गोस्वामी तुलसीदासजी
प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेम
दोहा :
* तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।
सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥104॥
सखा अनुज सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥104॥
भावार्थ:-तब प्रभु श्री रघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके
तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे
भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन को चले॥104॥
चौपाई :
* तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥
प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥
भावार्थ:-उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह
ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने सबेरे
प्रातःकाल की सब क्रियाएँ करके जाकर तीर्थों के राजा प्रयाग के
दर्शन किए॥1॥
* सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥2॥
चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥2॥
भावार्थ:-उस राजा का
सत्य मंत्री है, श्रद्धा
प्यारी स्त्री है और श्री वेणीमाधवजी सरीखे हितकारी
मित्र हैं। चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष) से
भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रांत ही उस राजा का सुंदर देश है॥2॥
* छेत्रु अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥3॥
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा॥3॥
भावार्थ:-प्रयाग क्षेत्र ही दुर्गम, मजबूत
और सुंदर गढ़ (किला) है, जिसको
स्वप्न में भी (पाप
रूपी) शत्रु नहीं पा सके हैं। संपूर्ण तीर्थ
ही उसके श्रेष्ठ वीर सैनिक हैं, जो पाप
की सेना को कुचल डालने वाले और बड़े रणधीर हैं॥3॥
* संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥4॥
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा॥4॥
भावार्थ:-((गंगा, यमुना और सरस्वती का) संगम
ही उसका अत्यन्त सुशोभित सिंहासन है। अक्षयवट छत्र है, जो
मुनियों के भी मन को मोहित कर लेता है। यमुनाजी और गंगाजी की तरंगें उसके
(श्याम और श्वेत) चँवर हैं, जिनको
देखकर ही दुःख और दरिद्रता नष्ट हो जाती है॥4॥
दोहा :
* सेवहिं सुकृती साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105॥
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम॥105॥
भावार्थ:-पुण्यात्मा, पवित्र साधु उसकी सेवा करते हैं और सब मनोरथ पाते हैं। वेद और पुराणों के समूह
भाट हैं, जो उसके निर्मल गुणगणों का बखान करते हैं॥105॥
चौपाई :
* को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ। कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
अस तीरथपति देखि सुहावा। सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥1॥
भावार्थ:-पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप
प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ
श्री रामजी ने भी सुख पाया॥1॥
* कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई। श्री मुख तीरथराज बड़ाई॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
करि प्रनामु देखत बन बागा। कहत महातम अति अनुरागा॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने अपने श्रीमुख से सीताजी, लक्ष्मणजी
और सखा गुह को तीर्थराज की महिमा कहकर सुनाई। तदनन्तर
प्रणाम करके, वन और बगीचों को देखते हुए और बड़े प्रेम से माहात्म्य
कहते हुए-॥2॥
* एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी। सुमिरत सकल सुमंगल देनी॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥3॥
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा। पूजि जथाबिधि तीरथ देवा॥3॥
भावार्थ:-इस प्रकार श्री राम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो
स्मरण करने से ही सब सुंदर मंगलों को देने वाली है। फिर आनंदपूर्वक
(त्रिवेणी में) स्नान करके शिवजी की सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थ देवताओं का पूजन किया॥3॥
* तब प्रभु भरद्वाज पहिं आए। करत दंडवत मुनि उर लाए॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥4॥
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई। ब्रह्मानंद रासि जनु पाई॥4॥
भावार्थ:-(स्नान, पूजन आदि सब करके) तब
प्रभु श्री रामजी भरद्वाजजी के पास आए। उन्हें दण्डवत करते हुए
ही मुनि ने हृदय से लगा लिया। मुनि के मन का आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो
उन्हें ब्रह्मानन्द की राशि मिल गई हो॥4॥
दोहा :
* दीन्हि असीस मुनीस उर अति अनंदु अस जानि।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥
लोचन गोचर सुकृत फल मनहुँ किए बिधि आनि॥106॥
भावार्थ:-मुनीश्वर भरद्वाजजी ने आशीर्वाद दिया। उनके हृदय में ऐसा जानकर अत्यन्त आनंद हुआ कि आज
विधाता ने (श्री
सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी के दर्शन
कराकर) मानो हमारे सम्पूर्ण
पुण्यों के फल को लाकर आँखों के सामने कर दिया॥106॥
चौपाई :
* कुसल प्रस्न करि आसन दीन्हे। पूजि प्रेम परिपूरन कीन्हे॥
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥
कंद मूल फल अंकुर नीके। दिए आनि मुनि मनहुँ अमी के॥1॥
भावार्थ:-कुशल पूछकर
मुनिराज ने उनको आसन दिए और प्रेम सहित पूजन
करके उन्हें संतुष्ट कर दिया। फिर मानो अमृत के ही बने हों, ऐसे
अच्छे-अच्छे कन्द, मूल, फल
और अंकुर लाकर दिए॥1॥
* सीय लखन जन सहित सुहाए। अति रुचि राम मूल फल खाए॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥2॥
भए बिगतश्रम रामु सुखारे। भरद्वाज मृदु बचन उचारे॥2॥
भावार्थ:-सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह सहित श्री रामचन्द्रजी ने उन सुंदर मूल-फलों को बड़ी रुचि
के साथ खाया। थकावट दूर होने से श्री रामचन्द्रजी सुखी हो गए। तब भरद्वाजजी
ने उनसे कोमल वचन कहे-॥2॥
* आजु सफल तपु तीरथ त्यागू। आजु सुफल जप जोग बिरागू॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥3॥
सफल सकल सुभ साधन साजू। राम तुम्हहि अवलोकत आजू॥3॥
भावार्थ:-हे राम! आपका दर्शन
करते ही आज मेरा तप, तीर्थ सेवन और त्याग सफल हो गया। आज मेरा जप, योग
और वैराग्य सफल हो गया और आज मेरे सम्पूर्ण शुभ साधनों का समुदाय भी सफल
हो गया॥3॥
* लाभ अवधि सुख अवधि न दूजी। तुम्हरें दरस आस सब पूजी॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥4॥
अब करि कृपा देहु बर एहू। निज पद सरसिज सहज सनेहू॥4॥
भावार्थ:-लाभ की सीमा और सुख की सीमा (प्रभु के दर्शन को छोड़कर) दूसरी
कुछ भी नहीं है। आपके दर्शन से मेरी सब आशाएँ पूर्ण हो गईं। अब कृपा
करके यह वरदान दीजिए कि आपके चरण कमलों में मेरा स्वाभाविक
प्रेम हो॥4॥
दोहा :
* करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥107॥
तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥107॥
भावार्थ:- जब तक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता, तब
तक करोड़ों उपाय
करने से भी, स्वप्न
में भी वह सुख नहीं पाता॥107॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन रामु सकुचाने। भाव भगति आनंद अघाने॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥1॥
तब रघुबर मुनि सुजसु सुहावा। कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा॥1॥
भावार्थ:-मुनि के वचन
सुनकर, उनकी भाव-भक्ति के कारण आनंद से तृप्त हुए भगवान
श्री रामचन्द्रजी (लीला की दृष्टि से) सकुचा
गए। तब (अपने
ऐश्वर्य को छिपाते हुए) श्री रामचन्द्रजी
ने भरद्वाज मुनि का सुंदर सुयश करोड़ों (अनेकों) प्रकार
से कहकर सबको सुनाया॥1॥
* सो बड़ सो सब गुन गन गेहू। जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥2॥
मुनि रघुबीर परसपर नवहीं। बचन अगोचर सुखु अनुभवहीं॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने कहा-) हे
