गोस्वामी तुलसीदासजी
शूर्पणखा का रावण के निकट
जाना, श्री
सीताजी का अग्नि प्रवेश और माया सीता
* धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
भावार्थ:-खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा क्रोध करके
वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥
* करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
भावार्थ:-शराब
पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि
शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण
किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने
से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह
से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥
* प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
भावार्थ:-नम्रता
के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार)
से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति
मैंने सुनी है॥6॥
सोरठा :
* रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥
भावार्थ:-शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को
छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥21 (क)॥
दोहा :
* सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥21 ख॥
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ॥21 ख॥
भावार्थ:-(रावण की) सभा के बीच वह व्याकुल होकर पड़ी हुई बहुत प्रकार से रो-रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव! तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिए?॥21 (ख)॥
चौपाई :
* सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
भावार्थ:-शूर्पणखा
के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होंने शूर्पणखा की बाँह पकड़कर उसे उठाया
और समझाया। लंकापति रावण ने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए?॥1॥
* अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
भावार्थ:-(वह बोली-) अयोध्या
के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं, वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी
समझ पड़ी है कि वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देंगे॥2॥
* जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
भावार्थ:-जिनकी
भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख! मुनि लोग वन में
निर्भय होकर विचरने लगे हैं। वे देखने में तो बालक हैं, पर हैं काल के समान।
वे परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणों से युक्त हैं॥3॥
* अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥4॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥4॥
भावार्थ:-दोनों
भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टों का वध करने में लगे हैं और देवता तथा
मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं, 'राम' ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक
तरुणी सुंदर स्त्री है॥4॥
* रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
भावार्थ:-विधाता
ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड़ रति (कामदेव की स्त्री) उस पर
निछावर हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे॥5॥
* खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
भावार्थ:-मेरी
पुकार सुनकर खर-दूषण सहायता करने आए। पर उन्होंने क्षण भर में
सारी सेना को मार डाला। खर-दूषन और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण के सारे अंग
जल उठे॥6॥
दोहा :
* सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥
भावार्थ:-उसने
शूर्पणखा को समझाकर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया, किन्तु (मन में) वह अत्यन्त चिंतावश होकर अपने महल में गया, उसे रात भर नींद
नहीं पड़ी॥22॥
चौपाई :
* सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥
भावार्थ:-(वह मन ही मन विचार करने लगा-)
देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके। खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है?॥1॥
* सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
भावार्थ:-देवताओं
को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है, तो मैं जाकर उनसे
हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाण (के आघात)
से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊँगा॥2॥
* होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
भावार्थ:-इस
तामस शरीर से भजन तो होगा नहीं, अतएव मन, वचन और कर्म से यही दृढ़ निश्चय है। और यदि वे मनुष्य रूप कोई
राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूँगा॥3॥
* चला अकेल जान चढ़ि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
भावार्थ:-राक्षसों
की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कंदरा में चले जाओ। सावधान
रहना। प्रभु श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले॥6॥
दोहा :
* लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥23॥
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥23॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी
जब कंद-मूल-फल लेने के लिए वन
में गए, तब
(अकेले में) कृपा और सुख के समूह श्री रामचंद्रजी हँसकर जानकीजी से बोले-॥23॥
चौपाई :
* सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
भावार्थ:-हे
प्रिये! हे सुंदर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले!
सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य
लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास
करो॥1॥
* जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामजी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्री सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा
गईं। सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥2॥
* लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
भावार्थ:-भगवान
ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना। स्वार्थ परायण और नीच
रावण वहाँ गया, जहाँ मारीच था और उसको सिर नवाया॥3॥
* नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
भावार्थ:- नीच का झुकना (नम्रता)
भी अत्यन्त दुःखदायी होता है। जैसे अंकुश, धनुष, साँप और बिल्ली का
झुकना। हे भवानी! दुष्ट की मीठी वाणी
भी (उसी प्रकार) भय देने वाली होती
है, जैसे बिना ऋतु के फूल!॥4॥
मारीच प्रसंग और स्वर्णमृग
रूप में मारीच का मारा जाना, सीताजी द्वारा लक्ष्मण को भेजना
दोहा :
* करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥24॥
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥24॥
भावार्थ:- तब मारीच ने उसकी
पूजा करके आदरपूर्वक बात पूछी- हे तात!
आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आए हैं?॥24॥
चौपाई :
* दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
भावार्थ:- भाग्यहीन रावण ने
सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही (और फिर कहा-)
तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से मैं उस
राजवधू को हर लाऊँ॥1॥
* तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
भावार्थ:- तब उसने (मारीच ने)
कहा- हे दशशीश!
सुनिए। वे मनुष्य रूप में चराचर के ईश्वर हैं। हे
तात! उनसे वैर न कीजिए। उन्हीं के मारने से मरना और
उनके जिलाने से जीना होता है (सबका जीवन-मरण उन्हीं के अधीन है)॥2॥
* मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
भावार्थ:- यही राजकुमार मुनि
विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथजी ने बिना
फल का बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभर में सौ योजन पर आ गिरा। उनसे वैर करने में
भलाई नहीं है॥3॥
* भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
भावार्थ:- मेरी दशा तो भृंगी
के कीड़े की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं, तो भी बड़े शूरवीर हैं।
उनसे विरोध करने में पूरा न पड़ेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥4॥
दोहा :
* जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥25॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥25॥
भावार्थ:- जिसने ताड़का और
सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर
डाला, ऐसा
प्रचंड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?॥25॥
चौपाई :
* जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
भावार्थ:- अतः अपने कुल की
कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ
दीं (दुर्वचन कहे)। (कहा-) अरे मूर्ख!
तू गुरु की तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो संसार में
मेरे समान योद्धा कौन है?॥1॥
* तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥2॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी॥2॥
भावार्थ:- तब मारीच ने हृदय
में अनुमान किया कि शस्त्री (शस्त्रधारी), मर्मी (भेद जानने वाला),
समर्थ स्वामी, मूर्ख, धनवान, वैद्य, भाट, कवि और रसोइया- इन नौ व्यक्तियों से विरोध (वैर) करने में कल्याण (कुशल) नहीं होता॥2॥
* उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
भावार्थ:- जब मारीच ने दोनों
प्रकार से अपना मरण देखा, तब उसने श्री रघुनाथजी की शरण तकी (अर्थात उनकी
शरण जाने में ही कल्याण समझा)। (सोचा कि) उत्तर देते ही (नाहीं करते ही) यह अभागा मुझे मार डालेगा। फिर श्री रघुनाथजी
के बाण लगने से ही क्यों न मरूँ॥3॥
* अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
भावार्थ:- हृदय में ऐसा समझकर
वह रावण के साथ चला। श्री रामजी के चरणों में उसका अखंड प्रेम है। उसके
मन में इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्री रामजी
को देखूँगा, किन्तु उसने यह हर्ष रावण को नहीं जनाया॥4॥
छन्द :
* निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥
श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥
भावार्थ:-(वह मन ही मन सोचने लगा-)
अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगा। जानकीजी
सहित और छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत कृपानिधान श्री रामजी के चरणों में
मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसी के वश में न होने
वाले, स्वतंत्र
भगवान) को भी वश में करने वाली है, अब वे ही आनंद के
समुद्र श्री हरि अपने हाथों से बाण सन्धानकर मेरा वध करेंगे।
दोहा :
* मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥26॥
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥26॥
भावार्थ:- धनुष-बाण धारण किए मेरे पीछे-पीछे पृथ्वी पर (पकड़ने के लिए) दौड़ते हुए प्रभु को
मैं फिर-फिरकर देखूँगा। मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं
है॥26॥
चौपाई :
* तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
भावार्थ:- जब रावण उस वन के
(जिस वन में श्री रघुनाथजी रहते थे)
निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया!
वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। सोने का
शरीर मणियों से जड़कर बनाया था॥1॥
* सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥2॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला॥2॥
भावार्थ:- सीताजी ने उस परम
सुंदर हिरन को देखा, जिसके अंग-अंग की छटा अत्यन्त मनोहर थी। (वे कहने लगीं-) हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुनिए। इस मृग की
छाल बहुत ही सुंदर है॥2॥
* सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
भावार्थ:- जानकीजी ने कहा-
हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभो! इसको मारकर इसका चमड़ा ला दीजिए। तब श्री रघुनाथजी (मारीच के कपटमृग बनने का) सब कारण जानते हुए
भी, देवताओं
का कार्य बनाने के लिए हर्षित होकर उठे॥3॥
* मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
भावार्थ:- हिरन को देखकर श्री
रामजी ने कमर में फेंटा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर सुंदर (दिव्य)
बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझाकर कहा-
हे भाई! वन में बहुत
से राक्षस फिरते हैं॥4॥
* सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥5॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥5॥
भावार्थ:- तुम बुद्धि और विवेक
के द्वारा बल और समय का विचार करके सीताजी की रखवाली करना। प्रभु को देखकर
मृग भाग चला। श्री रामचन्द्रजी भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े॥5॥
* निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
भावार्थ:- वेद जिनके विषय
में 'नेति-नेति' कहकर रह जाते हैं और शिवजी भी जिन्हें ध्यान में नहीं पाते (अर्थात जो मन और वाणी से नितान्त परे हैं), वे ही श्री रामजी
माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। वह कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है। कभी तो
प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है॥6॥
* प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
भावार्थ:- इस प्रकार प्रकट
होता और छिपता हुआ तथा बहुतेरे छल करता हुआ वह प्रभु को दूर ले गया। तब
श्री रामचन्द्रजी ने तक कर (निशाना साधकर)
कठोर बाण मारा, (जिसके लगते ही)
वह घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पड़ा॥7॥
* लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
भावार्थ:- पहले लक्ष्मणजी
का नाम लेकर उसने पीछे मन में श्री रामजी का स्मरण किया। प्राण त्याग
करते समय उसने अपना (राक्षसी)
शरीर प्रकट किया और प्रेम सहित श्री रामजी का स्मरण किया॥8॥
* अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥9॥
भावार्थ:- सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामजी ने उसके हृदय के प्रेम को पहचानकर
उसे वह गति (अपना परमपद) दी जो मुनियों को भी दुर्लभ है॥9॥
दोहा :
* बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥27॥
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ॥27॥
भावार्थ:- देवता बहुत से फूल
बरसा रहे हैं और प्रभु के गुणों की गाथाएँ (स्तुतियाँ) गा रहे हैं (कि) श्री रघुनाथजी ऐसे
दीनबन्धु हैं कि उन्होंने असुर को भी अपना परम पद दे दिया॥27॥
चौपाई :
* खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
भावार्थ:- दुष्ट मारीच को
मारकर श्री रघुवीर तुरंत लौट पड़े। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे
रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच की 'हा लक्ष्मण' की आवाज) सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजी से
कहने लगीं॥1॥
* जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥2॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥2॥
भावार्थ:- तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े
संकट में हैं। लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे माता! सुनो, जिनके भ्रृकुटि
विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय
(प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या
कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं?॥2॥
* मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
भावार्थ:- इस पर जब सीताजी
कुछ मर्म वचन (हृदय में चुभने वाले वचन) कहने लगीं, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी चंचल हो उठा। वे श्री सीताजी को वन और दिशाओं
के देवताओं को सौंपकर वहाँ चले,
जहाँ रावण रूपी चन्द्रमा के लिए राहु रूप श्री रामजी
थे॥3॥
श्री सीताहरण और श्री सीता
विलाप
* सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
भावार्थ:- रावण सूना मौका
देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य
तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट)
अन्न नहीं खाते-॥4॥
* सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
भावार्थ:- वही दस सिर वाला
रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ
भड़िहाई * (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी!
इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा
बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
भावार्थ:- रावण ने अनेकों
प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने
कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6।
* तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
भावार्थ:- तब रावण ने अपना
असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होंने
गहरा धीरज धरकर कहा- 'अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गए'॥7॥
* जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
भावार्थ:- जैसे सिंह की स्त्री
को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को
क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वंदना करके सुख माना॥8॥
दोहा :
* क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
भावार्थ:- फिर क्रोध में भरकर
रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग
से चला, किन्तु
डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥
चौपाई :
* हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
भावार्थ:- (सीताजी विलाप कर रही थीं-)
हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से
मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख
देने वाले, हा रघुकुल रूपी कमल के सूर्य!॥1॥
* हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
भावार्थ:- हा लक्ष्मण! तुम्हारा
दोष नहीं है। मैंने क्रोध किया,
उसका फल पाया। श्री जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर
रही हैं- (हाय!) प्रभु की कृपा तो बहुत है,
परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गए हैं॥2॥
* बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
भावार्थ:- प्रभु को मेरी यह
विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर
जड़-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए॥3॥
श्री सीताहरण और श्री सीता
विलाप
* सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
भावार्थ:- रावण सूना मौका
देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य
तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट)
अन्न नहीं खाते-॥4॥
* सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
भावार्थ:- वही दस सिर वाला
रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ
भड़िहाई * (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी!
इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा
बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँड़ों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे 'भड़िहाई' कहते हैं।
* नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
भावार्थ:- रावण ने अनेकों
प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने
कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6।
* तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥7॥
भावार्थ:- तब रावण ने अपना
असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होंने
गहरा धीरज धरकर कहा- 'अरे दुष्ट! खड़ा तो रह, प्रभु आ गए'॥7॥
* जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना॥8॥
भावार्थ:- जैसे सिंह की स्त्री
को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को
क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वंदना करके सुख माना॥8॥
दोहा :
* क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
भावार्थ:- फिर क्रोध में भरकर
रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग
से चला, किन्तु
डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥
चौपाई :
* हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
भावार्थ:- (सीताजी विलाप कर रही थीं-)
हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से
मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख
देने वाले, हा रघुकुल रूपी कमल के सूर्य!॥1॥
* हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
भावार्थ:- हा लक्ष्मण! तुम्हारा
दोष नहीं है। मैंने क्रोध किया,
उसका फल पाया। श्री जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर
रही हैं- (हाय!) प्रभु की कृपा तो बहुत है,
परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गए हैं॥2॥
* बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
भावार्थ:- प्रभु को मेरी यह
विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर
जड़-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए॥3॥
जटायु-रावण-युद्ध, अशोक वाटिका में सीताजी को रखना
* गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥
भावार्थ:- गृध्रराज जटायु
ने सीताजी की दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी
की पत्नी हैं। (उसने देखा कि)
नीच राक्षस इनको (बुरी तरह) लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय
म्लेच्छ के पाले पड़ गई हो॥4॥
* सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥
भावार्थ:- (वह बोला-) हे सीते पुत्री! भय मत कर। मैं इस
राक्षस का नाश करूँगा। (यह कहकर)
वह पक्षी क्रोध में भरकर ऐसे दौड़ा, जैसे पर्वत की ओर
वज्र छूटता हो॥5॥
* रे रे दुष्ट ठाढ़ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना॥6॥
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना॥6॥
भावार्थ:- (उसने ललकारकर कहा-)
रे रे दुष्ट! खड़ा क्यों नहीं
होता? निडर
होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान
आता हुआ देखकर रावण घूमकर मन में अनुमान करने लगा-॥6॥
* की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा॥7॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा॥7॥
भावार्थ:- यह या तो मैनाक
पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड़। पर वह (गरुड़) तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल
को जानता है! (कुछ पास आने पर) रावण ने उसे पहचान
लिया (और बोला-)
यह तो बूढ़ा जटायु है। यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोड़ेगा॥7॥
* सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥
भावार्थ:- यह सुनते ही गीध
क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकीजी को छोड़कर
कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले!
