गोस्वामी तुलसीदासजी
श्री राम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन और नगर निवासियों को सोए
छोड़कर आगे बढ़ना
दोहा :
* सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥
भावार्थ:-वन का सब साज-सामान
सजकर (वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर) श्री रामचन्द्रजी स्त्री
(श्री सीताजी) और भाई (लक्ष्मणजी) सहित, ब्राह्मण
और गुरु के चरणों
की वंदना करके सबको अचेत करके चले॥79॥
चौपाई :
* निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥
भावार्थ:-राजमहल से निकलकर श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग
विरह की अग्नि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया, फिर
श्री रामचन्द्रजी ने ब्राह्मणों की मंडली को बुलाया॥1॥
* गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥2॥
जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥2॥
भावार्थ:-गुरुजी से कहकर उन सबको वर्षाशन (वर्षभर का भोजन) दिए और आदर, दान
तथा विनय से उन्हें वश में कर लिया। फिर याचकों को दान और मान
देकर संतुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न
किया॥2॥
* दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥3॥
सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥3॥
भावार्थ:-फिर दास-दासियों
को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपकर, हाथ जोड़कर बोले- हे गुसाईं! इन सबकी माता-पिता के समान सार-संभार (देख-रेख) करते रहिएगा॥3॥
* बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥4॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी बार-बार
दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार
से हितकारी मित्र वही होगा, जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें॥4॥
दोहा :
* मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥80॥
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥80॥
भावार्थ:-हे परम चतुर पुरवासी सज्जनों! आप
लोग सब वही उपाए कीजिएगा,
जिससे मेरी सब माताएँ मेरे विरह के दुःख से
दुःखी न हों॥80॥
चौपाई :
* एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा॥
गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥1॥
गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार श्री रामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर
गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेशजी, पार्वतीजी
और कैलासपति महादेवजी को मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर श्री
रघुनाथजी चले॥1॥
* राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥2॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी के चलते ही बड़ा भारी विषाद हो गया। नगर का
आर्तनाद (हाहाकर) सुना नहीं जाता। लंका
में बुरे शकुन होने लगे,
अयोध्या में अत्यन्त शोक छा गया और देवलोक में
सब हर्ष और विषाद दोनों के वश में गए। (हर्ष इस बात का था कि अब राक्षसों का नाश होगा और विषाद
अयोध्यावासियों के शोक के कारण था)॥2॥
* गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं॥3॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं॥3॥
भावार्थ:-मूर्छा दूर
हुई, तब राजा जागे और सुमंत्र को बुलाकर ऐसा
कहने लगे- श्री
राम वन को चले गए, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने ये किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे
हैं॥3॥
* एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥4॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥4॥
भावार्थ:-इससे अधिक बलवती और कौन सी व्यथा होगी, जिस दुःख को पाकर प्राण शरीर को
छोड़ेंगे। फिर धीरज धरकर राजा ने कहा- हे
सखा! तुम रथ लेकर श्री राम के
साथ जाओ॥4॥
दोहा :
* सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥81॥
भावार्थ:-अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी को रथ में चढ़ाकर, वन
दिखलाकर चार दिन के बाद लौट आना॥81॥
चौपाई :
* जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥॥
तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥1॥॥
भावार्थ:-यदि धैर्यवान
दोनों भाई न लौटें- क्योंकि श्री रघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का
पालन करने वाले हैं- तो
तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिए॥1॥
* जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥2॥
सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥2॥
भावार्थ:-जब सीता वन को देखकर डरें, तब
मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने
ऐसा संदेश कहा है कि हे पुत्री! तुम
लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं॥2॥
* पितुगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥3॥
एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥3॥
भावार्थ:-कभी पिता के
घर, कभी ससुराल, जहाँ
तुम्हारी इच्छा हो, वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत से उपाय
करना। यदि सीताजी लौट आईं तो मेरे प्राणों को सहारा हो जाएगा॥3॥
* नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥4॥
अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥4॥
भावार्थ:-(नहीं तो अंत
में मेरा मरण ही होगा। विधाता के विपरीत होने
पर कुछ वश नहीं चलता। हा! राम, लक्ष्मण
और सीता को लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर
पड़े॥4॥
दोहा :
* पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥82॥
भावार्थ:-सुमंत्रजी राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर और बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर
वहाँ गए, जहाँ नगर के बाहर सीताजी सहित दोनों भाई थे॥82॥
चौपाई :
* तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥
चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥1॥
भावार्थ:-तब (वहाँ पहुँचकर) सुमंत्र ने राजा के वचन
श्री रामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको
रथ पर चढ़ाया। सीताजी सहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर
नवाकर चले॥1॥
* चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥2॥
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ (होते हुए) देखकर
सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिए। कृपा के समुद्र श्री रामजी उन्हें बहुत तरह से
समझाते हैं, तो वे (अयोध्या
की ओर) लौट जाते हैं, परन्तु
प्रेमवश फिर लौट आते हैं॥2॥
* लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥3॥
घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥3॥
भावार्थ:-अयोध्यापुरी
बड़ी डरावनी लग रही है, मानो
अंधकारमयी कालरात्रि ही हो। नगर के नर-नारी भयानक जन्तुओं के समान एक-दूसरे
को देखकर डर रहे हैं॥3॥
* घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥4॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥4॥
भावार्थ:-घर श्मशान, कुटुम्बी भूत-प्रेत
और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं। बगीचों
में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं
कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता॥4॥
दोहा :
* हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥83॥
भावार्थ:-करोड़ों घोड़े, हाथी, खेलने के लिए पाले हुए हिरन, नगर के (गाय, बैल, बकरी आदि) पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस
और चकोर-॥83॥
चौपाई :
* राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥
नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप स्थिर होकर) खड़े
हैं, मानो तसवीरों में लिखकर बनाए हुए हैं। नगर मानो फलों से परिपूर्ण बड़ा भारी सघन
वन था। नगर निवासी सब स्त्री-पुरुष
बहुत से पशु-पक्षी
थे। (अर्थात अवधपुरी
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाली नगरी थी और सब स्त्री-पुरुष सुख से उन फलों को प्राप्त करते
थे।)॥1॥
* बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥2॥
सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥2॥
भावार्थ:-विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दुःसह दावाग्नि (भयानक आग) लगा दी। श्री रामचन्द्रजी के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल
होकर भाग चले॥2॥
* सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥3॥
जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥3॥
भावार्थ:-सबने मन में
विचार कर लिया कि श्री रामजी, लक्ष्मणजी
और सीताजी के बिना सुख नहीं है। जहाँ श्री रामजी रहेंगे, वहीं
सारा समाज रहेगा। श्री रामचन्द्रजी के बिना अयोध्या
में हम लोगों का कुछ काम नहीं है॥3॥
* चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥4॥
राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥4॥
भावार्थ:-ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से
पूर्ण घरों को छोड़कर सब श्री रामचन्द्रजी के साथ चले पड़े। जिनको
श्री रामजी के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या कभी विषय भोग वश में कर
सकते हैं॥4॥
दोहा :
* बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥
तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥84॥
भावार्थ:-बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए। पहले दिन श्री
रघुनाथजी ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया॥84॥
चौपाई :
* रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥
भावार्थ:-प्रजा को प्रेमवश देखकर श्री रघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्री रघुनाथजी
करुणामय हैं। पराई पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं (अर्थात दूसरे
का दुःख देखकर वे तुरंत स्वयं दुःखित हो जाते
हैं)॥1॥
* कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥2॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥2॥
भावार्थ:-प्रेमयुक्त
कोमल और सुंदर वचन कहकर श्री रामजी ने बहुत
प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्म संबंधी उपदेश दिए, परन्तु
प्रेमवश लोग लौटाए लौटते नहीं॥2॥
* सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥3॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥3॥
भावार्थ:-शील और स्नेह
छोड़ा नहीं जाता। श्री रघुनाथजी असमंजस के अधीन
हो गए (दुविधा में पड़ गए)। शोक
और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ
देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गई॥3॥
* जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥4॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥4॥
भावार्थ:-जब दो पहर बीत गई, तब
श्री रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा- हे तात! रथ के
खोज मारकर (अर्थात
पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हाँकिए। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी॥4॥
दोहा :
* राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥
भावार्थ:-शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार हुए। मंत्री
ने तुरंत ही रथ को इधर-उधर
खोज छिपाकर चला दिया॥85॥
चौपाई :
* जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥1॥
रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥1॥
भावार्थ:-सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो
बड़ा शोर मचा कि रघुनाथजी चले गए। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब
'हा राम! हा
राम!'
पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं॥1॥
* मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥
एकहि एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥2॥
एकहि एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥2॥
भावार्थ:-मानो समुद्र
में जहाज डूब गया हो, जिससे
व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो।
वे एक-दूसरे को उपदेश देते हैं कि श्री
रामचन्द्रजी ने, हम लोगों को
क्लेश होगा, यह
जानकर छोड़ दिया है॥2॥
* निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥3॥
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-वे लोग अपनी
निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं।
(कहते हैं-) श्री रामचन्द्रजी के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यारे का वियोग
ही रचा, तो फिर उसने माँगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी!॥3॥
* एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥4॥
बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार बहुत से प्रलाप करते हुए वे संताप से भरे हुए
अयोध्याजी में आए। उन लोगों के विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया
जा सकता। (चौदह
साल की) अवधि की आशा से
ही वे प्राणों को रख रहे हैं॥4॥
दोहा :
* राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥86॥
भावार्थ:-(सब) स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी के दर्शन के लिए नियम और व्रत करने लगे और ऐसे
दुःखी हो गए जैसे चकवा,
चकवी और कमल सूर्य के बिना दीन हो जाते हैं॥86॥
चौपाई :
* सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥1॥
उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगाजी को देखकर श्री रामजी
रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दण्डवत की॥1॥
* लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥2॥
गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥2॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी, सुमंत्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्री रामचन्द्रजी ने सुख पाया।
गंगाजी समस्त आनंद-मंगलों
की मूल हैं। वे सब सुखों को करने वाली और सब
पीड़ाओं को हरने वाली हैं॥2॥
* कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥3॥
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥3॥
भावार्थ:-अनेक कथा प्रसंग कहते हुए श्री रामजी गंगाजी की तरंगों को देख रहे हैं। उन्होंने मंत्री
को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गंगाजी की बड़ी
महिमा सुनाई॥3॥
* मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥4॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥4॥
भावार्थ:-इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे
मार्ग का सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते
ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरण मात्र से (बार-बार
जन्म ने और मरने
का) महान श्रम मिट जाता है, उनको 'श्रम' होना- यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है॥4॥
श्री राम का
श्रृंगवेरपुर पहुँचना, निषाद के द्वारा सेवा
दोहा :
* सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरितकरत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥87॥
चरितकरत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥87॥
भावार्थ:-शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कन्द स्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान श्री रामचन्द्रजी मनुष्यों
के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसार रूपी समुद्र के पार उतरने के
लिए पुल के समान हैं॥87॥
चौपाई :
* यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥1॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥1॥
भावार्थ:-जब निषादराज
गुह ने यह खबर पाई, तब
आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कन्द) लेकर
और उन्हें भारों (बहँगियों) में
भरकर मिलने के लिए चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था॥1॥
* करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥2॥
सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥2॥
भावार्थ:-दण्डवत करके
भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेम से प्रभु को
देखने लगा। श्री रघुनाथजी ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने
पास बैठाकर कुशल पूछी॥2॥
* नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥3॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥3॥
भावार्थ:-निषादराज ने
उत्तर दिया- हे नाथ! आपके
चरणकमल के दर्शन से ही कुशल है (आपके चरणारविन्दों
के दर्शन कर) आज
मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया। हे देव! यह पृथ्वी, धन
और घर सब आपका है। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूँ॥3॥
* कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥4॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥4॥
भावार्थ:-अब कृपा करके
पुर (श्रृंगवेरपुर) में
पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए, जिससे सब लोग मेरे
भाग्य की बड़ाई करें। श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे सुजान सखा! तुमने जो
कुछ कहा सब सत्य है, परन्तु पिताजी ने मुझको और ही आज्ञा दी है॥4॥
दोहा :
* बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥88॥
भावार्थ:-(उनकी आज्ञानुसार) मुझे
चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के
योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं
है। यह सुनकर गुह को बड़ा दुःख हुआ॥88॥
चौपाई :
* राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। (कोई कहती है-) हे सखी! कहो
तो, वे माता-पिता
कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर
सुकुमार) बालकों
को वन में भेज दिया है॥1॥
* एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥2॥
तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥2॥
भावार्थ:-कोई एक कहते