मुनीश्वर! जिसको
आप आदर दें, वही बड़ा है और वही सब गुण समूहों का घर
है। इस प्रकार श्री रामजी और मुनि भरद्वाजजी दोनों परस्पर विनम्र हो रहे हैं
और अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं॥2॥
* यह सुधि पाइ प्रयाग निवासी। बटु तापस मुनि सिद्ध उदासी॥
भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥3॥
भरद्वाज आश्रम सब आए। देखन दसरथ सुअन सुहाए॥3॥
भावार्थ:-यह (श्री
राम, लक्ष्मण और सीताजी के आने की) खबर
पाकर प्रयाग निवासी ब्रह्मचारी, तपस्वी, मुनि, सिद्ध
और उदासी सब श्री दशरथजी के सुंदर पुत्रों को देखने के लिए भरद्वाजजी
के आश्रम पर आए॥3॥
* राम प्रनाम कीन्ह सब काहू। मुदित भए लहि लोयन लाहू॥
देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥4॥
देहिं असीस परम सुखु पाई। फिरे सराहत सुंदरताई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। नेत्रों का लाभ पाकर सब आनंदित हो गए
और परम सुख पाकर आशीर्वाद देने लगे। श्री रामजी के सौंदर्य की सराहना करते
हुए वे लौटे॥4॥
दोहा :
* राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ।
चले सहितसिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ॥108॥
चले सहितसिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ॥108॥
भावार्थ:-श्री रामजी ने रात को वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल
प्रयागराज का स्नान करके और प्रसन्नता के साथ मुनि को सिर नवाकर
श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ वे चले॥108॥
चौपाई :
* राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं। नाथ कहिअ हम केहि मग जाहीं॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥
मुनि मन बिहसि राम सन कहहीं। सुगम सकल मग तुम्ह कहुँ अहहीं॥1॥
भावार्थ:-(चलते समय) बड़े प्रेम
से श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे
नाथ! बताइए हम किस मार्ग से
जाएँ। मुनि मन में हँसकर श्री रामजी से कहते हैं कि आपके लिए सभी मार्ग सुगम हैं॥1॥
* साथ लागि मुनि सिष्य बोलाए। सुनि मन मुदित पचासक आए॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहिं मगु दीख हमारा॥2॥
सबन्हि राम पर प्रेम अपारा। सकल कहहिं मगु दीख हमारा॥2॥
भावार्थ:-फिर उनके साथ
के लिए मुनि ने शिष्यों को बुलाया। (साथ जाने की बात) सुनते ही चित्त में हर्षित
हो कोई पचास शिष्य आ गए। सभी का श्री रामजी पर अपार प्रेम है। सभी कहते
हैं कि मार्ग हमारा देखा हुआ है॥2॥
* मुनि बटु चारि संग तब दीन्हे। जिन्ह बहु जनम सुकृत सब कीन्हे॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥3॥
करि प्रनामु रिषि आयसु पाई। प्रमुदित हृदयँ चले रघुराई॥3॥
भावार्थ:-तब मुनि ने (चुनकर) चार
ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृत
(पुण्य) किए थे। श्री रघुनाथजी प्रणाम कर और ऋषि की आज्ञा पाकर हृदय में
बड़े ही आनंदित होकर चले॥3॥
* ग्राम निकट जब निकसहिं जाई। देखहिं दरसु नारि नर धाई॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥4॥
होहिं सनाथ जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥4॥
भावार्थ:-जब वे किसी
गाँव के पास होकर निकलते हैं, तब
स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते
हैं। जन्म का फल पाकर वे (सदा
के अनाथ) सनाथ
हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर (शरीर से साथ न रहने के कारण) दुःखी
होकर लौट आते हैं॥4॥
दोहा :
* बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥109॥
उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥109॥
भावार्थ:-तदनन्तर श्री
रामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को
विदा किया, वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर
लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान
किया, जो श्री रामचन्द्रजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था॥109॥
चौपाई :
* सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥
लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥1॥
लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-यमुनाजी के
किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार
नवयुवक और एक परम सुंदरी स्त्री आ रही है) सब अपना-अपना
काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी,
श्री रामजी और सीताजी का सौंदर्य देखकर अपने
भाग्य की बड़ाई करने लगे॥1॥
* अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥2॥
जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥2॥
भावार्थ:-उनके मन में (परिचय जानने की) बहुत
सी लालसाएँ भरी हैं। पर वे नाम-गाँव
पूछते सकुचाते हैं। उन लोगों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे, उन्होंने
युक्ति से श्री
रामचन्द्रजी को पहचान लिया॥2॥
* सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥3॥
सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने सब
कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर
ये वन को चले हैं। यह सुनकर सब लोग दुःखित हो पछता रहे हैं कि रानी
और राजा ने अच्छा नहीं किया॥3॥
तापस प्रकरण
* तेहि अवसर एक तापसु आवा। तेजपुंज लघुबयस सुहावा॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी॥4॥
भावार्थ:-उसी अवसर पर
वहाँ एक तपस्वी आया, जो
तेज का पुंज, छोटी अवस्था का और सुंदर था। उसकी गति कवि
नहीं जानते (अथवा
वह कवि था जो अपना परिचय नहीं देना चाहता)। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का
प्रेमी था॥4॥
दोहा :
* सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि॥110॥
भावार्थ:-अपने इष्टदेव
को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर
पुलकित हो गया। वह दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी
(प्रेम विह्वल) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥110॥
चौपाई :
* राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से
लगा लिया। (उसे
इतना आनंद हुआ) मानो कोई
महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखने वाले) कहने
लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम
तत्व) दोनों शरीर धारण करके मिल
रहे हैं॥1॥
* बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥
भावार्थ:-फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा। उन्होंने प्रेम से उमंगकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीताजी
की चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीताजी ने भी उसको अपना
बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया॥2॥
* कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥
भावार्थ:-फिर निषादराज
ने उसको दण्डवत की। श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी
जानकर वह उस (निषाद) से आनंदित
होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौंदर्य
सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन
पाकर आनंदित होता है॥3॥
* ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥
भावार्थ:-(इधर गाँव की
स्त्रियाँ कह रही हैं) हे सखी! कहो
तो, वे माता-पिता
कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर
सुकुमार) बालकों
को वन में भेज दिया है। श्री रामजी, लक्ष्मणजी और
सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष
स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं॥4॥
यमुना को प्रणाम, वनवासियों का प्रेम
दोहा :
* तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।।
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
भावार्थ:-तब श्री रामचन्द्रजी ने सखा गुह को अनेकों तरह से (घर लौट जाने के लिए) समझाया। श्री
रामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया॥111॥
चौपाई :
* पुनि सियँ राम लखन कर जोरी। जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥1॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई। रबितनुजा कइ करत बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-फिर सीताजी, श्री रामजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़कर यमुनाजी को पुनः प्रणाम किया और सूर्यकन्या
यमुनाजी की बड़ाई करते हुए सीताजी सहित दोनों भाई प्रसन्नतापूर्वक
आगे चले॥1॥
* पथिक अनेक मिलहिं मग जाता। कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता॥
राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥2॥
राज लखन सब अंग तुम्हारें। देखि सोचु अति हृदय हमारें॥2॥
भावार्थ:-रास्ते में
जाते हुए उन्हें अनेकों यात्री मिलते हैं। वे
दोनों भाइयों को देखकर उनसे प्रेमपूर्वक कहते हैं कि तुम्हारे सब
अंगों में राज चिह्न देखकर हमारे हृदय में
बड़ा सोच होता है॥2॥
* मारग चलहु पयादेहि पाएँ। ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ॥
अगमु पंथु गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥3॥
अगमु पंथु गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी॥3॥
भावार्थ:-(ऐसे राजचिह्नों के होते हुए भी) तुम
लोग रास्ते में पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी
समझ में आता है कि ज्योतिष शास्त्र झूठा ही है। भारी जंगल और बड़े-बड़े पहाड़ों
का दुर्गम रास्ता है। तिस पर तुम्हारे साथ सुकुमारी स्त्री है॥3॥
* करि केहरि बन जाइ न जोई। हम सँग चलहिं जो आयसु होई॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥4॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ:-हाथी और सिंहों से भरा यह भयानक वन देखा तक नहीं जाता।
यदि आज्ञा हो तो हम साथ चलें। आप जहाँ तक जाएँगे, वहाँ
तक पहुँचाकर, फिर आपको प्रणाम करके हम लौट आवेंगे॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥112॥
कृपासिंधु फेरहिं तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन॥112॥
भावार्थ:-इस प्रकार वे
यात्री प्रेमवश पुलकित शरीर हो और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पूछते
हैं, किन्तु कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी कोमल विनययुक्त वचन कहकर
उन्हें लौटा देते हैं॥112॥
चौपाई :
* जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं। तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥1॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए। धन्य पुन्यमय परम सुहाए॥1॥
भावार्थ:-जो गाँव और
पुरवे रास्ते में बसे हैं, नागों
और देवताओं के नगर उनको देखकर प्रशंसा पूर्वक
ईर्षा करते और ललचाते हुए कहते हैं कि किस पुण्यवान् ने किस शुभ घड़ी
में इनको बसाया था, जो आज ये इतने धन्य और पुण्यमय तथा परम सुंदर हो रहे
हैं॥1॥
* जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं। तिन्ह समान अमरावति नाहीं॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥2॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी। तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी॥2॥
भावार्थ:-जहाँ-जहाँ
श्री रामचन्द्रजी के चरण चले जाते हैं, उनके समान इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं
है। रास्ते के समीप बसने वाले भी बड़े पुण्यात्मा हैं- स्वर्ग में रहने वाले देवता भी उनकी सराहना करते हैं-॥2॥
* जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि। सीता लखन सहित घनस्यामहि॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥3॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं। तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं॥3॥
भावार्थ:-जो नेत्र भरकर सीताजी और लक्ष्मणजी सहित घनश्याम श्री
रामजी के दर्शन करते हैं,
जिन तालाबों
और नदियों में श्री रामजी स्नान कर लेते हैं, देवसरोवर और देवनदियाँ
भी उनकी बड़ाई करती हैं॥3॥
* जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई। करहिं कलपतरु तासु बड़ाई॥
परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥4॥
परसि राम पद पदुम परागा। मानति भूमि भूरि निज भागा॥4॥
भावार्थ:-जिस वृक्ष के
नीचे प्रभु जा बैठते हैं, कल्पवृक्ष
भी उसकी बड़ाई करते हैं। श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों की रज का
स्पर्श करके पृथ्वी अपना बड़ा सौभाग्य मानती
है॥4॥
दोहा :
* छाँह करहिं घन बिबुधगन बरषहिं सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥113॥
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं॥113॥
भावार्थ:-रास्ते में
बादल छाया करते हैं और देवता फूल बरसाते और
सिहाते हैं। पर्वत, वन और पशु-पक्षियों
को देखते हुए श्री रामजी रास्ते में चले जा रहे हैं॥113॥
चौपाई :
* सीता लखन सहित रघुराई। गाँव निकट जब निकसहिं जाई॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥1॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी। चलहिं तुरत गृह काजु बिसारी॥1॥
भावार्थ:-सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्री रघुनाथजी जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं, तब
उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने घर और काम-काज को भूलकर तुरंत
उन्हें देखने के लिए चल देते हैं॥1॥
* राम लखन सिय रूप निहारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥2॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा। सब भए मगन देखि दोउ बीरा॥2॥
भावार्थ:-श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी का रूप देखकर, नेत्रों का (परम) फल
पाकर वे सुखी होते हैं। दोनों भाइयों को देखकर सब
प्रेमानन्द में मग्न हो गए। उनके नेत्रों में
जल भर आया और शरीर पुलकित हो गए॥2॥
* बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी। लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥3॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं। लोचन लाहु लेहु छन एहीं॥3॥
भावार्थ:-उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्रों ने
चिन्तामणि की ढेरी पा ली हो। वे एक-एक
को पुकारकर सीख देते हैं कि इसी क्षण नेत्रों का लाभ ले लो॥3॥
* रामहि देखि एक अनुरागे। चितवत चले जाहिं सँग लागे॥
एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥4॥
एक नयन मग छबि उर आनी। होहिं सिथिल तन मन बर बानी॥4॥
भावार्थ:-कोई श्री रामचन्द्रजी को देखकर ऐसे अनुराग में भर गए हैं कि वे उन्हें देखते हुए उनके
साथ लगे चले जा रहे हैं। कोई नेत्र मार्ग से उनकी छबि को हृदय में लाकर
शरीर, मन और श्रेष्ठ वाणी से शिथिल हो जाते हैं (अर्थात् उनके शरीर,
मन और वाणी का व्यवहार बंद हो जाता है)॥4॥
दोहा :
* एक देखि बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिंकि प्रात॥114॥
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिंकि प्रात॥114॥
भावार्थ:-कोई बड़ की सुंदर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और पत्ते बिछाकर कहते हैं कि क्षण भर यहाँ बैठकर
थकावट मिटा लीजिए। फिर चाहे अभी चले जाइएगा, चाहे सबेरे॥114॥
चौपाई :
* एक कलस भरि आनहिं पानी। अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-कोई घड़ा भरकर
पानी ले आते हैं और कोमल वाणी से कहते हैं- नाथ! आचमन तो कर लीजिए। उनके प्यारे
वचन सुनकर और उनका अत्यन्त प्रेम देखकर दयालु और परम सुशील श्री रामचन्द्रजी
ने-॥1॥
* जानी श्रमित सीय मन माहीं। घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥2॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा। रूप अनूप नयन मनु लोभा॥2॥
भावार्थ:-मन में सीताजी को थकी हुई जानकर घड़ी भर बड़ की छाया में
