गोस्वामी तुलसीदासजी
निषाद की शंका और
सावधानी
चौपाई :
* सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥1॥
भावार्थ:-रात भर सई नदी के तीर पर निवास करके सबेरे वहाँ से चल
दिए और सब श्रृंगवेरपुर के समीप जा पहुँचे। निषादराज ने सब
समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर हृदय में विचार करने लगा-॥1॥
* कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥2॥
भावार्थ:-क्या कारण है
जो भरत वन को जा रहे हैं, मन
में कुछ कपट भाव अवश्य है। यदि मन में कुटिलता न
होती, तो साथ में सेना क्यों ले चले हैं॥2॥
* जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥3॥
भावार्थ:-समझते हैं कि
छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री राम को मारकर सुख
से निष्कण्टक राज्य करूँगा। भरत ने हृदय में राजनीति को स्थान नहीं
दिया (राजनीति का विचार नहीं किया)। तब
(पहले) तो कलंक ही लगा था,
अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़ेगा॥3॥
* सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥4॥
भावार्थ:-सम्पूर्ण देवता और दैत्य वीर जुट जाएँ, तो
भी श्री रामजी को रण में जीतने वाला कोई नहीं है।
भरत जो ऐसा कर रहे हैं,
इसमें आश्चर्य ही क्या है? विष
की बेलें अमृतफल
कभी नहीं फलतीं!॥4॥
दोहा :
* अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
भावार्थ:-ऐसा विचारकर
गुह (निषादराज) ने
अपनी जाति वालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ। नावों को
हाथ में (कब्जे
में) कर लो और फिर उन्हें डुबा
दो तथा सब घाटों को रोक दो॥189॥
चौपाई :
* होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥1॥
भावार्थ:-सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज
सजा लो (अर्थात
भरत से युद्ध में
लड़कर मरने के लिए तैयार हो जाओ)। मैं भरत से सामने (मैदान में) लोहा लूँगा (मुठभेड़ करूँगा) और
जीते जी उन्हें गंगा पार न उतरने दूँगा॥1॥
* समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥2॥
भावार्थ:-युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्री रामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर (जो चाहे जब नाश हो जाए), भरत श्री रामजी के भाई और राजा (उनके हाथ से मरना) और
मैं नीच सेवक- बड़े
भाग्य से ऐसी मृत्यु मिलती है॥2॥
* स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥3॥
भावार्थ:-मैं स्वामी के काम के लिए रण में लड़ाई करूँगा और
चौदहों लोकों को अपने यश से उज्ज्वल कर दूँगा।
श्री रघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूँगा। मेरे तो दोनों ही हाथों
में आनंद के लड्डू हैं (अर्थात
जीत गया तो राम सेवक का यश प्राप्त करूँगा और मारा गया तो श्री
रामजी की नित्य सेवा प्राप्त करूँगा)॥3॥
* साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥4॥
भावार्थ:-साधुओं के समाज में जिसकी गिनती नहीं और श्री रामजी के
भक्तों में जिसका स्थान नहीं, वह जगत
में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ ही जीता है। वह माता के यौवन रूपी वृक्ष के
काटने के लिए कुल्हाड़ा मात्र है॥4॥
दोहा :
* बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
भावार्थ:-(इस प्रकार श्री रामजी के लिए प्राण समर्पण का निश्चय करके) निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्री
रामचन्द्रजी का स्मरण करके उसने तुरंत ही
तरकस, धनुष और कवच माँगा॥190॥
चौपाई :
* बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥1॥
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे भाइयों! जल्दी करो और सब सामान
सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मन में कायरता न लावे।
सब हर्ष के साथ बोल उठे- हे
नाथ! बहुत अच्छा और आपस में एक-दूसरे का जोश
बढ़ाने लगे॥1॥
* चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥2॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥2॥
भावार्थ:-निषादराज को
जोहार कर-करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राम में लड़ना उन्हें
बहुत अच्छा लगता है। श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण
करके उन्होंने भाथियाँ (छोटे-छोटे तरकस) बाँधकर धनुहियों (छोटे-छोटे धनुषों) पर प्रत्यंचा चढ़ाई॥2॥
* अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥3॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥3॥
भावार्थ:-कवच पहनकर सिर पर लोहे का टोप रखते हैं और फरसे, भाले
तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं (सुधार रहे हैं)। कोई तलवार के वार रोकने में अत्यन्त ही कुशल है। वे ऐसे उमंग
में भरे हैं, मानो धरती छोड़कर आकाश में कूद (उछल) रहे हों॥3॥
* निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥4॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥4॥
भावार्थ:-अपना-अपना साज-समाज (लड़ाई का सामान और दल) बनाकर
उन्होंने जाकर निषादराज गुह को जोहार की।
निषादराज ने सुंदर योद्धाओं को देखकर, सबको सुयोग्य जाना और नाम ले-लेकर सबका सम्मान किया॥4॥
दोहा :
* भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे भाइयों! धोखा न लाना (अर्थात मरने से न घबड़ाना),
आज मेरा बड़ा भारी काम है। यह
सुनकर सब योद्धा बड़े जोश के साथ बोल उठे- हे वीर! अधीर
मत हो॥191॥
चौपाई :
* राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥
भावार्थ:-हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी
के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना
घोड़े की कर देंगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालेंगे)।
जीते जी पीछे पाँव न रखेंगे। पृथ्वी को रुण्ड-मुण्डमयी कर देंगे (सिरों
और धड़ों से छा देंगे)॥1॥
* दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
भावार्थ:-निषादराज ने
वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा- जुझारू (लड़ाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते ही बाईं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों
ने कहा कि खेत सुंदर हैं (जीत होगी)॥2॥
* बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
भावार्थ:-एक बूढ़े ने
शकुन विचारकर कहा- भरत से मिल लीजिए, उनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्री रामचन्द्रजी को मनाने जा
रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है॥3॥
* सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4॥
भावार्थ:-यह सुनकर निषादराज गुहने कहा- बूढ़ा
ठीक कह रहा है। जल्दी में (बिना
विचारे) कोई काम करके
मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध
करने में हित की बहुत बड़ी हानि है॥4॥
दोहा :
* गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥
भावार्थ:-अतएव हे वीरों! तुम
लोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद
लेता हूँ। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह
जानकर तब आकर वैसा (उसी
के अनुसार) प्रबंध
करूँगा॥192॥
चौपाई :
* लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥1॥
भावार्थ:-उनके सुंदर
स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर
और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने
लगा। उसने कंद, मूल, फल, पक्षी और हिरन मँगवाए॥1॥
* मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥2॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥2॥
भावार्थ:-कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार भर-भरकर लाए। भेंट का सामान सजाकर मिलने के
लिए चले तो मंगलदायक शुभ-शकुन
मिले॥2॥
* देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥3॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥3॥
भावार्थ:-निषादराज ने
मुनिराज वशिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर
ही से दण्डवत प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठजी ने उसको राम का
प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझाकर
कहा (कि यह श्री रामजी का मित्र है)॥3॥
* राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥4॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥4॥
भावार्थ:-यह श्री राम का मित्र है, इतना
सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में
उमँगते हुए चले। निषादराज गुह ने अपना गाँव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर
माथा टेककर जोहार की॥4॥
भरत-निषाद मिलन और संवाद और भरतजी का तथा नगरवासियों का प्रेम
दोहा :
* करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥193॥
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाइ॥193॥
भावार्थ:-दण्डवत करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। हृदय में प्रेम
समाता नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मणजी से भेंट हो गई हो॥193॥
चौपाई :
* भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥1॥
भावार्थ:-भरतजी गुह को
अत्यन्त प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की
रीति को सब लोग सिहा रहे हैं (ईर्षापूर्वक प्रशंसा कर रहे हैं)। मंगल की मूल 'धन्य-धन्य' की
ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥1॥
* लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥2॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥2॥
भावार्थ:-(वे कहते हैं-) जो
लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी
छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अँकवार भरकर (हृदय से चिपटाकर) श्री रामचन्द्रजी के छोटे
भाई भरतजी (आनंद
और प्रेमवश) शरीर
में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं॥2॥
* राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥3॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥3॥
भावार्थ:-जो लोग राम-राम कहकर
जँभाई लेते हैं (अर्थात
आलस्य से भी जिनके मुँह से राम-नाम
का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह (कोई भी पाप) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्री रामचन्द्रजी ने
हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन (जगत को पवित्र करने वाला) बना दिया॥3॥
* करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरेई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥4॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥4॥
भावार्थ:-कर्मनाशा नदी
का जल गंगाजी में पड़ जाता है (मिल जाता है), तब कहिए, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता? जगत
जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते
वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए॥4॥
दोहा :
* स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥
भावार्थ:-मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल
और किरात भी राम-नाम
कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं॥194॥
चौपाई :
* नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं॥1॥
भावार्थ:-इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर
से यही रीति चली आ रही है। श्री रघुनाथजी ने किसको
बड़ाई नहीं दी? इस प्रकार देवता राम नाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन-सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं॥1॥
* रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥2॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥2॥
भावार्थ:-राम सखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल
और क्षेम पूछी। भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय
विदेह हो गया (प्रेममुग्ध
होकर देह की सुध भूल गया)॥2॥
* सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥3॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥3॥
भावार्थ:-उसके मन में
संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया
कि वह खड़ा-खड़ा
टकटकी लगाए भरतजी को देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजी के चरणों की
वंदना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा-॥3॥
* कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥4॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥4॥
भावार्थ:-हे प्रभो! कुशल के
मूल आपके चरण कमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया।
अब आपके परम अनुग्रह से करोड़ों कुलों (पीढ़ियों) सहित
मेरा मंगल (कल्याण) हो
गया॥4॥
दोहा :
* समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥
भावार्थ:-मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी
की महिमा को मन में देख (विचार) कर (अर्थात
कहाँ तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करने वाला जीव, और
कहाँ अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी! पर उन्होंने मुझ जैसे
नीच को भी अपनी अहैतुकी कृपा वश अपना लिया- यह समझकर) जो
रघुवीर श्री रामजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत में विधाता के द्वारा ठगा गया है॥195॥
चौपाई :
* कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥1॥
भावार्थ:-मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद
दोनों से सब प्रकार से बाहर हूँ। पर जब से श्री रामचन्द्रजी
ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया॥1॥
द्वितीय सोपान
* देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥2॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥2॥
भावार्थ:-निषाद राज की
प्रीति को देखकर और सुंदर विनय सुनकर फिर भरतजी
के छोटे भाई शत्रुघ्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले-लेकर सुंदर (नम्र और मधुर) वाणी
से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की॥2॥
* जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥3॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥3॥
भावार्थ:-रानियाँ उसे
लक्ष्मणजी के समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि
तुम सौ लाख वर्षों तक सुख पूर्वक जिओ। नगर के स्त्री-पुरुष निषाद को देखकर ऐसे सुखी हुए, मानो लक्ष्मणजी
को देख रहे हों॥3॥
* कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥4॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥4॥
भावार्थ:-सब कहते हैं कि जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, जिसे
कल्याण स्वरूप श्री रामचन्द्रजी ने भुजाओं में बाँधकर गले
लगाया है। निषाद अपने भाग्य की बड़ाई सुनकर मन में परम
आनंदित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला॥4॥
दोहा :
* सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥
भावार्थ:-उसने अपने सब
सेवकों को इशारे से कह दिया। वे स्वामी का रुख
पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों
के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिए स्थान
बना दिए॥196॥
चौपाई :
* सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी ने जब
श्रृंगवेरपुर को देखा, तब
उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गए। वे निषाद को
लाग दिए (अर्थात
उसके कंधे पर हाथ रखे चलते हुए) ऐसे
शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किए हुए हों॥1॥
* एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥2॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिए हुए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के दर्शन
किए। श्री रामघाट को (जहाँ
श्री रामजी ने स्नान संध्या की थी) प्रणाम किया।
उनका मन इतना आनंदमग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्री रामजी मिल गए हों॥2॥
* करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी॥3॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी॥3॥
भावार्थ:-नगर के नर-नारी प्रणाम
कर रहे हैं और गंगाजी के ब्रह्म रूप जल को देख-देखकर आनंदित हो रहे हैं। गंगाजी में स्नान कर हाथ जोड़कर सब
यही वर माँगते हैं कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारा प्रेम
कम न हो (अर्थात
बहुत अधिक हो)॥3॥
* भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥4॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने कहा- हे
गंगे! आपकी रज सबको सुख देने वाली
तथा सेवक के लिए तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान
माँगता हूँ कि श्री सीता-रामजी
के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197॥
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197॥
भावार्थ:-इस प्रकार भरतजी स्नान कर और गुरुजी की आज्ञा पाकर तथा यह जानकर कि सब माताएँ
स्नान कर चुकी हैं, डेरा उठा ले चले॥197॥
चौपाई :
* जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥1॥
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥1॥
भावार्थ:-लोगों ने जहाँ-तहाँ
डेरा डाल दिया। भरतजी ने सभी का पता लगाया (कि सब लोग आकर आराम से टिक गए हैं या नहीं)। फिर देव पूजन करके आज्ञा पाकर दोनों
भाई श्री रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी के पास गए॥1॥
* चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी॥
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥2॥
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥2॥
भावार्थ:-चरण दबाकर और
कोमल वचन कह-कहकर भरतजी ने सब माताओं का सत्कार किया। फिर भाई शत्रुघ्न को माताओं
की सेवा सौंपकर आपने निषाद को बुला लिया॥2॥
* चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीरु सनेह न थोरें॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥3॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥3॥
भावार्थ:-सखा निषाद राज के हाथ से हाथ मिलाए हुए भरतजी चले।
प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है (अर्थात
बहुत अधिक प्रेम है), जिससे उनका शरीर शिथिल हो
रहा है। भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओ और
नेत्र और मन की जलन कुछ ठंडी करो-॥3॥
* जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥4॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥4॥
भावार्थ:-जहाँ सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मण रात को सोए थे। ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के कोयों में
(प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। भरतजी के वचन
सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहाँ ले गया॥4॥
दोहा :
* जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥
भावार्थ:-जहाँ पवित्र
अशोक के वृक्ष के नीचे श्री रामजी ने विश्राम
किया था। भरतजी ने वहाँ अत्यन्त प्रेम से आदरपूर्वक दण्डवत
प्रणाम किया॥198॥
चौपाई :
* कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥
चरन देख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥1॥
चरन देख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥1॥
भावार्थ:-कुशों की सुंदर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके
प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी के चरण चिह्नों
की रज आँखों में लगाई। (उस
समय के) प्रेम की अधिकता कहते नहीं बनती॥1॥
* कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥2॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥2॥
भावार्थ:-भरतजी ने दो-चार स्वर्णबिन्दु (सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के
गहने-कपड़ों से गिर
पड़े थे) देखे तो उनको सीताजी के
समान समझकर सिर पर रख लिया। उनके नेत्र (प्रेमाश्रु के) जल से भरे हैं और हृदय में ग्लानि भरी है। वे सखा से सुंदर
वाणी में ये वचन बोले-॥2॥
* श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥3॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥3॥
भावार्थ:-ये स्वर्ण के
कण या तारे भी सीताजी के विरह से ऐसे श्रीहत (शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं, जैसे
(राम वियोग में) अयोध्या के नर-नारी
विलीन (शोक के कारण क्षीण) हो रहे हैं। जिन सीताजी के
पिता राजा जनक हैं, इस जगत में भोग और योग दोनों ही जिनकी मुट्ठी में हैं, उन
जनकजी को मैं किसकी उपमा दूँ?॥3॥
* ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाईं॥4॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाईं॥4॥
भावार्थ:-सूर्यकुल के
सूर्य राजा दशरथजी जिनके ससुर हैं, जिनको
अमरावती के स्वामी इन्द्र भी सिहाते थे। (ईर्षापूर्वक उनके जैसा ऐश्वर्य और प्रताप पाना चाहते थे) और प्रभु
श्री रघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता
है, वह श्री रामचन्द्रजी की (दी
हुई) बड़ाई से ही होता है॥4॥
दोहा :
* पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत हृदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥
बिहरत हृदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥
भावार्थ:-उन श्रेष्ठ
पतिव्रता स्त्रियों में शिरोमणि सीताजी की
साथरी (कुश शय्या) देखकर मेरा
हृदय हहराकर (दहलकर) फट
नहीं जाता, हे शंकर! यह
वज्र से भी अधिक कठोर है!॥199॥
चौपाई :
* लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥1॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे॥1॥
भावार्थ:-मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुंदर और प्यार करने
योग्य हैं। ऐसे भाई न तो किसी के हुए, न हैं, न
होने के ही हैं। जो लक्ष्मण अवध के लोगों को प्यारे, माता-पिता के
दुलारे और श्री सीता-रामजी
के प्राण प्यारे हैं,॥1॥
* मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काउ॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥2॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥2॥
भावार्थ:-जिनकी कोमल
मूर्ति और सुकुमार स्वभाव है, जिनके
शरीर में कभी गरम हवा भी नहीं लगी, वे वन
में सब प्रकार की विपत्तियाँ सह रहे हैं। (हाय!) इस
मेरी छाती ने (कठोरता में) करोड़ों
वज्रों का भी निरादर कर दिया (नहीं
तो यह कभी की फट गई होती)॥2॥
* राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर॥
पुरजन परिजन गुरु पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥3॥
पुरजन परिजन गुरु पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी ने जन्म (अवतार) लेकर जगत् को प्रकाशित (परम सुशोभित) कर दिया। वे रूप, शील, सुख और समस्त गुणों के समुद्र हैं। पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, पिता-माता सभी को श्री रामजी का स्वभाव सुख
देने वाला है॥3॥
* बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥4॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥4॥
भावार्थ:-शत्रु भी श्री रामजी की बड़ाई करते हैं। बोल-चाल, मिलने
के ढंग और विनय से वे मन को हर लेते हैं। करोड़ों सरस्वती और अरबों
शेषजी भी प्रभु श्री रामचंद्रजी के गुण समूहों
की गिनती नहीं कर सकते॥4॥
दोहा :
* सुखस्वरूप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
भावार्थ:-जो सुख स्वरूप रघुवंश शिरोमणि श्री रामचंद्रजी मंगल और
आनंद के भंडार हैं, वे पृथ्वी पर
कुशा बिछाकर सोते हैं। विधाता की गति बड़ी ही
बलवान है॥200॥
चौपाई :
* राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राउ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी ने कानों से भी कभी दुःख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष
की तरह उनकी सार-सँभाल
किया करते थे। सब माताएँ भी रात-दिन
उनकी ऐसी सार-सँभाल
करती थीं, जैसे पलक नेत्रों और साँप अपनी मणि की करते हैं॥1॥
* ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥
धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥2॥
धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥2॥
भावार्थ:-वही श्री रामचंद्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कंद-मूल तथा फल-फूलों
का भोजन करते हैं। अमंगल की मूल कैकेयी धिक्कार है, जो
अपने प्राणप्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गई॥2॥
* मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥3॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥3॥
भावार्थ:-मुझे पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार
है, जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाता ने मुझे कुल का कलंक
बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामी द्रोही
बना दिया॥3॥
* सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥4॥
भावार्थ:-यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा- हे नाथ! आप
व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं? श्री
रामचंद्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्री रामचंद्रजी को प्यारे हैं।
यही निचोड़ (निश्चित
सिद्धांत) है, दोष
तो प्रतिकूल विधाता को है॥4॥
छंद- :
* बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहे किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
भावार्थ:-प्रतिकूल विधाता की करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया (उसकी मति
फेर दी)। उस रात को प्रभु श्री रामचंद्रजी बार-बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना
करते थे। तुलसीदासजी कहते हैं- (निषादराज
कहता है कि-) श्री रामचंद्रजी
को आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूँ।
परिणाम में मंगल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिए।
सोरठा :
* अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी अंतर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह
विचार कर और मन में दृढ़ता लाकर चलिए और विश्राम कीजिए॥201॥
चौपाई :
* सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥1॥
भावार्थ:-सखा के वचन
सुनकर, हृदय में धीरज धरकर श्री
रामचंद्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को
चले। नगर के सारे स्त्री-पुरुष
यह (श्री रामजी के ठहरने के स्थान का) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थान को
देखने चले॥1॥
* परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।
भरि भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधातहि दूषन देहीं॥2॥
भरि भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधातहि दूषन देहीं॥2॥
भावार्थ:-वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और
कैकेयी को बहुत दोष देते हैं। नेत्रों में
जल भर-भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण
देते हैं॥2॥
* एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥3॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥3॥
भावार्थ:-कोई भरतजी के
स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि
राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निंदा करके निषाद की
प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद
को कौन कह सकता है?॥3॥
* ऐहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥4॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार रातभर सब लोग जागते रहे। सबेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर
गुरुजी को चढ़ाकर फिर नई नाव पर सब माताओं को चढ़ाया॥4॥
* दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥5॥
भावार्थ:-चार घड़ी में सब गंगाजी के पार उतर गए। तब भरतजी ने उतरकर सबको सँभाला॥5॥
दोहा :
* प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥
भावार्थ:-प्रातःकाल की
क्रियाओं को करके माता के चरणों की वंदना कर और
गुरुजी को सिर नवाकर भरतजी ने विषाद गणों को (रास्ता दिखलाने के लिए) आगे कर लिया और सेना चला दी॥202॥141॥
चौपाई :
* कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-निषादराज को
आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियाँ चलाईं।
छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणों सहित
गुरुजी ने गमन किया॥1॥
* आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥2॥
गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥2॥
भावार्थ:-तदनन्तर आप (भरतजी) ने
गंगाजी को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित श्री सीता-रामजी का स्मरण किया। भरतजी पैदल ही चले। उनके साथ कोतल (बिना सवार के) घोड़े
बागडोर से बँधे हुए चले जा रहे हैं॥2॥
* कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥3॥
रामु पयादेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥3॥
भावार्थ:-उत्तम सेवक
बार-बार कहते हैं कि हे नाथ! आप
घोड़े पर सवार हो लीजिए। (भरतजी
जवाब देते हैं कि) श्री
रामचंद्रजी तो पैदल ही गए और हमारे लिए रथ, हाथी और घोड़े बनाए गए
हैं॥3॥
* सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥4॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥4॥
भावार्थ:-मुझे उचित तो
ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का
धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण
ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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