हैं- राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों
का लाभ दिया। तब निषाद राज ने हृदय में अनुमान किया, तो
अशोक के पेड़ को (उनके ठहरने
के लिए) मनोहर समझा॥2॥
* लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥3॥
पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥3॥
भावार्थ:-उसने श्री रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्री रामचन्द्रजी ने (देखकर) कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग जोहार (वंदना) करके
अपने-अपने घर लौटे
और श्री रामचन्द्रजी संध्या करने पधारे॥3॥
* गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥4॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥4॥
भावार्थ:-गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल पत्तों की कोमल
और सुंदर साथरी सजाकर बिछा दी और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया (अथवा अपने
हाथ से फल-मूल
दोनों में भर-भरकर
रख दिए)॥4॥
दोहा :
* सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥89॥
भावार्थ:-सीताजी, सुमंत्रजी और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द-मूल-फल
खाकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी लेट गए। भाई लक्ष्मणजी उनके
पैर दबाने लगे॥89॥
चौपाई :
* उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥1॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥1॥
भावार्थ:-फिर प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सोते जानकर लक्ष्मणजी
उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्रजी को सोने के लिए कहकर वहाँ से
कुछ दूर पर धनुष-बाण
से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा
देने) लगे॥1॥
* गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥2॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥2॥
भावार्थ:-गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यन्त प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया
और आप कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा॥2॥
* सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥3॥
तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥3॥
भावार्थ:-प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेम वश निषाद राज के
हृदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों
से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा। वह प्रेम सहित लक्ष्मणजी
से वचन कहने लगा-॥3॥
* भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा॥
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥4॥
मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥4॥
भावार्थ:-महाराज दशरथजी का महल तो स्वभाव से ही सुंदर है, इन्द्रभवन
भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुंदर मणियों के रचे चौबारे (छत के ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें
मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है॥4॥
दोहा :
* सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥
पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥90॥
भावार्थ:- जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित हैं, जहाँ
सुंदर पलँग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है,॥90॥
चौपाई :
* बिबिध बसन उपधान तुराईं। छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥1॥
तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥1॥
भावार्थ:-जहाँ (ओढ़ने-बिछाने
के) अनेकों वस्त्र, तकिए
और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल
(उज्ज्वल) और सुंदर हैं, वहाँ (उन
चौबारों में) श्री
सीताजी और श्री रामचन्द्रजी रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व
को हरण करते थे॥1॥
* ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥2॥
मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥2॥
भावार्थ:-वही श्री सीता और श्री रामजी आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के
ही सोए हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। माता, पिता, कुटुम्बी, पुरवासी
(प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव
के दास और दासियाँ-॥2॥
* जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥3॥
पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥3॥
भावार्थ:-सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-संभार करते थे, वही
प्रभु श्री रामचन्द्रजी आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता
जनकजी हैं, जिनका प्रभाव जगत में प्रसिद्ध है, जिनके ससुर इन्द्र के मित्र रघुराज
दशरथजी हैं,॥3॥
* रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥4॥
सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥4॥
भावार्थ:-और पति श्री
रामचन्द्रजी हैं, वही
जानकीजी आज जमीन पर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल
नहीं होता! सीताजी
और श्री रामचन्द्रजी क्या वन के योग्य हैं? लोग सच
कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है॥4॥
दोहा :
* कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥
भावार्थ:-कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने
रघुनंदन श्री रामजी और जानकीजी को सुख के समय दुःख दिया॥91॥
चौपाई :
* भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥
भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥
भावार्थ:-वह सूर्यकुल
रूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई। उस कुबुद्धि
ने सम्पूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। श्री राम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद
को बड़ा दुःख हुआ॥1॥
लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता
से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना
* बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥
भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी
ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से
सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे
भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही
किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥
* जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥
भावार्थ:-संयोग (मिलना),
वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र
और उदासीन- ये
सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म
और काल- जहाँ तक जगत के जंजाल
हैं,॥3॥
* दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥
भावार्थ:-धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने
और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं॥4॥
दोहा :
* सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥92॥
भावार्थ:-जैसे स्वप्न
में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का
स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है, वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए॥92॥
चौपाई :
* अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-ऐसा विचारकर
क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष
ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते
हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥1॥
* एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी
रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो
परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक
जगत) से छूटे
हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब
सम्पूर्ण भोग-विलासों
से वैराग्य हो जाए॥2॥
* होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥3॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥3॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब
(अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों
में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन
और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही
सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥3॥
* राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥4॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी
परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म
हैं। वे अविगत (जानने
में न आने वाले) अलख
(स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले),
अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद
शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर
निरूपण करते हैं॥4॥
दोहा :
* भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥93॥
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥93॥
भावार्थ:-वही कृपालु
श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो
और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके
सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥93॥
मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम
मासपारायण, पंद्रहवाँ विश्राम
चौपाई :
* सखा समुझि अस परिहरि मोहू। सिय रघुबीर चरन रत होहू॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥
कहत राम गुन भा भिनुसारा। जागे जग मंगल सुखदारा॥1॥
भावार्थ:-हे सखा! ऐसा समझ, मोह
को त्यागकर श्री सीतारामजी के चरणों में प्रेम करो। इस प्रकार श्री
रामचन्द्रजी के गुण कहते-कहते
सबेरा हो गया! तब
जगत का मंगल करने वाले और उसे सुख देने वाले श्री रामजी जागे॥1॥
* सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥
भावार्थ:-शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री
रामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे
भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं।
यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥2॥
* हृदयँ दाहु अति बदन मलीना। कह कर जोर बचन अति दीना॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥3॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाहु राम कें साथा॥3॥
भावार्थ:-उनका हृदय अत्यंत जलने लगा, मुँह मलिन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर
अत्यंत दीन वचन
बोले- हे नाथ! मुझे
कौसलनाथ दशरथजी ने ऐसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्री रामजी
के साथ जाओ,॥3॥
* बनु देखाइ सुरसरि अन्हवाई। आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥4॥
लखनु रामु सिय आनेहु फेरी। संसय सकल सँकोच निबेरी॥4॥
भावार्थ:-वन दिखाकर, गंगा स्नान कराकर दोनों भाइयों को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच को दूर
करके लक्ष्मण, राम, सीता को फिरा लाना॥4॥
दोहा :
* नृप अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ करौं बलि सोइ।
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥
करि बिनती पायन्ह परेउ दीन्ह बाल जिमि रोइ॥94॥
भावार्थ:- महाराज ने ऐसा कहा था, अब
प्रभु जैसा कहें, मैं वही करूँ, मैं आपकी बलिहारी हूँ। इस प्रकार से विनती करके वे श्री
रामचन्द्रजी के चरणों में गिर पड़े और बालक की
तरह रो दिए॥94॥
चौपाई :
* तात कृपा करि कीजिअ सोई। जातें अवध अनाथ न होई॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥1॥
मंत्रिहि राम उठाइ प्रबोधा। तात धरम मतु तुम्ह सबु सोधा॥1॥
भावार्थ:-(और कहा -) हे तात
! कृपा करके वही कीजिए जिससे
अयोध्या अनाथ न हो श्री रामजी ने मंत्री को
उठाकर धैर्य बँधाते हुए समझाया कि हे तात ! आपने तो धर्म के सभी सिद्धांतों को छान डाला है॥1॥
* सिबि दधीच हरिचंद नरेसा। सहे धरम हित कोटि कलेसा॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥2॥
रंतिदेव बलि भूप सुजाना। धरमु धरेउ सहि संकट नाना॥2॥
भावार्थ:-शिबि, दधीचि और राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए करोड़ों (अनेकों) कष्ट
सहे थे। बुद्धिमान राजा रन्तिदेव और बलि बहुत से संकट सहकर
भी धर्म को पकड़े रहे (उन्होंने धर्म
का परित्याग नहीं किया)॥2॥
* धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3॥
भावार्थ:-वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। मैंने उस धर्म
को सहज ही पा लिया है। इस (सत्य
रूपी धर्म) का