विश्राम किया। स्त्री-पुरुष
आनंदित होकर शोभा देखते हैं। अनुपम रूप ने उनके नेत्र और मनों को लुभा लिया है॥2॥
* एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा। रामचन्द्र मुख चंद चकोरा॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥3॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोटि मदन मनु मोहा॥3॥
भावार्थ:-सब लोग टकटकी लगाए श्री रामचन्द्रजी के मुख चन्द्र को चकोर की तरह (तन्मय होकर) देखते हुए चारों ओर सुशोभित हो रहे हैं। श्री रामजी का नवीन तमाल वृक्ष के रंग का (श्याम) शरीर अत्यन्त शोभा दे रहा
है, जिसे देखते ही करोड़ों कामदेवों के मन
मोहित हो जाते हैं॥3॥
* दामिनि बरन लखन सुठि नीके। नख सिख सुभग भावते जी के॥
मुनि पट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥4॥
मुनि पट कटिन्ह कसें तूनीरा। सोहहिं कर कमलनि धनु तीरा॥4॥
भावार्थ:-बिजली के से
रंग के लक्ष्मणजी बहुत ही भले मालूम होते हैं। वे
नख से शिखा तक सुंदर हैं और मन को बहुत भाते हैं। दोनों मुनियों
के (वल्कल आदि) वस्त्र पहने हैं और कमर में तरकस कसे हुए हैं। कमल के समान
हाथों में धनुष-बाण
शोभित हो रहे हैं॥4॥
दोहा :
* जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥115॥
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल॥115॥
भावार्थ:-उनके सिरों पर सुंदर जटाओं के मुकुट हैं, वक्षः
स्थल, भुजा और नेत्र विशाल हैं और शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा के
समान सुंदर मुखों पर पसीने की बूँदों का समूह शोभित
हो रहा है॥115॥
चौपाई :
* बरनि न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहुत थोरि मति मोरी॥
राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥1॥
राम लखन सिय सुंदरताई। सब चितवहिं चित मन मति लाई॥1॥
भावार्थ:-उस मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योंकि
शोभा बहुत अधिक है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। श्री राम, लक्ष्मण
और सीताजी की सुंदरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि
तीनों को लगाकर देख रहे हैं॥1॥
* थके नारि नर प्रेम पिआसे। मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥2॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं॥2॥
भावार्थ:-प्रेम के प्यासे (वे
गाँवों के) स्त्री-पुरुष (इनके सौंदर्य-माधुर्य
की छटा देखकर) ऐसे
थकित रह गए जैसे दीपक को देखकर हिरनी और हिरन (निस्तब्ध रह जाते हैं)! गाँवों
की स्त्रियाँ सीताजी के पास जाती हैं, परन्तु अत्यन्त स्नेह के कारण पूछते
सकुचाती हैं॥2॥
* बार बार सब लागहिं पाएँ। कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं॥3॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं। तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं॥3॥
भावार्थ:-बार-बार
सब उनके पाँव लगतीं और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती हैं- हे
राजकुमारी! हम विनती
करती (कुछ निवेदन करना चाहती) हैं, परन्तु
स्त्री स्वभाव के कारण कुछ पूछते हुए डरती हैं॥3॥
* स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गवाँरी॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥4॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥4॥
भावार्थ:-हे स्वामिनी! हमारी
ढिठाई क्षमा कीजिएगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मानिएगा। ये दोनों राजकुमार
स्वभाव से ही लावण्यमय (परम
सुंदर) हैं। मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण ने कांति इन्हीं से पाई है (अर्थात मरकतमणि में और स्वर्ण में जो हरित
और स्वर्ण वर्ण की आभा है,
वह इनकी हरिताभ नील और स्वर्ण कान्ति के एक कण
के बराबर भी नहीं है।)॥4॥
दोहा :
* स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन॥116॥
भावार्थ:-श्याम और गौर
वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था है, दोनों
ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा
के समान इनके मुख और शरद ऋतु के कमल के समान इनके नेत्र
हैं॥116॥
मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम
मासपारायण, सोलहवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, चौथा विश्राम
चौपाई :
* कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी॥1॥
भावार्थ:-हे सुमुखि! कहो तो
अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं? उनकी
ऐसी प्रेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं और मन ही मन मुस्कुराईं॥1॥
* तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥2॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥2॥
भावार्थ:-उत्तम (गौर) वर्णवाली सीताजी उनको देखकर (संकोचवश) पृथ्वी की ओर देखती हैं। वे दोनों ओर के
संकोच से सकुचा रही हैं (अर्थात
न बताने में ग्राम की स्त्रियों को दुःख होने का संकोच है और
बताने में लज्जा रूप संकोच)।
हिरन के बच्चे के
सदृश नेत्र वाली और कोकिल की सी वाणी वाली
सीताजी सकुचाकर प्रेम सहित मधुर वचन बोलीं-॥2॥
* सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखनु लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥3॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी॥3॥
भावार्थ:-ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, ये
मेरे छोटे देवर हैं। फिर सीताजी ने (लज्जावश) अपने चन्द्रमुख को आँचल से
ढँककर और प्रियतम (श्री
रामजी) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी
करके,॥3॥
* खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥4॥
भईं मुदित सब ग्रामबधूटीं। रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं॥4॥
भावार्थ:-खंजन पक्षी के से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी
ने इशारे से उन्हें कहा कि ये (श्री रामचन्द्रजी) मेरे पति हैं। यह जानकर
गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनंदित हुईं, मानो
कंगालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों॥4॥
दोहा :
* अति सप्रेम सिय पाँय परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥117
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस॥117
भावार्थ:-वे अत्यन्त
प्रेम से सीताजी के पैरों पड़कर बहुत प्रकार से
आशीष देती हैं (शुभ
कामना करती हैं), कि जब तक शेषजी के सिर पर
पृथ्वी रहे, तब तक तुम सदा सुहागिनी बनी रहो,॥117॥
चौपाई :
* पारबती सम पतिप्रिय होहू। देबि न हम पर छाड़ब छोहू॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥1॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी। जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी॥1॥
भावार्थ:-और पार्वतीजी
के समान अपने पति की प्यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)। हम बार-बार
हाथ जोड़कर विनती करती हैं,
जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें,॥1॥
* दरसनु देब जानि निज दासी। लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥2॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं॥2॥
भावार्थ:-और हमें अपनी
दासी जानकर दर्शन दें। सीताजी ने उन सबको प्रेम
की प्यासी देखा और मधुर वचन कह-कहकर उनका भलीभाँति संतोष किया। मानो चाँदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट
कर दिया हो॥2॥
* तबहिं लखन रघुबर रुख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी॥
सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥3॥
सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी॥3॥
भावार्थ:-उसी समय श्री
रामचन्द्रजी का रुख जानकर लक्ष्मणजी ने कोमल
वाणी से लोगों से रास्ता पूछा। यह सुनते ही स्त्री-पुरुष दुःखी हो गए। उनके शरीर पुलकित हो
