन बसन निछावरि कीन्हे॥1॥
भावार्थ:-रघुकुल तिलक
श्री रामचंद्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के
साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने
हृदय से लगा लिया और उन पर गहने तथा कपड़े निछावर किए॥1॥
* बार-बार
मुख चुंबति माता। नयन नेह जलु पुलकित गाता॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥2॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए॥2॥
भावार्थ:-माता बार-बार श्री
रामचंद्रजी का मुख चूम रही हैं। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब
अंग पुलकित हो गए हैं। श्री राम को अपनी गोद में बैठाकर फिर हृदय से लगा
लिया। सुंदर स्तन प्रेमरस (दूध) बहाने लगे॥2॥
* प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई॥
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥3॥
सादर सुंदर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी॥3॥
भावार्थ:-उनका प्रेम और महान् आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो
कंगाल ने कुबेर का पद पा लिया हो। बड़े आदर
के साथ सुंदर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं-॥3॥
* कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥4॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई॥4॥
भावार्थ:-हे तात! माता बलिहारी
जाती है, कहो, वह आनंद- मंगलकारी
लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुंदर सीमा है और जन्म लेने के लाभ की पूर्णतम अवधि है,॥4॥
दोहा :
* जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति॥52॥
भावार्थ:-तथा जिस (लग्न) को सभी स्त्री-पुरुष अत्यंत व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास
से चातक और चातकी शरद् ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं॥52॥
चौपाई :
* तात जाउँ बलि बेगि नाहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ॥1॥
भावार्थ:-हे तात! मैं बलैया
लेती हूँ, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गई है, माता
बलिहारी जाती है॥1॥
* मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥2॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला। निरखि राम मनु भवँरु न भूला॥2॥
भावार्थ:-माता के अत्यंत अनुकूल वचन सुनकर- जो मानो स्नेह रूपी
कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुख रूपी
मकरन्द (पुष्परस) से
भरे थे और श्री (राजलक्ष्मी) के मूल थे- ऐसे वचन रूपी फूलों
को देकर श्री रामचंद्रजी का मन रूपी भौंरा उन पर नहीं भूला॥2॥
* धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥3॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥3॥
भावार्थ:-धर्मधुरीण श्री रामचंद्रजी ने धर्म की गति को जानकर
माता से अत्यंत कोमल वाणी से कहा- हे माता! पिताजी ने मुझको वन का
राज्य दिया है, जहाँ सब प्रकार से मेरा बड़ा काम बनने वाला है॥3॥
* आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥4॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें। आनँदु अंब अनुग्रह तोरें॥4॥
भावार्थ:-हे माता! तू प्रसन्न
मन से मुझे आज्ञा दे, जिससे मेरी वन यात्रा में आनंद-मंगल
हो। मेरे स्नेहवश भूलकर भी डरना नहीं। हे माता! तेरी कृपा से आनंद ही होगा॥4॥
दोहा :
* बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान॥53॥
भावार्थ:-चौदह वर्ष वन
में रहकर, पिताजी के वचन को प्रमाणित (सत्य) कर, फिर लौटकर तेरे चरणों का दर्शन करूँगा, तू
मन को म्लान (दुःखी) न कर॥53॥
चौपाई :
* बचन बिनीत मधुर रघुबर के। सर सम लगे मातु उर करके॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी। जिमि जवास परें पावस पानी॥1॥
भावार्थ:-रघुकुल में
श्रेष्ठ श्री रामजी के ये बहुत ही नम्र और मीठे
वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। उस शीतल वाणी
को सुनकर कौसल्या वैसे ही सहमकर सूख गईं जैसे बरसात का पानी
पड़ने से जवासा सूख जाता है॥1॥
* कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू॥
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥2॥
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी॥2॥
भावार्थ:-हृदय का विषाद कुछ कहा नहीं जाता। मानो सिंह की गर्जना
सुनकर हिरनी विकल हो गई हो। नेत्रों में जल भर आया, शरीर
थर-थर काँपने लगा। मानो मछली माँजा (पहली वर्षा
का फेन) खाकर बदहवास हो गई हो!॥2॥
* धरि धीरजु सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥3॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे॥3॥
भावार्थ:-धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गदगद वचन कहने लगीं- हे तात! तुम
तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो। तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते
थे॥3॥
* राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहिं अपराधा॥
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥4॥
तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू॥4॥
भावार्थ:-राज्य देने के लिए उन्होंने ही शुभ दिन शोधवाया था।
फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सूर्यवंश
(रूपी वन) को जलाने के लिए अग्नि कौन हो गया?॥4॥
दोहा :
* निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ॥54॥
भावार्थ:- तब श्री रामचन्द्रजी का रुख देखकर मन्त्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसंग
को सुनकर वे गूँगी जैसी (चुप) रह गईं, उनकी
दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥54॥
चौपाई :
* राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति बाम सदा सब काहू॥1॥