त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा॥3॥
* संभावित कहुँ अपजस लाहू। मरन कोटि सम दारुन दाहू॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहउँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥4॥
तुम्ह सन तात बहुत का कहउँ। दिएँ उतरु फिरि पातकु लहऊँ॥4॥
भावार्थ:-प्रतिष्ठित
पुरुष के लिए अपयश की प्राप्ति करोड़ों मृत्यु
के समान भीषण संताप देने वाली है। हे तात! मैं आप से अधिक क्या कहूँ! लौटकर उत्तर देने में भी
पाप का भागी होता हूँ॥4॥
दोहा :
* पितु पद गहि कहि कोटि नति बिनय करब कर जोरि।
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥
चिंता कवनिहु बात कै तात करिअ जनि मोरि॥95॥
भावार्थ:-आप जाकर पिताजी के चरण पकड़कर करोड़ों नमस्कार के साथ ही हाथ जोड़कर बिनती करिएगा
कि हे तात! आप
मेरी किसी बात की चिन्ता न करें॥95॥
चौपाई :
* तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मोरें। बिनती करउँ तात कर जोरें॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥
सब बिधि सोइ करतब्य तुम्हारें। दुख न पाव पितु सोच हमारें॥1॥
भावार्थ:-आप भी पिता के समान ही मेरे बड़े हितैषी हैं। हे तात! मैं हाथ जोड़कर आप से विनती
करता हूँ कि आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है, जिसमें
पिताजी हम लोगों के सोच में दुःख न पावें॥1॥
* सुनि रघुनाथ सचिव संबादू। भयउ सपरिजन बिकल निषादू॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥2॥
पुनि कछु लखन कही कटु बानी। प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी॥2॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी और सुमंत्र का यह संवाद सुनकर निषादराज
कुटुम्बियों सहित व्याकुल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी
बात कही। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने उसे बहुत ही
अनुचित जानकर उनको मना किया॥2॥
* सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेसु कहिअ जनि जाई॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥3॥
कह सुमंत्रु पुनि भूप सँदेसू। सहि न सकिहि सिय बिपिन कलेसू॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने सकुचाकर, अपनी सौगंध दिलाकर सुमंत्रजी से कहा कि
आप जाकर लक्ष्मण का यह संदेश न कहिएगा। सुमंत्र ने फिर राजा का संदेश कहा कि सीता वन
के क्लेश न सह सकेंगी॥3॥
* जेहि बिधि अवध आव फिरि सीया। होइ रघुबरहि तुम्हहि करनीया॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥4॥
नतरु निपट अवलंब बिहीना। मैं न जिअब जिमि जल बिनु मीना॥4॥
भावार्थ:-अतएव जिस तरह
सीता अयोध्या को लौट आवें, तुमको
और श्री रामचन्द्र को वही उपाय करना चाहिए। नहीं तो मैं बिल्कुल
ही बिना सहारे का होकर वैसे ही नहीं जीऊँगा जैसे
बिना जल के मछली नहीं जीती॥4॥
दोहा :
* मइकें ससुरें सकल सुख जबहिं जहाँ मनु मान।
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
तहँ तब रहिहि सुखेन सिय जब लगि बिपति बिहान॥96॥
भावार्थ:-सीता के मायके (पिता के घर) और
ससुराल में सब सुख हैं। जब तक यह विपत्ति दूर नहीं होती, तब
तक वे जब जहाँ जी चाहें,
वहीं सुख से रहेंगी॥96॥
चौपाई :
* बिनती भूप कीन्ह जेहि भाँती। आरति प्रीति न सो कहि जाती॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥
पितु सँदेसु सुनि कृपानिधाना। सियहि दीन्ह सिख कोटि बिधाना॥1॥
भावार्थ:-राजा ने जिस
तरह (जिस दीनता और प्रेम से) विनती
की है, वह दीनता और प्रेम कहा नहीं जा सकता। कृपानिधान श्री
रामचन्द्रजी ने पिता का संदेश सुनकर सीताजी को करोड़ों
(अनेकों) प्रकार से सीख दी॥1॥
* सासु ससुर गुर प्रिय परिवारू। फिरहु त सब कर मिटै खभारू॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥2॥
सुनि पति बचन कहति बैदेही। सुनहु प्रानपति परम सनेही॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने कहा-) जो
तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गुरु, प्रियजन एवं कुटुम्बी सबकी चिन्ता मिट जाए। पति के वचन सुनकर
जानकीजी कहती हैं- हे
प्राणपति! हे
परम स्नेही! सुनिए॥2॥
* प्रभु करुनामय परम बिबेकी। तनु तजि रहति छाँह किमि छेंकी॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥3॥
प्रभा जाइ कहँ भानु बिहाई। कहँ चंद्रिका चंदु तजि जाई॥3॥
भावार्थ:-हे प्रभो! आप करुणामय
और परम ज्ञानी हैं। (कृपा
करके विचार तो कीजिए) शरीर
को छोड़कर छाया अलग कैसे रोकी रह सकती है? सूर्य की प्रभा सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकती
है? और चाँदनी चन्द्रमा को त्यागकर कहाँ जा सकती है?॥3॥
* पतिहि प्रेममय बिनय सुनाई। कहति सचिव सन गिरा सुहाई॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥4॥
तुम्ह पितु ससुर सरिस हितकारी। उतरु देउँ फिरि अनुचित भारी॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार पति को प्रेममयी विनती सुनाकर सीताजी मंत्री
से सुहावनी वाणी कहने लगीं- आप मेरे
पिताजी और ससुरजी के समान मेरा हित करने वाले हैं। आपको मैं बदले में उत्तर
देती हूँ, यह बहुत ही अनुचित है॥4॥
दोहा :
* आरति बस सनमुख भइउँ बिलगु न मानब तात।
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥
आरजसुत पद कमल बिनु बादि जहाँ लगि नात॥97॥
भावार्थ:-किन्तु हे तात! मैं
आर्त्त होकर ही आपके सम्मुख हुई हूँ, आप बुरा न मानिएगा। आर्यपुत्र (स्वामी) के चरणकमलों के बिना जगत
में जहाँ तक नाते हैं, सभी मेरे लिए
व्यर्थ हैं॥97॥
चौपाई :
* पितु बैभव बिलास मैं डीठा। नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥
सुखनिधान अस पितु गृह मोरें। पिय बिहीन मन भाव न भोरें॥1॥
भावार्थ:-मैंने पिताजी
के ऐश्वर्य की छटा देखी है, जिनके
चरण रखने की चौकी से सर्वशिरोमणि राजाओं के
मुकुट मिलते हैं (अर्थात
बड़े-बड़े राजा जिनके चरणों में प्रणाम करते हैं) ऐसे पिता का घर भी, जो
सब प्रकार के सुखों का भंडार है, पति के बिना मेरे
मन को भूलकर भी नहीं भाता॥1॥
* ससुर चक्कवइ कोसल राऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥2॥
आगें होइ जेहि सुरपति लेई। अरध सिंघासन आसनु देई॥2॥
भावार्थ:-मेरे ससुर कोसलराज चक्रवर्ती सम्राट हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है, इन्द्र