ऐसा होगा कि-॥8॥
* राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥
भावार्थ:- श्री रामजी के क्रोध
रूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगा (होकर भस्म) हो जाएगा। योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता। तब
गीध क्रोध करके दौड़ा॥9॥
* धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥
भावार्थ:- उसने (रावण के) बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर
पड़ा। गीध सीताजी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंचों से मार-मारकर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला। इससे उसे एक घड़ी के लिए
मूर्च्छा हो गई॥10॥
* तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥
भावार्थ:- तब खिसियाए हुए
रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पंख
काट डाले। पक्षी (जटायु)
श्री रामजी की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी
पर गिर पड़ा॥11॥
* सीतहि जान चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥
भावार्थ:- सीताजी को फिर रथ
पर चढ़ाकर रावण बड़ी उतावली के साथ चला। उसे भय कम न था। सीताजी आकाश में
विलाप करती हुई जा रही हैं। मानो व्याधे के वश में पड़ी हुई (जाल में फँसी हुई) कोई भयभीत हिरनी हो!॥12॥
* गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥
भावार्थ:- पर्वत पर बैठे हुए
बंदरों को देखकर सीताजी ने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिया। इस प्रकार वह सीताजी
को ले गया और उन्हें अशोक वन में जा रखा॥13॥
दोहा :
* हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥29 क॥
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥29 क॥
भावार्थ:- सीताजी को बहुत
प्रकार से भय और प्रीति दिखलाकर जब वह दुष्ट हार गया, तब उन्हें यत्न कराके
(सब व्यवस्था ठीक कराके) अशोक वृक्ष के नीचे रख दिया॥29
(क)॥
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
श्री रामजी का विलाप, जटायु का प्रसंग, कबन्ध उद्धार
* जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥29 ख॥
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥29 ख॥
भावार्थ:- जिस प्रकार कपट मृग
के साथ श्री रामजी दौड़ चले थे,
उसी छवि को हृदय में रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥29 (ख)॥
चौपाई :
* रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
भावार्थ:- (इधर) श्री रघुनाथजी
ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर ब्राह्य रूप में बहुत चिंता की
(और कहा-) हे भाई! तुमने जानकी को अकेली छोड़ दिया और मेरी आज्ञा
का उल्लंघन कर यहाँ चले आए!॥1॥
* निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
भावार्थ:- राक्षसों के झुंड
वन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं
है। छोटे भाई लक्ष्मणजी ने श्री रामजी के चरणकमलों को पकड़कर हाथ जोड़कर
कहा- हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है॥2॥
* अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
भावार्थ:- लक्ष्मणजी सहित
प्रभु श्री रामजी वहाँ गए, जहाँ गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकीजी से रहित देखकर श्री
रामजी साधारण मनुष्य की भाँति व्याकुल और दीन (दुःखी) हो गए॥3॥
* हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
भावार्थ:- (वे विलाप करने लगे-)
हा गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मणजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब श्री रामजी लताओं और वृक्षों
की पंक्तियों से पूछते हुए चले॥4॥
* हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
भावार्थ:- हे पक्षियों! हे
पशुओं! हे भौंरों की पंक्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥5॥
* कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
भावार्थ:- कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् का चंद्रमा और
नागिनी, अरुण
का पाश, कामदेव
का धनुष, हंस, गज और सिंह- ये सब आज अपनी
प्रशंसा सुन रहे हैं॥6॥
* श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
भावार्थ:- बेल, सुवर्ण और
केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है। हे जानकी!
सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे
अंगों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में
फूल रहे हैं)॥7॥
* किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
भावार्थ:- तुमसे यह अनख (स्पर्धा)
कैसे सही जाती है? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार (अनन्त ब्रह्माण्डों के अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्री सीताजी के)
स्वामी श्री रामजी सीताजी को खोजते हुए (इस प्रकार) विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यंत कामी पुरुष
हो॥8॥
* पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
भावार्थ:- पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी
श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। आगे (जाने पर) उन्होंने गृध्रपति जटायु को पड़ा देखा। वह श्री
रामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था,
जिनमें (ध्वजा, कुलिश आदि की)
रेखाएँ (चिह्न) हैं॥9॥
दोहा :
* कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
भावार्थ:-कृपा
सागर श्री रघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया (उसके सिर पर करकमल फेर दिया)। शोभाधाम श्री रामजी का (परम सुंदर)
मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही॥30॥
चौपाई :
* तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
भावार्थ:- तब धीरज धरकर गीध
ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा
की है। उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है॥1॥
* लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं। बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥2॥
दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥2॥
भावार्थ:- हे गोसाईं!
वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है। सीताजी
कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यंत विलाप कर रही थीं। हे प्रभो! आपके दर्शनों के लिए
ही प्राण रोक रखे थे। हे
कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते
हैं॥2॥
* राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी
ने कहा- हे तात! शारीर को बनाए रखिए। तब उसने मुस्कुराते हुए मुँह से यह बात कही-
मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं-॥3॥
* सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥4॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥4॥
भावार्थ:- वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं।
हे नाथ! अब मैं किस कमी (की पूर्ति) के लिए देह को रखूँ? नेत्रों में जल भरकर
श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे तात! आपने
अपने श्रेष्ठ कर्मों से (दुर्लभ)
गति पाई है॥4॥
* परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
भावार्थ:- जिनके मन में दूसरे
का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत् में
कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे
परम धाम में जाइए। मैं
आपको क्या दूँ? आप तो पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं)॥5॥
दोहा :
* सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
भावार्थ:- हे तात!
सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम
हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥31॥
चौपाई :
* गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ:- जटायु ने गीध की
देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रों में
(प्रेम तथा आनंद के आँसुओं का)
जल भरकर वह स्तुति कर रहा है-॥1॥
छंद :
* जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
भावार्थ:- हे रामजी! आपकी
जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के)
प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खंड-खंड करने के लिए प्रचण्ड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान
श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और (लाल)
कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले
और भव-भय से छुड़ाने वाले कृपालु श्री रामजी
को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥1॥
* बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥
भावार्थ:- आप अपरिमित बलवाले
हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार),
एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविंद (वेद वाक्यों द्वारा
जानने योग्य),
इंद्रियों से अतीत, (जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) द्वंद्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति
और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम मंत्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन
को आनंद देने वाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनों के प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट वृत्तियों)
के दल का दलन करने वाले श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार
करता हूँ॥2॥
* जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥3॥
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥3॥
भावार्थ:- जिनको श्रुतियाँ
निरंजन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और
जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं।
वे ही करुणाकन्द, शोभा के समूह (स्वयं श्री भगवान्) प्रकट
होकर जड़-चेतन समस्त जगत् को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय
कमल के भ्रमर रूप उनके अंग-अंग में बहुत से
कामदेवों की छवि शोभा पा रही है॥3॥
* जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
भावार्थ:- जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शांत)
हैं। मन और इंद्रियों को सदा वश में करते हुए योगी
बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी
निरंतर अपने दासों के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति
आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥
दोहा :
* अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
भावार्थ:- अखंड भक्ति का वर
माँगकर गृध्रराज जटायु श्री हरि के परमधाम को चला गया। श्री रामचंद्रजी ने
उसकी (दाहकर्म आदि सारी) क्रियाएँ यथायोग्य अपने हाथों से कीं॥32॥
चौपाई :
* कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
भावार्थ:- श्री रघुनाथजी अत्यंत
कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था,
उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥
* सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-)
हे पार्वती! सुनो, वे लोग अभागे हैं, जो भगवान् को
छोड़कर विषयों से अनुराग करते हैं। फिर दोनों भाई सीताजी को खोजते हुए आगे चले। वे वन की सघनता
देखते जाते हैं॥2॥
* संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन॥
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥3॥
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥3॥
भावार्थ:- वह सघन वन लताओं
और वृक्षों से भरा है। उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्री रामजी ने
रास्ते में आते हुए कबंध राक्षस को मार डाला। उसने अपने शाप की सारी बात
कही॥3॥
* दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥4॥
सुनु गंधर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥4॥
भावार्थ:- (वह बोला-) दुर्वासाजी
ने मुझे शाप दिया था। अब प्रभु के चरणों को देखने से वह पाप मिट गया।
(श्री रामजी ने कहा-) हे गंधर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूँ, ब्राह्मणकुल से
द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता॥4॥
दोहा :
* मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ:- मन, वचन और कर्म से कपट
छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता
उसके वश हो जाते हैं॥33॥
चौपाई :
* सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥
भावार्थ:- शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर
वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं। शील और गुण से
हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है। और गुण गणों से युक्त और ज्ञान में निपुण भी
शूद्र पूजनीय नहीं है॥1॥
* कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
भावार्थ:- श्री रामजी ने अपना
धर्म (भागवत धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया।
तदनन्तर श्री रघुनाथजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गंधर्व का स्वरूप) पाकर आकाश में चला
गया॥2॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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