भावार्थ:-न रख ही सकती
हैं, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों
ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। (मन में सोचती हैं कि देखो-) विधाता की चाल सदा सबके लिए
टेढ़ी होती है। लिखने लगे चन्द्रमा और लिखा गया राहु॥1॥
* धरम सनेह उभयँ मति घेरी। भइ गति साँप छुछुंदरि केरी॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥2॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू॥2॥
भावार्थ:-धर्म और स्नेह दोनों ने कौसल्याजी की बुद्धि को घेर
लिया। उनकी दशा साँप-छछूँदर
की सी हो गई। वे सोचने लगीं कि यदि मैं अनुरोध (हठ) करके पुत्र को रख लेती हूँ
तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है,॥2॥
* कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥3॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी॥3॥
भावार्थ:-और यदि वन जाने को कहती हूँ तो बड़ी हानि होती है। इस
प्रकार के धर्मसंकट में पड़कर रानी विशेष रूप से सोच के वश हो
गईं। फिर बुद्धिमती कौसल्याजी स्त्री धर्म (पातिव्रत धर्म) को समझकर और राम तथा भरत
दोनों पुत्रों को समान जानकर-॥3॥
* सरल सुभाउ राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥4॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका। पितु आयसु सब धरमक टीका॥4॥
भावार्थ:-सरल स्वभाव
वाली श्री रामचन्द्रजी की माता बड़ा धीरज धरकर
वचन बोलीं- हे
तात! मैं बलिहारी
जाती हूँ, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों
का शिरोमणि धर्म है॥4॥
दोहा :
* राजु देन कहिदीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु॥55॥
भावार्थ:-राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका
मुझे लेशमात्र भी दुःख नहीं है। (दुःख
तो इस बात का है कि) तुम्हारे
बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बड़ा भारी क्लेश होगा॥55॥
चौपाई :
* जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥1॥
भावार्थ:-हे तात! यदि केवल
पिताजी की ही आज्ञा, हो तो माता को (पिता
से) बड़ी जानकर वन को मत जाओ, किन्तु
यदि पिता-माता
दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिए सैकड़ों
अयोध्या के समान है॥1॥
* पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥2॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू। बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू॥2॥
भावार्थ:-वन के देवता
तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियाँ माता होंगी।
वहाँ के पशु-पक्षी
तुम्हारे चरणकमलों के सेवक होंगे। राजा के लिए अंत में तो वनवास करना उचित ही है। केवल
तुम्हारी (सुकुमार) अवस्था देखकर हृदय में दुःख
होता है॥2॥
* बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी॥
जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥3॥
जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू॥3॥
भावार्थ:-हे रघुवंश के
तिलक! वन बड़ा भाग्यवान है और यह अवध अभागा है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र! यदि मैं कहूँ कि मुझे भी
साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में संदेह होगा
(कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं)॥3॥
* पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥4॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ॥4॥
भावार्थ:-हे पुत्र! तुम सभी
के परम प्रिय हो। प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो। वही (प्राणाधार) तुम कहते हो कि माता! मैं वन को जाऊँ और मैं
तुम्हारे वचनों को सुनकर बैठी पछताती हूँ!॥4॥
दोहा :
* यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ॥56॥
भावार्थ:-यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती! बेटा! मैं
बलैया लेती हूँ, माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना॥56॥
चौपाई :
* देव पितर सब तुम्हहि गोसाईं। राखहुँ पलक नयन की नाईं॥
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना॥1॥
भावार्थ:-हे गोसाईं! सब देव
और पितर तुम्हारी वैसी ही रक्षा करें, जैसे पलकें आँखों की रक्षा करती हैं।
तुम्हारे वनवास की अवधि (चौदह
वर्ष) जल है, प्रियजन
और कुटुम्बी मछली
हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण
करने वाले हो॥1॥
* अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटहु आई॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥2॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ॥2॥
भावार्थ:-ऐसा विचारकर
वही उपाय करना, जिसमें
सबके जीते जी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम सेवकों, परिवार
वालों और नगर भर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ॥2॥
* सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥3॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी॥3॥
भावार्थ:-आज सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। कठिन काल हमारे विपरीत हो गया। (इस प्रकार) बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनी जानकर माता श्री रामचन्द्रजी के चरणों
में लिपट गईं॥3॥
* दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥4॥
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई॥4॥
भावार्थ:-हृदय में भयानक दुःसह संताप छा गया। उस समय के बहुविध
विलाप का वर्णन नहीं किया जा सकता। श्री रामचन्द्रजी ने माता
को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें
समझाया॥4॥
दोहा :
* समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥57॥