भी आगे होकर जिनका स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन पर बैठने के लिए
स्थान देता है,॥2॥
* ससुरु एतादृस अवध निवासू। प्रिय परिवारु मातु सम सासू॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥3॥
बिनु रघुपति पद पदुम परागा। मोहि केउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥3॥
भावार्थ:-ऐसे (ऐश्वर्य और
प्रभावशाली) ससुर, (उनकी
राजधानी) अयोध्या
का निवास, प्रिय कुटुम्बी और माता के समान सासुएँ- ये कोई भी श्री रघुनाथजी के
चरण कमलों की रज के बिना मुझे स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते॥3॥
* अगम पंथ बनभूमि पहारा। करि केहरि सर सरित अपारा॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥4॥
कोल किरात कुरंग बिहंगा। मोहि सब सुखद प्रानपति संगा॥4॥
भावार्थ:-दुर्गम रास्ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, सिंह, अथाह तालाब एवं नदियाँ, कोल, भील, हिरन
और पक्षी- प्राणपति
(श्री रघुनाथजी) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देने वाले होंगे॥4॥
दोहा :
* सासु ससुर सन मोरि हुँति बिनय करबि परि पायँ।
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥
मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ॥98॥
भावार्थ:-अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से विनती कीजिएगा कि वे मेरा
कुछ भी सोच न करें, मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ॥98॥
चौपाई :
* प्राननाथ प्रिय देवर साथा। बीर धुरीन धरें धनु भाथा॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥1॥
नहिं मग श्रमु भ्रमु दुख मन मोरें। मोहि लगि सोचु करिअ जनि भोरें॥1॥
भावार्थ:-वीरों में अग्रगण्य तथा धनुष और (बाणों
से भरे) तरकश धारण किए मेरे
प्राणनाथ और प्यारे देवर साथ हैं। इससे मुझे न रास्ते की थकावट है, न
भ्रम है और न मेरे मन में कोई दुःख ही है। आप मेरे लिए
भूलकर भी सोच न करें॥1॥
* सुनि सुमंत्रु सिय सीतलि बानी। भयउ बिकल जनु फनि मनि हानी॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥2॥
नयन सूझ नहिं सुनइ न काना। कहि न सकइ कछु अति अकुलाना॥2॥
भावार्थ:-सुमंत्र सीताजी की शीतल वाणी सुनकर ऐसे व्याकुल हो गए
जैसे साँप मणि खो जाने पर। नेत्रों से कुछ सूझता नहीं, कानों
से सुनाई नहीं देता। वे बहुत व्याकुल हो गए, कुछ कह
नहीं सकते॥2॥
* राम प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। तदपि होति नहिं सीतलि छाती॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥3॥
जतन अनेक साथ हित कीन्हे। उचित उतर रघुनंदन दीन्हे॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने उनका बहुत प्रकार से समाधान किया। तो भी उनकी छाती ठंडी न हुई।
साथ चलने के लिए मंत्री ने अनेकों यत्न किए (युक्तियाँ पेश कीं), पर रघुनंदन
श्री रामजी (उन
सब युक्तियों का) यथोचित
उत्तर देते गए॥3॥
* मेटि जाइ नहिं राम रजाई। कठिन करम गति कछु न बसाई॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥4॥
राम लखन सिय पद सिरु नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गवाँई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी की आज्ञा मेटी नहीं जा सकती। कर्म की गति
कठिन है, उस पर कुछ भी वश नहीं चलता। श्री राम, लक्ष्मण
और सीताजी के चरणों में सिर नवाकर सुमंत्र इस तरह लौटे जैसे
कोई व्यापारी अपना मूलधन (पूँजी) गँवाकर लौटे॥4॥
दोहा :
* रथु हाँकेउ हय राम तन हेरि हेरि हिहिनाहिं।
देखि निषाद बिषाद बस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥
देखि निषाद बिषाद बस धुनहिं सीस पछिताहिं॥99॥
भावार्थ:-सुमंत्र ने रथ को हाँका, घोड़े
श्री रामचन्द्रजी की ओर देख-देखकर
हिनहिनाते हैं। यह देखकर निषाद लोग विषाद के वश होकर सिर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते हैं॥99॥
केवट का प्रेम और
गंगा पार जाना
चौपाई :
* जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥
भावार्थ:-जिनके वियोग
में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं, उनके
वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री
रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया। तब आप गंगाजी
के तीर पर आए॥1॥
* मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
भावार्थ:-श्री राम ने
केवट से नाव माँगी, पर
वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने
तुम्हारा मर्म (भेद) जान
लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य
बना देने वाली कोई जड़ी है,॥2॥
* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर
तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव
उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा
रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी)॥3॥
* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
भावार्थ:-मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं
जानता। हे प्रभु! यदि
तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥
छन्द :
* पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥
भावार्थ:-हे नाथ! मैं चरण
कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता।
हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी
की सौगंध है, मैं सब सच-सच
कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार
न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे
कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा।
सोरठा :
* सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥100॥
भावार्थ:-केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी
जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥100॥
चौपाई :
* कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥
भावार्थ:-कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर
बोले भाई! तू
वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर
हो रही है, पार उतार दे॥1॥
* जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥
भावार्थ:-एक बार जिनका
नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार
उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनावतार में) जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (दो ही पग में
त्रिलोकी को नाप लिया था),
वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी (गंगाजी से पार उतारने
के लिए) केवट का निहोरा कर रहे हैं!॥2॥
* पद नख निरखि देवसरि हरषी। सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
केवट राम रजायसु पावा। पानि कठवता भरि लेइ आवा॥3॥
भावार्थ:-प्रभु के इन
वचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच
गई थी (कि ये साक्षात भगवान होकर
भी पार उतारने के लिए केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं), परन्तु (समीप आने
पर अपनी उत्पत्ति के स्थान) पदनखों
को देखते ही (उन्हें
पहचानकर) देवनदी
गंगाजी हर्षित हो गईं। (वे
समझ गईं कि भगवान नरलीला कर रहे हैं, इससे उनका मोह नष्ट हो गया और इन चरणों
का स्पर्श प्राप्त करके मैं धन्य होऊँगी, यह
विचारकर वे हर्षित हो गईं।) केवट
श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर कठौते में भरकर जल ले आया॥3॥
* अति आनंद उमगि अनुरागा। चरन सरोज पखारन लागा॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥
बरषि सुमन सुर सकल सिहाहीं। एहि सम पुन्यपुंज कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-अत्यन्त आनंद
और प्रेम में उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने
लगा। सब देवता फूल बरसाकर सिहाने लगे कि इसके समान पुण्य की राशि
कोई नहीं है॥4॥
दोहा :
* पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥101॥
भावार्थ:-चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस
महान पुण्य के द्वारा) अपने
पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंदपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी
को गंगाजी के पार ले गया॥101॥
चौपाई :
* उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-निषादराज और
लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री
रामचन्द्रजी (नाव
से) उतरकर गंगाजी की रेत
(बालू) में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। (उसको दण्डवत करते देखकर) प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥
* पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥
भावार्थ:-पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से
अपनी रत्न जडि़त अँगूठी (अँगुली
से) उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट
से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥
* नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥
भावार्थ:-(उसने कहा-) हे नाथ! आज मैंने क्या नहीं पाया! मेरे दोष, दुःख
और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की।
विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे
दी॥3॥
* अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! हे
दीनदयाल! आपकी
कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह
प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥
दोहा :
* बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥
भावार्थ:- प्रभु श्री
रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने
बहुत आग्रह (या
यत्न) किया, पर
केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान
देकर उसे विदा किया॥102॥
चौपाई :
* तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥
भावार्थ:-फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके
पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर
गंगाजी से कहा- हे
माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥
* पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥
भावार्थ:-जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर
तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस
में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥
* सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥
भावार्थ:-हे रघुवीर की
प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है? तुम्हारे
(कृपा दृष्टि से) देखते ही लोग लोकपाल हो
जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥
* तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥
भावार्थ:-तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह
तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के
लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥
दोहा :
* प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥
पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥
भावार्थ:-तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ
पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥
चौपाई :
* गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥
भावार्थ:-मंगल के मूल
गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर
सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह
से कहा कि भैया! अब
तुम घर जाओ! यह सुनते
ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥
* दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥
भावार्थ:-गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी
विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता
दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥
* जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥
भावार्थ:-हे रघुराज! जिस वन
में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी (पत्तों
की कुटिया) बना दूँगा।
तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर (आप) की दुहाई है, मैं वैसा
ही करूँगा॥3॥
* सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥
भावार्थ:-उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने
उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह (निषादराज) ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और
उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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