गए और नेत्रों में (वियोग
की सम्भावना से प्रेम का) जल
भर आया॥3॥
* मिटा मोदु मन भए मलीने। बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥4॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा। सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥4॥
भावार्थ:-उनका आनंद मिट गया और मन ऐसे उदास हो गए मानो विधाता
दी हुई सम्पत्ति छीने लेता हो। कर्म की गति समझकर उन्होंने
धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग
बतला दिया॥4॥
दोहा :
* लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ॥118॥
भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी
और जानकीजी सहित श्री रघुनाथजी ने गमन किया और
सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु
उनके मनों को अपने साथ ही लगा लिया॥118॥
चौपाई :
* फिरत नारि नर अति पछिताहीं। दैअहि दोषु देहिं मन माहीं॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥1॥
भावार्थ:-लौटते हुए वे
स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन ही मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर (बड़े
ही) विषाद के साथ कहते हैं कि
विधाता के सभी काम उलटे हैं॥1॥
* निपट निरंकुस निठुर निसंकू। जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥2॥
रूख कलपतरु सागरु खारा। तेहिं पठए बन राजकुमारा॥2॥
भावार्थ:-वह विधाता बिल्कुल निरंकुश (स्वतंत्र),
निर्दय और निडर है, जिसने
चन्द्रमा को रोगी (घटने-बढ़ने
वाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष
को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में
भेजा है॥2॥
* जौं पै इन्हहिं दीन्ह बनबासू। कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥3॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना। रचे बादि बिधि बाहन नाना॥3॥
भावार्थ:-जब विधाता ने
इनको वनवास दिया है, तब
उसने भोग-विलास
व्यर्थ ही बनाए। जब ये बिना जूते के (नंगे ही पैरों) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता ने अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे॥3॥
* ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥4॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-जब ये कुश और
पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब
विधाता सुंदर सेज (पलंग
और बिछौने) किसलिए
बनाता है? विधाता ने जब इनको बड़े-बड़े
पेड़ों (के नीचे) का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर
उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया॥4॥
दोहा :
* जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥119॥
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार॥119॥
भावार्थ:-जो ये सुंदर और अत्यन्त सुकुमार होकर मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो
फिर करतार (विधाता) ने भाँति-भाँति के गहने और कपड़े वृथा ही बनाए॥119॥
चौपाई :
* जौं ए कंदमूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥1॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए। आपु प्रगट भए बिधि न बनाए॥1॥
भावार्थ:-जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं, तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं- ये स्वभाव से ही सुंदर हैं (इनका सौंदर्य-माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है)। ये अपने-आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाए नहीं हैं॥1॥
* जहँ लगिबेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचर बरनी॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥2॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी। कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी॥2॥
भावार्थ:-हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आने वाली विधाता की करनी को जहाँ तक वेदों
ने वर्णन करके कहा है, वहाँ तक चौदहों लोकों में ढूँढ देखो, ऐसे पुरुष
और ऐसी स्त्रियाँ कहाँ हैं? (कहीं भी नहीं हैं, इसी
से सिद्ध है कि
ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग हैं और अपनी
महिमा से ही आप निर्मित हुए हैं)॥2॥
* इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥3॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। तेहिं इरिषा बन आनि दुराए॥3॥
भावार्थ:-इन्हें देखकर
विधाता का मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे
स्त्री-पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम
किया, परन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आए (पूरे नहीं उतरे)। इसी ईर्षा के मारे उसने इनको जंगल में
लाकर छिपा दिया है॥3॥
* एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥4॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे॥4॥
भावार्थ:-कोई एक कहते
हैं- हम बहुत नहीं जानते। हाँ, अपने को परम धन्य अवश्य मानते हैं (जो इनके दर्शन
कर रहे हैं) और
हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान हैं, जिन्होंने इनको
देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥120॥
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर॥120॥
भावार्थ:-इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर
सब नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं
का) जल भर लेते हैं और कहते
हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम (कठिन) मार्ग
में कैसे चलेंगे॥120॥
चौपाई :
* नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं साँझ समय जनु सोहीं॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥1॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी॥1॥
भावार्थ:-स्त्रियाँ स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी (भावी वियोग की पीड़ा से) सोह रही हो। (दुःखी
हो रही हो)।
इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदय
से उत्तम वाणी कहती हैं-॥1॥
* परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचति महि जिमि हृदय हमारे॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥2॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-इनके कोमल और
लाल-लाल चरणों (तलवों) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही
सकुचा जाती है, जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो
सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?॥2॥
* जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं॥
जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥3॥
जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय रामु न देखन पाए॥3॥
भावार्थ:-यदि ब्रह्मा से माँगे मिले तो हे सखी! (हम तो उनसे माँगकर) इन्हें अपनी आँखों में ही रखें! जो स्त्री-पुरुष इस अवसर पर नहीं आए, वे
श्री सीतारामजी को नहीं देख सके॥3॥
* सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहाँ लगि भाई॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥4॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई॥4॥
भावार्थ:-उनके सौंदर्य
को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई! अब तक वे कहाँ तक गए होंगे? और जो
समर्थ हैं, वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का परम फल
पाकर, विशेष आनंदित होकर लौटते हैं॥4॥
दोहा :
* अबला बालक बृद्ध जन कर मीजहिं पछिताहिं।
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥121॥
होहिं प्रेमबस लोग इमि रामु जहाँ जहँ जाहिं॥121॥
भावार्थ:-(गर्भवती, प्रसूता आदि) अबला
स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े (दर्शन
न पाने से) हाथ
मलते और पछताते हैं। इस प्रकार जहाँ-जहाँ