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ॥57॥
भावार्थ:-उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों
चरणकमलों की वंदना कर सिर नीचा करके बैठ गईं॥57॥
चौपाई :
* दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥
बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥
बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप रासि पति प्रेम पुनीता॥1॥
भावार्थ:-सास ने कोमल
वाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त
सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि और पति के साथ पवित्र
प्रेम करने वाली सीताजी नीचा मुख किए बैठी सोच रही हैं॥1॥
* चलन चहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥2॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना॥2॥
भावार्थ:-जीवननाथ (प्राणनाथ) वन
को चलना चाहते हैं। देखें किस पुण्यवान से उनका साथ होगा- शरीर और प्राण दोनों साथ जाएँगे या केवल प्राण ही से इनका साथ होगा? विधाता की
करनी कुछ जानी नहीं जाती॥2॥
* चारु चरन नख लेखति धरनी। नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥3॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं। हमहि सीय पद जनि परिहरहीं॥3॥
भावार्थ:-सीताजी अपने
सुंदर चरणों के नखों से धरती कुरेद रही हैं।
ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि
उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश
होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीताजी के चरण कभी हमारा त्याग न करें॥3॥
* मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम महतारी॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी॥4॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी॥4॥
भावार्थ:-सीताजी सुंदर
नेत्रों से जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर
श्री रामजी की माता कौसल्याजी बोलीं- हे तात! सुनो, सीता
अत्यन्त ही सुकुमारी हैं तथा सास, ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी हैं॥4॥
दोहा :
* पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु॥58॥
भावार्थ:-इनके पिता जनकजी राजाओं के शिरोमणि हैं, ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति
सूर्यकुल रूपी कुमुदवन को खिलाने वाले चन्द्रमा तथा गुण और रूप के भंडार हैं॥58॥
* मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई॥1॥
भावार्थ:-फिर मैंने रूप की राशि, सुंदर
गुण और शीलवाली प्यारी पुत्रवधू पाई है। मैंने इन (जानकी) को
आँखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं॥1॥
* कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा॥2॥
भावार्थ:-इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ स्नेह रूपी जल से सींचकर पाला
है। अब इस लता के फूलने-फलने
के समय विधाता वाम हो गए। कुछ जाना नहीं जाता
कि इसका क्या परिणाम होगा॥2॥
* पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ॥3॥
भावार्थ:-सीता ने पर्यंकपृष्ठ (पलंग
के ऊपर),
गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर
नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनकी
रखवाली करती रही हूँ। कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती॥3॥
* सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुखनयन सकइ किमि जोरी॥4॥
भावार्थ:-वही सीता अब
तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे क्या आज्ञा होती है? चन्द्रमा
की किरणों का रस (अमृत) चाहने वाली चकोरी सूर्य की
ओर आँख किस तरह
मिला सकती है॥4॥
दोहा :
* करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि॥59॥
भावार्थ:-हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव-जन्तु
वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र! क्या विष
की वाटिका में सुंदर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है?॥59॥
चौपाई :
* बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी॥
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ॥1॥
भावार्थ:-वन के लिए तो
ब्रह्माजी ने विषय सुख को न जानने वाली कोल और
भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जैसा कठोर स्वभाव
है। उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता॥1॥
* कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥2॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रलिखित कपि देखि डेराती॥2॥
भावार्थ:-अथवा तपस्वियों की स्त्रियाँ वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने
तपस्या के लिए सब भोग तज दिए हैं। हे पुत्र! जो तसवीर के बंदर को देखकर
डर जाती हैं, वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी?॥2॥
* सुरसर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी॥
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥3॥
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहि सोई॥3॥
भावार्थ:-देवसरोवर के
कमल वन में विचरण करने वाली हंसिनी क्या गड़ैयों
(तलैयों) में रहने के योग्य है? ऐसा
विचार कर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूँ॥3॥
* जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥4॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधाँ जनु सानी॥4॥
भावार्थ:-माता कहती हैं- यदि
सीता घर में रहें तो मुझको बहुत सहारा हो जाए। श्री रामचन्द्रजी ने माता
की प्रिय वाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेह रूपी अमृत से सनी हुई थी,॥4॥
दोहा :
* कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष॥60॥
भावार्थ:-विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को संतुष्ट किया। फिर वन के गुण-दोष प्रकट करके वे जानकीजी को समझाने
लगे॥60॥
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
मासपारायण, चौदहवाँ विश्राम
श्री सीता-राम संवाद
चौपाई :
* मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥
राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥
राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥1॥
भावार्थ:-माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर
मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे
बोले- हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो। मन में
कुछ दूसरी तरह न समझ लेना॥1॥
* आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥2॥
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥2॥
भावार्थ:-जो अपना और
मेरा भला चाहती हो, तो
मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी
आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है॥2॥
* एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥3॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥3॥
भावार्थ:-आदरपूर्वक सास-ससुर
के चरणों की पूजा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई
धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से
व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि भोली हो जाएगी (वे अपने-आपको भूल जाएँगी)॥3॥
* तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥4॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥4॥
भावार्थ:-हे सुंदरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएँ कह-कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगंध हैं, मैं
यह स्वभाव से ही कहता हूँ कि मैं तुम्हें केवल माता
के लिए ही घर पर रखता हूँ॥4॥
दोहा :
* गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥
हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥61॥
भावार्थ:-(मेरी आज्ञा
मानकर घर पर रहने से) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म (के आचरण) का
फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है, किन्तु हठ के वश होकर गालव
मुनि और राजा नहुष आदि सब ने संकट ही सहे॥61॥
चौपाई :
* मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥
दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥1॥
भावार्थ:-हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं
भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर
नहीं लगेगी। हे सुंदरी! हमारी
यह सीख सुनो!॥1॥
* जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥
काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥2॥
भावार्थ:-हे वामा! यदि प्रेमवश
हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुःख पाओगी। वन बड़ा कठिन (क्लेशदायक) और
भयानक है। वहाँ की धूप,
जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक
हैं॥2॥
* कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥
चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥3॥
भावार्थ:-रास्ते में
कुश, काँटे और बहुत से कंकड़ हैं। उन पर बिना
जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरणकमल कोमल और सुंदर हैं और
रास्ते में बड़े-बड़े
दुर्गम पर्वत हैं॥3॥
* कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥
भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥4॥
भावार्थ:-पर्वतों की
गुफाएँ, खोह (दर्रे), नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा
तक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे (भयानक) शब्द करते हैं
कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है॥4॥
दोहा :
* भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥
ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥62॥
भावार्थ:-जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल
का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब
कुछ अपने-अपने
समय के अनुकूल ही मिल सकेगा॥62॥
चौपाई :
* नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥
लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥1॥
भावार्थ:-मनुष्यों को
खाने वाले निशाचर (राक्षस) फिरते
रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट रूप धारण
कर लेते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा
सकती॥1॥
* ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥
डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥2॥
भावार्थ:-वन में भीषण
सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषों को चुराने वाले राक्षसों के
झुंड के झुंड रहते हैं। वन की (भयंकरता) याद आने मात्र से धीर पुरुष
भी डर जाते हैं। फिर हे मृगलोचनि! तुम
तो स्वभाव से ही डरपोक हो!॥2॥
* हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥
मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥3॥
भावार्थ:-हे हंसगमनी! तुम
वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे
(बुरा कहेंगे)। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे
समुद्र में जी सकती है॥3॥
* नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥4॥
रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥4॥
भावार्थ:-नवीन आम के वन में विहार करने वाली कोयल क्या करील के
जंगल में शोभा पाती है?
हे चन्द्रमुखी! हृदय में ऐसा विचारकर तुम
घर ही पर रहो। वन में बड़ा कष्ट है॥4॥
दोहा :
* सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥63॥
भावार्थ:-स्वाभाविक ही
हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो
सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है॥63॥
चौपाई :
* सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥
सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥1॥
भावार्थ:-प्रियतम के
कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर
नेत्र जल से भर गए। श्री रामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलाने वाली
हुई, जैसे चकवी को शरद ऋतु की चाँदनी रात होती है॥1॥
* उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥2॥
बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥2॥
भावार्थ:-जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे
यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी
स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रों के जल (आँसुओं) को जबर्दस्ती
रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीताजी हृदय में धीरज धरकर,॥2॥
* लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥3॥
दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥3॥
भावार्थ:-सास के पैर
लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं- हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए।
मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है, जिससे मेरा परम हित हो॥3॥
* मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥4॥
भावार्थ:-परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख
नहीं है॥4॥
दोहा :
* प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥64॥
भावार्थ:-हे प्राणनाथ! हे
दया के धाम! हे
सुंदर! हे सुखों के देने वाले! हे सुजान! हे रघुकुल रूपी कुमुद
के खिलाने वाले चन्द्रमा! आपके
बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है॥64॥
चौपाई :
* मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥
सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥1॥
भावार्थ:-माता, पिता, बहिन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय,
सास, ससुर, गुरु, स्वजन
(बन्धु-बांधव), सहायक और सुंदर, सुशील
और सुख देने वाला पुत्र-॥1॥
* जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥2॥
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥2॥
भावार्थ:-हे नाथ! जहाँ तक
स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सूर्य से भी बढ़कर तपाने वाले हैं।
शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक
का समाज है॥2॥
* भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥3॥
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥3॥
भावार्थ:-भोग रोग के
समान हैं, गहने भार रूप हैं और संसार
यम यातना (नरक
की पीड़ा) के
समान है। हे प्राणनाथ! आपके
बिना जगत में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है॥3॥
* जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥4॥
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥4॥
भावार्थ:-जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे
ही हे नाथ! बिना
पुरुष के स्त्री है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद्-(पूर्णिमा) के निर्मल चन्द्रमा के समान
मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे॥4॥
दोहा :
* खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥65॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपके साथ
पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल
वस्त्र होंगे और पर्णकुटी (पत्तों
की बनी झोपड़ी) ही
स्वर्ग के समान
सुखों की मूल होगी॥65॥
चौपाई :
* बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥1॥
भावार्थ:-उदार हृदय के
वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-संभार करेंगे और कुशा और पत्तों
की सुंदर साथरी (बिछौना) ही प्रभु के साथ कामदेव की
मनोहर तोशक के समान होगी॥1॥
* कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
छिनु-छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥2॥
भावार्थ:-कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे और (वन के) पहाड़
ही अयोध्या के सैकड़ों राजमहलों के समान होंगे। क्षण-क्षण में प्रभु के चरण कमलों को देख-देखकर मैं
ऐसी आनंदित रहूँगी जैसे दिन में चकवी रहती है॥2॥
* बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपने वन
के बहुत से दुःख और बहुत से भय, विषाद और सन्ताप कहे, परन्तु
हे कृपानिधान! वे
सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग (से होने वाले दुःख) के लवलेश
के समान भी नहीं हो सकते॥3॥
* अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥4॥
बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥4॥
भावार्थ:-ऐसा जी में
जानकर, हे सुजान शिरोमणि! आप मुझे साथ ले लीजिए, यहाँ
न छोड़िए। हे स्वामी! मैं
अधिक क्या विनती करूँ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जानने वाले
हैं॥4॥
दोहा :
* राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।
दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥66॥
दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥66॥
भावार्थ:-हे दीनबन्धु! हे
सुंदर! हे सुख देने वाले! हे शील और प्रेम के भंडार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्या में रखते
हैं, तो जान लीजिए कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे॥66॥
चौपाई :
* मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥1॥
भावार्थ:-क्षण-क्षण
में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रकार से आपकी
सेवा करूँगी और मार्ग चलने से होने वाली सारी
थकावट को दूर कर दूँगी॥1॥
* पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥
भावार्थ:-आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःख के
लिए मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥2॥
* सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥
भावार्थ:-समतल भूमि पर
घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर
आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी
कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥3॥
* को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥4॥
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥4॥
भावार्थ:-प्रभु के साथ (रहते) मेरी
ओर (आँख उठाकर) देखने वाला कौन है (अर्थात
कोई नहीं देख सकता)! जैसे
सिंह की स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख
सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और
मुझको विषय भोग?॥4॥
दोहा :
* ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदउ बिलगान।
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥
तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥67॥
भावार्थ:-ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा तो, हे
प्रभु! (मालूम होता है) ये पामर प्राण आपके वियोग
का भीषण दुःख सहेंगे॥67॥
चौपाई :
* अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥
देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥1॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात
शरीर से वियोग की बात तो अलग रही, वचन से भी वियोग की बात सुनकर वे अत्यन्त
विकल हो गईं।) उनकी
यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान
लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहाँ रखने से ये प्राणों को न रखेंगी॥1॥
* कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥2॥
नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥2॥
भावार्थ:-तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो।
आज विषाद करने का अवसर नहीं है। तुरंत वनगमन की तैयारी करो॥2॥
श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद
* कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥3॥
बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माता के पैरों
लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। (माता
ने कहा-) बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा के
दुःख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाए!॥3॥
* फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥4॥
सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥4॥
भावार्थ:-हे विधाता! क्या
मेरी दशा भी फिर पलटेगी?