श्री रामचन्द्रजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ लोग प्रेम के वश में हो जाते हैं॥121॥
चौपाई :
* गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥1॥
जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं॥1॥
भावार्थ:-सूर्यकुल रूपी कुमुदिनी को प्रफुल्लित करने वाले
चन्द्रमा स्वरूप श्री रामचन्द्रजी के दर्शन
कर गाँव-गाँव
में ऐसा ही आनंद हो रहा है, जो लोग (वनवास दिए जाने का) कुछ
भी समाचार सुन पाते हैं,
वे राजा-रानी (दशरथ-कैकेयी) को दोष लगाते
हैं॥1॥
* कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जोइ लोचन लाहू॥
कहहिं परसपर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥2॥
कहहिं परसपर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाईं॥2॥
भावार्थ:-कोई एक कहते
हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने
हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री-पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेहभरी
सुंदर बातें कह रहे हैं॥2॥
* ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहाँ तें आए॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ-जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥3॥
धन्य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ-जहँ जाहिं धन्य सोइ ठाऊँ॥3॥
भावार्थ:-(कहते हैं-) वे माता-पिता धन्य हैं, जिन्होंने
इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य है, जहाँ से ये
आए हैं। वह देश, पर्वत, वन और गाँव धन्य है और वही स्थान धन्य है, जहाँ-जहाँ ये जाते हैं॥3॥
* सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहि के सब भाँति सनेही॥
राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥4॥
राम लखन पथि कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई॥4॥
भावार्थ:-ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है, जिसके
ये (श्री रामचन्द्रजी) सब प्रकार से स्नेही हैं।
पथिक रूप श्री राम-लक्ष्मण
की सुंदर कथा सारे रास्ते और जंगल में छा गई
है॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत।
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥122॥
जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत॥122॥
भावार्थ:-रघुकुल रूपी
कमल को खिलाने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी इस
प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मणजी सहित
वन को देखते हुए चले जा रहे हैं॥122॥
चौपाई :
* आगें रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥1॥
उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें॥1॥
भावार्थ:-आगे श्री रामजी हैं, पीछे
लक्ष्मणजी सुशोभित हैं। तपस्वियों के वेष बनाए दोनों बड़ी ही शोभा
पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म
और जीव के बीच में माया!॥1॥
* बहुरि कहउँ छबि जसि मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥2॥
उपमा बहुरि कहउँ जियँ जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही॥2॥
भावार्थ:-फिर जैसी छबि
मेरे मन में बस रही है, उसको
कहता हूँ- मानो
वसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति (कामेदव की स्त्री) शोभित
हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूँ कि
मानो बुध (चंद्रमा
के पुत्र) और
चन्द्रमा के बीच में रोहिणी (चन्द्रमा की
स्त्री) सोह रही हो॥2॥
* प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता॥
सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥3॥
सीय राम पद अंक बराएँ। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएँ॥3॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचन्द्रजी के (जमीन पर अंकित होने वाले दोनों) चरण
चिह्नों के बीच-बीच में
पैर रखती हुई सीताजी (कहीं
भगवान के चरण चिह्नों पर पैर न टिक जाए इस बात
से) डरती हुईं मार्ग में चल रही
हैं और लक्ष्मणजी (मर्यादा
की रक्षा के लिए) सीताजी
और श्री रामचन्द्रजी दोनों के चरण चिह्नों को बचाते हुए दाहिने
रखकर रास्ता चल रहे हैं॥3॥
* राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥4॥
खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुंदर प्रीति वाणी का विषय नहीं है (अर्थात अनिर्वचनीय
है),
अतः वह कैसे कही जा सकती है? पक्षी
और पशु भी उस छबि को देखकर (प्रेमानंद में) मग्न
हो जाते हैं। पथिक रूप श्री रामचन्द्रजी ने उनके
भी चित्त चुरा लिए हैं॥4॥
दोहा :
* जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ।
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥123॥
भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ॥123॥
भावार्थ:-प्यारे पथिक
सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन-जिन लोगों ने देखा, उन्होंने
भव का अगम मार्ग (जन्म-मृत्यु रूपी संसार में भटकने का भयानक
मार्ग) बिना ही परिश्रम आनंद
के साथ तय कर लिया (अर्थात
वे आवागमन के चक्र से सहज ही छूटकर मुक्त हो
गए)॥123॥
चौपाई :
* अजहुँ जासु उर सपनेहुँ काऊ। बसहुँ लखनु सिय रामु बटाऊ॥
राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहु मुनि कोई॥1॥
राम धाम पथ पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहु मुनि कोई॥1॥
भावार्थ:-आज भी जिसके
हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम
तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्री रामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जाएगा, जिस
मार्ग को कभी कोई
बिरले ही मुनि पाते हैं॥1॥
* तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥2॥
तहँ बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाइ चले रघुराई॥2॥
भावार्थ:-तब श्री रामचन्द्रजी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी
देखकर उस दिन वहीं ठहर गए। कन्द, मूल, फल
खाकर (रात भर वहाँ रहकर) प्रातःकाल स्नान करके श्री रघुनाथजी आगे
चले॥2॥
श्री राम-वाल्मीकि संवाद
* देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥3॥
राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन॥3॥
भावार्थ:-सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए।
श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर
पर्वत, वन और पवित्र जल है॥3॥
* सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥4॥
खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥4॥
भावार्थ:-सरोवरों में
कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरन्द
रस में मस्त हुए भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। बहुत से पक्षी और
पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर
प्रसन्न मन से विचर रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सुचि सुंदर आश्रमु निरखि हरषे राजिवनेन।
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥124॥
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन॥124॥
भावार्थ:-पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमल नयन श्री रामचन्द्रजी हर्षित हुए। रघु श्रेष्ठ श्री
रामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकिजी उन्हें लेने के लिए आगे आए॥124॥
चौपाई :
* मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद
दिया। श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। सम्मानपूर्वक
मुनि उन्हें आश्रम में ले आए॥1॥
* मुनिबर अतिथि प्रानप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मँगाए॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥2॥
सिय सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए॥2॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
वाल्मीकिजी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर
उनके लिए मधुर कंद, मूल और फल मँगवाए। श्री सीताजी,
लक्ष्मणजी और रामचन्द्रजी ने फलों को खाया। तब
मुनि ने उनको (विश्राम
करने के लिए) सुंदर
स्थान बतला दिए॥2॥
* बालमीकि मन आनँदु भारी। मंगल मूरति नयन निहारी॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥3॥
तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई॥3॥
भावार्थ:-(मुनि श्री रामजी के पास बैठे हैं और उनकी) मंगल
मूर्ति को नेत्रों से देखकर वाल्मीकिजी के मन में बड़ा भारी आनंद हो
रहा है। तब श्री रघुनाथजी कमलसदृश हाथों को जोड़कर, कानों
को सुख देने वाले मधुर वचन बोले-॥3॥
* तुम्ह त्रिकाल दरसी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा ॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥4॥
अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहि जेहि भाँति दीन्ह बनु रानी॥4॥
भावार्थ:-हे मुनिनाथ! आप त्रिकालदर्शी
हैं। सम्पूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस-जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह
सब कथा विस्तार से सुनाई॥4॥
दोहा :
* तात बचन पुनि मातु हित भाइ भरत अस राउ।
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥125॥
मो कहुँ दरस तुम्हार प्रभु सबु मम पुन्य प्रभाउ॥125॥
भावार्थ:-(और कहा-) हे प्रभो! पिता की आज्ञा (का पालन), माता का हित और भरत जैसे (स्नेही
एवं धर्मात्मा) भाई
का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुण्यों
का प्रभाव है॥125॥
चौपाई :
* देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे॥॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई॥1॥
भावार्थ:-हे मुनिराज! आपके
चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गए (हमें सारे पुण्यों का फल मिल गया)।
अब जहाँ आपकी आज्ञा हो और जहाँ कोई भी मुनि उद्वेग को
प्राप्त न हो-॥1॥
* मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥2॥
मंगल मूल बिप्र परितोषू। दहइ कोटि कुल भूसुर रोषू॥2॥
भावार्थ:-क्योंकि जिनसे मुनि और तपस्वी दुःख पाते हैं, वे
राजा बिना अग्नि के ही (अपने
दुष्ट कर्मों से ही) जलकर
भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है
और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है॥2॥
* अस जियँ जानि कहिअ सोइ ठाऊँ। सिय सौमित्रि सहित जहँ जाऊँ॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥3॥
तहँ रचि रुचिर परन तृन साला। बासु करौं कछु काल कृपाला॥3॥
भावार्थ:-ऐसा हृदय में
समझकर- वह स्थान बतलाइए जहाँ मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊँ और वहाँ सुंदर पत्तों
और घास की कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ
समय निवास करूँ॥3॥
* सहज सरल सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ग्यानी॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥4॥
कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संतत श्रुति सेतू॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि
वाल्मीकि बोले- धन्य! धन्य! हे रघुकुल के
ध्वजास्वरूप! आप
ऐसा क्यों न कहेंगे? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन (रक्षण) करते हैं॥4॥
छन्द :
* श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की॥
जो सहससीसु अहीसु महिधरु लखनु सचराचर धनी।
सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी॥
भावार्थ:-हे राम! आप
वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी (आपकी स्वरूप भूता) माया हैं, जो
कृपा के भंडार आपका रुख पाकर जगत का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो
हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले
हैं, वही चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिए आप
राजा का शरीर धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिए चले हैं।
सोरठा :
* राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।126॥
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।126॥
भावार्थ:-हे राम! आपका स्वरूप
वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति-नेति' कहकर
वर्णन करते हैं॥126॥
चौपाई :
* जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥
तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥1॥
भावार्थ:-हे राम! जगत दृश्य
है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले
हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है?॥1॥
* सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
भावार्थ:-वही आपको जानता है, जिसे
आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल
करने वाले चंदन! आपकी
ही कृपा से भक्त
आपको जान पाते हैं॥2॥
* चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥
नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥3॥
भावार्थ:-आपकी देह चिदानन्दमय है (यह
प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई कर्म बंधनयुक्त, त्रिदेह
विशिष्ट मायिक नहीं है) और
(उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय
आदि) सब विकारों
से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और
संतों के कार्य के लिए (दिव्य) नर शरीर धारण किया है और
प्राकृत (प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते
हैं॥3॥
* राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥
तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा॥4॥
भावार्थ:-हे राम! आपके चरित्रों
को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन
सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह
सब सत्य (उचित) ही है, क्योंकि
जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए (इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः
मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है।)॥4॥
दोहा :
* पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127॥
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥127॥
भावार्थ:-आपने मुझसे
पूछा कि मैं कहाँ रहूँ? परन्तु
मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं
आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ॥127॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥
बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी॥1॥
भावार्थ:-मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्री रामचन्द्रजी रहस्य खुल जाने के डर से सकुचाकर
मन में मुस्कुराए। वाल्मीकिजी हँसकर फिर अमृत रस में डुबोई हुई मीठी
वाणी बोले-॥1॥
* सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥2॥
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥2॥
भावार्थ:-हे रामजी! सुनिए, अब
मैं वे स्थान बताता हूँ,
जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास
कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों
से-॥2॥
* भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गुह रूरे॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥3॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे॥3॥
भावार्थ:-निरंतर भरते
रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने
नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ
के लिए सदा लालायित रहते हैं,॥3॥
* निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥4॥
तिन्ह कें हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक॥4॥
भावार्थ:-तथा जो भारी-भारी
नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य (रूपी
मेघ) की एक बूँद जल से सुखी हो
जाते हैं (अर्थात
आपके दिव्य सच्चिदानन्दमय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा सी भी झाँकी के सामने स्थूल, सूक्ष्म