क्या अपने नेत्रों से मैं इस मनोहर जोड़ी को फिर
देख पाऊँगी? हे पुत्र! वह
सुंदर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी
जीते जी तुम्हारा चाँद सा मुखड़ा फिर देखेगी!॥4॥
दोहा :
* बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥
कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥68॥
भावार्थ:-हे तात! 'वत्स' कहकर, 'लाल' कहकर, 'रघुपति' कहकर, 'रघुवर' कहकर, मैं
फिर कब तुम्हें
बुलाकर हृदय से लगाऊँगी और हर्षित होकर
तुम्हारे अंगों को देखूँगी!॥68॥
चौपाई :
* लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥
राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ:-यह देखकर कि
माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी
अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता। श्री रामचन्द्रजी ने
अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं
किया जा सकता॥1॥
* तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥2॥
सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-तब जानकीजी सास के पाँव लगीं और बोलीं- हे माता! सुनिए, मैं
बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे
दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया॥2॥
* तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥
सुनिसिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥3॥
सुनिसिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥3॥
भावार्थ:-आप क्षोभ का
त्याग कर दें, परन्तु
कृपा न छोड़िएगा। कर्म की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष
नहीं है। सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गईं। उनकी दशा को मैं किस प्रकार
बखान कर कहूँ!॥3॥
* बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥4॥
अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने सीताजी को बार-बार
हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि
जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे॥4॥
दोहा :
* सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥69॥
भावार्थ:-सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और
शिक्षाएँ दीं और वे (सीताजी) बड़े ही प्रेम से
बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं॥69॥
श्री राम-लक्ष्मण संवाद
चौपाई :
* समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥
कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥1॥
भावार्थ:-जब लक्ष्मणजी
ने समाचार पाए, तब
वे व्याकुल होकर उदास मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच
हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यन्त अधीर होकर उन्होंने
श्री रामजी के चरण पकड़ लिए॥1॥
* कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥
सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥2॥
भावार्थ:-वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े-खड़े देख रहे हैं। (ऐसे दीन हो रहे हैं) मानो जल से निकाले जाने पर
मछली दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता! क्या होने वाला है? क्या
हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया?॥2॥
* मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥
राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥
राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेहसब सन तृनु तोरें॥3॥
भावार्थ:-मुझको श्री
रघुनाथजी क्या कहेंगे? घर
पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने भाई
लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा॥3॥
* बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥
तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥4॥
भावार्थ:-तब नीति में
निपुण और शील, स्नेह, सरलता
और सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी वचन बोले- हे तात! परिणाम
में होने वाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ॥4॥
दोहा :
* मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70॥
भावार्थ:-जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने
ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही
है॥70॥
चौपाई :
* अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥
भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥
भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-हे भाई! हृदय में
ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता
के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज
वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दुःख है॥1॥
* मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥2॥
गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥2॥
भावार्थ:-इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयोध्या
सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा
और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा॥2॥
* रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥3॥
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥3॥
भावार्थ:-अतः तुम यहीं
रहो और सबका संतोष करते रहो। नहीं तो हे तात! बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में
प्यारी प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है॥3॥
* रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥
सिअरें बचन सूखि गए कैसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥4॥
सिअरें बचन सूखि गए कैसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥4॥
भावार्थ:-हे तात! ऐसी नीति
विचारकर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही लक्ष्मणजी बहुत ही व्याकुल हो गए! इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गए, जैसे
पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है!॥4॥
दोहा :
* उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥71॥
भावार्थ:-प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता। उन्होंने व्याकुल होकर श्री रामजी के
चरण पकड़ लिए और कहा- हे
नाथ! मैं दास हूँ और आप स्वामी
हैं, अतः आप मुझे
छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?॥71॥
चौपाई :
* दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥
नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥1॥
भावार्थ:-हे स्वामी! आपने
मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच
के बाहर) लगी।
शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं, जो
धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करने वाले हैं॥1॥
* मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥2॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥2॥
भावार्थ:-मैं तो प्रभु (आप) के स्नेह में पला हुआ छोटा
बच्चा हूँ! कहीं
हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप
विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु,
पिता, माता किसी को भी नहीं
जानता॥2॥
* जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥3॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥3॥
भावार्थ:-जगत में जहाँ
तक स्नेह का संबंध, प्रेम
और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है- हे स्वामी! हे दीनबन्धु! हे सबके हृदय के अंदर की
जानने वाले! मेरे
तो वे सब कुछ केवल आप ही हैं॥3॥
* धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥4॥
मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥4॥
भावार्थ:-धर्म और नीति
का उपदेश तो उसको करना चाहिए, जिसे
कीर्ति, विभूति (ऐश्वर्य) या सद्गति प्यारी
हो, किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिन्धु! क्या वह भी त्यागने के
योग्य है?॥4॥
दोहा :
* करुनासिंधु सुबंधु के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥72॥
भावार्थ:- दया के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और
नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए
जानकर, हृदय से लगाकर समझाया॥72॥
चौपाई :
* मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥1॥
भावार्थ:-(और कहा-) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ
और जल्दी वन को चलो! रघुकुल
में श्रेष्ठ श्री रामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनंदित हो गए। बड़ी हानि दूर हो गई और बड़ा
लाभ हुआ!॥1।
श्री लक्ष्मण-सुमित्रा संवाद
* हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥2॥
जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥2॥
भावार्थ:-वे हर्षित हृदय से माता सुमित्राजी के पास आए, मानो
अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक
नवाया, किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामजी और जानकीजी
के साथ था॥2॥
* पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ:-माता ने उदास
मन देखकर उनसे (कारण) पूछा।
लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनाई। सुमित्राजी
कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गईं जैसे हिरनी चारों ओर वन में आग लगी
देखकर सहम जाती है॥3॥
* लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मण ने
देखा कि आज (अब) अनर्थ हुआ। ये स्नेह वश काम
बिगाड़ देंगी! इसलिए
वे विदा माँगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं (और मन ही मन सोचते हैं) कि
हे विधाता! माता
साथ जाने को कहेंगी या नहीं॥4॥
दोहा :
* समुझि सुमित्राँ राम सिय रूपु सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥73॥
भावार्थ:-सुमित्राजी ने श्री रामजी और श्री सीताजी के रूप, सुंदर
शील और स्वभाव को समझकर और उन पर राजा का प्रेम देखकर अपना
सिर धुना (पीटा) और कहा कि पापिनी कैकेयी ने
बुरी तरह घात लगाया॥73॥
चौपाई :
* धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥1॥
भावार्थ:-परन्तु कुसमय
जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित
चाहने वाली सुमित्राजी कोमल वाणी से बोलीं- हे तात! जानकीजी
तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करने
वाले श्री रामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं!॥1॥
* अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
भावार्थ:-जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि
निश्चय ही सीता-राम
वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥2॥
* गुर पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥3॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥3॥
भावार्थ:-गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिए। फिर श्री
रामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के
स्वार्थरहित सखा हैं॥3॥
* पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥4॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥4॥
भावार्थ:-जगत में जहाँ
तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे
सब रामजी के नाते से ही (पूजनीय
और परम प्रिय) मानने
योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ!॥4॥
दोहा :
* भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥74॥
भावार्थ:-मैं बलिहारी
जाती हूँ, (हे पुत्र!) मेरे समेत तुम बड़े ही
सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर श्री राम के चरणों में स्थान प्राप्त किया है॥74॥
चौपाई :
* पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥1॥
भावार्थ:-संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका
पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो
राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु
की भाँति उसका ब्याना (पुत्र
प्रसव करना) व्यर्थ
ही है॥1॥
* तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥2॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥2॥
भावार्थ:-तुम्हारे ही
भाग्य से श्री रामजी वन को जा रहे हैं। हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है। सम्पूर्ण
पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्री सीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक
प्रेम हो॥2॥
* रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥3॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥3॥
भावार्थ:-राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह- इनके
वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग
कर मन, वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥3॥
* तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥4॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥4॥
भावार्थ:-तुमको वन में
सब प्रकार से आराम है, जिसके
साथ श्री रामजी और सीताजी रूप पिता-माता
हैं। हे पुत्र! तुम
वही करना जिससे श्री रामचन्द्रजी वन में क्लेश न पावें, मेरा यही
उपदेश है॥4॥
छन्द :
* उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥
भावार्थ:-हे तात! मेरा यही
उपदेश है (अर्थात
तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण
श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय
परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं
कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्री लक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री
रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
सोरठा :
* मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥75॥
भावार्थ:-माता के चरणों में सिर नवाकर, हृदय
में डरते हुए (कि
अब भी कोई विघ्न न आ जाए) लक्ष्मणजी तुरंत
इस तरह चल दिए जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला
हो॥75॥
चौपाई :
* गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥1॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी वहाँ गए जहाँ श्री जानकीनाथजी थे और प्रिय का
साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्री रामजी और सीताजी
के सुंदर चरणों की वंदना करके वे उनके साथ चले और
राजभवन में आए॥1॥
* कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥2॥
भावार्थ:-नगर के स्त्री-पुरुष
आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी! उनके शरीर दुबले, मन दुःखी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद
छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों॥2॥
* कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥3॥
भावार्थ:-सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर (पीटकर) पछता रहे हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे
हों। राजद्वार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा
सकता॥3॥
श्री रामजी, लक्ष्मणजी, सीताजी का महाराज दशरथ के पास विदा माँगने जाना, दशरथजी का सीताजी को समझाना
* सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥4॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥4॥
भावार्थ:-'श्री रामजी
पधारे हैं', ये
प्रिय वचन कहकर मंत्री ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सहित दोनों
पुत्रों को (वन
के लिए तैयार) देखकर
राजा बहुत व्याकुल हुए॥4॥
दोहा :
* सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥76॥
भावार्थ:-सीता सहित दोनों सुंदर पुत्रों को देख-देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेह वश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं॥76॥
चौपाई :
* सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥1॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥1॥
भावार्थ:-राजा व्याकुल
हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न
हुआ भयानक सन्ताप है। तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी ने
अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर
विदा माँगी-॥1॥
* पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥2॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥2॥
भावार्थ:-हे पिताजी! मुझे
आशीर्वाद और आज्ञा दीजिए। हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं? हे तात! प्रिय के प्रेमवश प्रमाद (कर्तव्यकर्म में त्रुटि) करने से जगत में यश जाता
रहेगा और निंदा होगी॥2॥
* सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥3॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥3॥
भावार्थ:-यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर श्री रघुनाथजी की बाँह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा- हे तात! सुनो, तुम्हारे
लिए मुनि लोग कहते हैं कि श्री राम चराचर के स्वामी
हैं॥3॥
* सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥4॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥4॥
भावार्थ:-शुभ और अशुभ
कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल
देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥4॥
दोहा :
*औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥77॥
भावार्थ:-(किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग
कोई और ही पावे। भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे
जानने योग्य जगत में कौन है?॥77॥
चौपाई :
* रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥1॥
लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥1॥
भावार्थ:-राजा ने इस
प्रकार श्री रामचन्द्रजी को रखने के लिए छल
छोड़कर बहुत से उपाय किए,
पर जब उन्होंने
धर्मधुरंधर, धीर और बुद्धिमान श्री रामजी का रुख देख लिया और वे रहते
हुए न जान पड़े,॥1॥
* तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥2॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥2॥
भावार्थ:-तब राजा ने
सीताजी को हृदय से लगा लिया और बड़े प्रेम से
बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दुःसह दुःख कहकर सुनाए। फिर सास, ससुर
तथा पिता के (पास
रहने के) सुखों को
समझाया॥2॥
* सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरुन सुगमु बनु बिषमु न लागा॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥3॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥3॥
भावार्थ:-परन्तु सीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में
अनुरक्त था, इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा। फिर और सब
लोगों ने भी वन में विपत्तियों की अधिकता बता-बताकर सीताजी को समझाया॥3॥
* सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥4॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥4॥
भावार्थ:-मंत्री सुमंत्रजी की पत्नी और गुरु वशिष्ठजी की स्त्री अरुंधतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियाँ
स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो (राजा ने) वनवास दिया
नहीं है, इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें, तुम तो वही करो॥4॥
दोहा :
* सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥78॥
भावार्थ:-यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी को अच्छी नहीं लगी। (वे इस प्रकार
व्याकुल हो गईं) मानो
शरद ऋतु के चन्द्रमा की चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल
हो उठी हो॥78॥
चौपाई :
* सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर
कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण
(माला, मेखला
आदि) और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा-॥1॥
* नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥2॥
सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥2॥
भावार्थ:-हे रघुवीर! राजा
को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदय के) राजा शील
और स्नेह नहीं छोड़ेंगे! पुण्य, सुंदर
यश और परलोक चाहे नष्ट हे जाए, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे॥2॥
* अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥3॥
भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥3॥
भावार्थ:-ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माता की सीख
सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने (बड़ा) सुख पाया, परन्तु
राजा को ये वचन बाण के समान लगे। (वे
सोचने लगे) अब
भी अभागे प्राण (क्यों) नहीं निकलते!॥3॥
* लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥4॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ:-राजा मूर्छित
हो गए, लोग व्याकुल हैं। किसी को
कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्री रामचन्द्रजी
तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता
को सिर नवाकर चल दिए॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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