और कारण तीनों जगत के अर्थात पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौंदर्य
का तिरस्कार करते हैं), हे रघुनाथजी! उन लोगों के हृदय रूपी सुखदायी
भवनों में आप भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित निवास कीजिए॥4॥
दोहा :
* जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु।
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥128॥
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु॥128॥
भावार्थ:-आपके यश रूपी
निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई
आपके गुण समूह रूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे
रामजी! आप उसके हृदय में बसिए॥128॥
चौपाई :
* प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥1॥
भावार्थ:-जिसकी नासिका
प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद
रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं,॥1॥
* सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥2॥
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा॥2॥
भावार्थ:-जिनके मस्तक
देवता, गुरु और ब्राह्मणों को
देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं, जिनके
हाथ नित्य श्री रामचन्द्रजी (आप) के चरणों की पूजा करते हैं
और जिनके हृदय में श्री रामचन्द्रजी (आप) का ही भरोसा है, दूसरा
नहीं,॥2॥
* चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा॥3॥
भावार्थ:-तथा जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन
में निवास कीजिए। जो नित्य आपके (राम नाम रूप) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार (परिकर) सहित
आपकी पूजा करते हैं॥3॥
* तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥4॥
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी॥4॥
भावार्थ:-जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा
ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा
जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक (बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान
करके उनकी सेवा करते हैं,॥4॥
दोहा :
* सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥129॥
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥129॥
भावार्थ:-और ये सब कर्म करके सबका एक मात्र यही फल माँगते हैं
कि श्री रामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन
लोगों के मन रूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित
करने वाले आप दोनों बसिए॥129॥
चौपाई :
* काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया॥1॥
भावार्थ:-जिनके न तो
काम, क्रोध, मद, अभिमान
और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट,
दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप
उनके हृदय में निवास कीजिए॥1॥
* सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी॥2॥
भावार्थ:-जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें
दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली
(निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं,॥2॥
* तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥3॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥3॥
भावार्थ:-और आपको छोड़कर जिनके दूसरे कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप
उनके मन में बसिए। जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के
समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है,॥3॥
* जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे॥4॥
भावार्थ:-जो दूसरे की
सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की
विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान
प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं॥4॥
दोहा :
* स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥130॥
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात॥130॥
भावार्थ:-हे तात! जिनके
स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप
दोनों भाई निवास कीजिए॥130॥
चौपाई :
* अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका॥1॥
भावार्थ:-जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण
और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है॥1॥
* गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥2॥
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही॥2॥
भावार्थ:-जो गुणों को
आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे
सब प्रकार से आपका ही भरोसा है और राम भक्त जिसे प्यारे लगते
हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिए॥2॥
* जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥3॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥3॥
भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको
ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥3॥
* सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥4॥
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा॥4॥
भावार्थ:-स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है और जो
कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे
रामजी! आप उसके हृदय में डेरा
कीजिए॥4॥
दोहा :
* जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131॥
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥131॥
भावार्थ:-जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप
उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है॥131॥
चौपाई :
* एहि बिधि मुनिबर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥
कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहउँ समय सुखदायक॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी
को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को अच्छे
लगे। फिर मुनि ने कहा- हे
सूर्यकुल के स्वामी! सुनिए, अब
मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवास स्थान बतलाता हूँ)॥1॥
* चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥2॥
सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहग बिहारू॥2॥
भावार्थ:-आप चित्रकूट
पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ
आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत
है और सुंदर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन
और पक्षियों का विहार स्थल है॥2॥
* नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रिप्रिया निज तप बल आनी॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥3॥
सुरसरि धार नाउँ मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि॥3॥
भावार्थ:-वहाँ पवित्र
नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा
की है और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसुयाजी अपने तपोबल से लाई
थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है।
वह सब पाप रूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डायन) रूप
है॥3॥
* अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥4॥
चलहु सफल श्रम सब कर करहू। राम देहु गौरव गिरिबरहू॥4॥
भावार्थ:-अत्रि आदि बहुत से श्रेष्ठ मुनि वहाँ निवास करते हैं, जो
योग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे रामजी! चलिए, सबके
परिश्रम को सफल कीजिए और पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट
को भी गौरव दीजिए॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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