गोस्वामी तुलसीदासजी
भरतजी का मन्दाकिनी
स्नान, चित्रकूट
में पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध
* लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन
नहीं किया जा सकता। यहाँ भरतजी ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी में
स्नान किया॥2॥
* सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥
भावार्थ:-फिर सबको नदी
के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु
और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न
को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी थे॥3॥।
* समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥
भावार्थ:-भरतजी अपनी
माता कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों (अनेकों) कुतर्क करते हैं (सोचते
हैं) श्री राम, लक्ष्मण
और सीताजी मेरा
नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न
चले जाएँ॥4॥
दोहा :
* मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥
भावार्थ:-मुझे माता के
मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर
वे अपनी ओर समझकर (अपने विरद
और संबंध को देखकर) मेरे
पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे॥233॥
चौपाई :
* जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥
भावार्थ:-चाहे मलिन मन
जानकर मुझे त्याग दें, चाहे
अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी करें),
मेरे तो श्री रामचंद्रजी की जूतियाँ ही शरण
हैं। श्री रामचंद्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष
तो सब दास का ही है॥1॥
* जग जग भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥
भावार्थ:-जगत् में यश
के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो
अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाए रखने में निपुण हैं। ऐसा मन
में सोचते हुए भरतजी मार्ग में चले जाते हैं। उनके
सब अंग संकोच और प्रेम से शिथिल हो रहे हैं॥2॥
* फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
भावार्थ:-माता की हुई
बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर
धीरज की धुरी को धारण करने वाले भरतजी भक्ति
के बल से चले जाते हैं। जब श्री रघुनाथजी के स्वभाव को समझते (स्मरण करते) हैं तब मार्ग में उनके पैर
जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं॥3॥
* भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥
भावार्थ:-उस समय भरत की दशा कैसी है? जैसी
जल के प्रवाह में जल के भौंरे की गति होती है। भरतजी का सोच
और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया (देह की सुध-बुध
भूल गया)॥4॥
दोहा :
* लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
भावार्थ:-मंगल शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा- सोच मिटेगा, हर्ष
होगा, पर फिर अन्त में दुःख होगा॥234॥
चौपाई :
* सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी ने सेवक (गुह) के
सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों
के समूह को देखा तो भरतजी इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न
(भोजन) पा गया हो॥1॥
* ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥
भावार्थ:-जैसे *ईति
के भय से दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक
और आधिभौतिक) तापों
तथा क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य में
जाकर सुखी हो जाए, भरतजी की गति (दशा) ठीक उसी प्रकार हो रही है॥2॥ (*अधिक
जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियाँ, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई- खेतों में बाधा देने वाले इन छह उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं)।
* राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के निवास से वन की सम्पत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर
प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य
मंत्री है॥3॥
* भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥
भावार्थ:-यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह) तथा
नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय
और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा
हैं। पर्वत राजधानी है,
शांति तथा सुबुद्धि
दो सुंदर पवित्र रानियाँ हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से
पूर्ण है और श्री रामचंद्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में चाव
(आनंद या उत्साह) है॥4॥ (स्वामी, आमत्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग
और सेना- राज्य
के सात अंग हैं।)
दोहा :
* जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥
भावार्थ:-मोह रूपी राजा को सेना सहित जीतकर विवेक रूपी राजा निष्कण्टक राज्य कर रहा है।
उसके नगर में सुख, सम्पत्ति और सुकाल वर्तमान है॥235॥
चौपाई :
* बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ:-वन रूपी प्रांतों में जो मुनियों के बहुत से निवास स्थान हैं, वही
मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है। बहुत से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही
मानो प्रजाओं का समाज है,
जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥
* खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥
भावार्थ:-गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है।
ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ
एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना है॥2॥
* झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥
भावार्थ:-पानी के झरने
झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं।
मानो वहाँ अनेकों प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता
तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूज रहे हैं॥3॥
* अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥
भावार्थ:-भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं।
मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण
सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद
और मंगल का मूल बन रहा है॥4॥
दोहा :
* राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥
भावार्थ:-श्री रामजी के पर्वत की शोभा देखकर भरतजी के हृदय में
अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम की समाप्ति होने पर तपस्या
का फल पाकर सुखी होता है॥236॥
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
चौपाई :
* तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
भावार्थ:-तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने
लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम
और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,॥1॥
* जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥
भावार्थ:-जिन श्रेष्ठ
वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष
सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके
पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी
घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देने वाली है॥2॥
* मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥
भावार्थ:-मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और
लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ
श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥3॥
* तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥
भावार्थ:-वहाँ तुलसीजी
के बहुत से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो
कहीं-कहीं सीताजी ने और कहीं लक्ष्मणजी
ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से सुंदर
वेदी बनाई है॥4॥
दोहा :
* जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥
भावार्थ:-जहाँ सुजान श्री सीता-रामजी
मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥237॥
चौपाई :
* सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥
भावार्थ:-सखा के वचन
सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों
में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का
वर्णन करने में सरस्वतीजी भी सकुचाती हैं॥1॥
* हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं, मानो
दरिद्र पारस पा गया हो। वहाँ की रज को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में लगाते
हैं और श्री रघुनाथजी के मिलने के समान सुख पाते हैं॥2॥
* देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥
भावार्थ:-भरतजी की अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम में मग्न हो गए। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया।
तब देवता सुंदर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे॥3॥
* निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥4॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥4॥
भावार्थ:-भरत के प्रेम
की इस स्थिति को देखकर सिद्ध और साधक लोग भी
अनुराग से भर गए और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि
यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म (अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?॥4॥
दोहा :
* पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
भावार्थ:-प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र
श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे समुद्र
को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर
यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया है॥238॥
चौपाई :
* सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥
भावार्थ:-सखा निषादराज
सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण
लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समस्त
सुमंगलों के धाम और सुंदर पवित्र आश्रम को देखा॥1॥
* करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥
भावार्थ:-आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुःख और दाह (जलन) मिट
गया, मानो योगी को परमार्थ
(परमतत्व) की प्राप्ति हो गई हो। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े
हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)॥2॥
* सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥
भावार्थ:-सिर पर जटा है, कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी
में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी
पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्री
रघुनाथजी विराजमान हैं॥3॥
* बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के वल्कल वस्त्र हैं, जटा
धारण किए हैं, श्याम शरीर है। (सीता-रामजी ऐसे लगते हैं) मानो रति और कामदेव ने मुनि
का वेष धारण किया हो। श्री रामजी अपने करकमलों
से धनुष-बाण
फेर रहे हैं और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं (अर्थात
जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनंद और शांति मिल
जाती है।)॥4॥
दोहा :
* लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥239॥
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥239॥
भावार्थ:-सुंदर मुनि
मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री
रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात्
भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं॥239॥
चौपाई :
* सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
भावार्थ:-छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न
हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे
गुसाईं! रक्षा कीजिए' ऐसा
कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥1॥
* बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
भावार्थ:-प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में
जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खड़े थे, भरतजी
पीठ पीछे थे, इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब
इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्री
रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥2॥
* मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥
भावार्थ:-न तो (क्षणभर के
लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते
ही बनता है और न (प्रेमवश) छोड़ते (उपेक्षा
करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही
लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही
विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंग को
खिलाड़ी (पतंग उड़ाने वाला) खींच
रहा हो॥3॥
* कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने
प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं।
यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं
तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥4॥
दोहा :
* बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
भावार्थ:-कृपा निधान
श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय
से लगा लिया! भरतजी
और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥240॥
चौपाई :
* मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
भावार्थ:-मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह
तो कविकुल के लिए कर्म,
मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों
भाई (भरतजी और श्री रामजी) मन, बुद्धि, चित्त
और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥
* कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥
भावार्थ:-कहिए, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे? कवि
को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता
है!॥2॥
* अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥
भावार्थ:-भरतजी और श्री रघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहाँ
ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं
कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, *गाँडर
की ताँत से भी कहीं सुंदर राग बज सकता है?॥3॥ (*तालाबों
और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।)
* मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥
भावार्थ:-भरतजी और श्री रामचन्द्रजी के मिलने का ढंग देखकर
देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देव गुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब
कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे॥4॥
दोहा :
* मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भावार्थ:-फिर श्री रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट
(निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े ही प्रेम से
मिले॥241॥
चौपाई :
* भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥
भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी
ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे
भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को
हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न
दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों को
प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनंदित हुए॥1॥
* सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
भावार्थ:-छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर धारण
कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें
उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया॥2॥
* सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
भावार्थ:-सीताजी ने मन
ही मन आशीर्वाद दिया, क्योंकि
वे स्नेह में मग्न हैं,
उन्हें देह की सुध-बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से
अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गए और उनके हृदय का
कल्पित भय जाता रहा॥3॥
* कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
भावार्थ:-उस समय न तो
कोई कुछ कहता है, न
कोई कुछ पूछता है! मन
प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है (अर्थात
संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)। उस अवसर पर केवट
(निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा-॥4॥
दोहा :
* नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
भावार्थ:-हे नाथ! मुनिनाथ
वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री- सब आपके वियोग से व्याकुल
होकर आए हैं॥242॥
चौपाई :
* सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥
भावार्थ:-गुरु का आगमन
सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने
सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंधर, दीनदयालु
श्री रामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े॥1॥
* गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-गुरुजी के दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और दण्डवत
प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया
और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥2॥
* प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥
भावार्थ:-फिर प्रेम से
पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने
अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत
प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा
लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥
* रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस
प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे
कहने लगे- जगत
में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥
दोहा :
* जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
भावार्थ:-जिस (निषाद) को देखकर
मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनंदित होकर मिले। यह सब
सीतापति श्री रामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है॥243॥
चौपाई :
* आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥
भावार्थ:-दया की खान, सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब
जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस-उस का उस-उस
प्रकार का रुख रखते हुए (उसकी रुचि के अनुसार)॥1॥
* सानुज मिलि पल महुँ सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पल भर में सब किसी से मिलकर उनके दुःख और कठिन संताप को दूर कर
दिया। श्री रामचन्द्रजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों
में एक ही सूर्य की (पृथक-पृथक) छाया (प्रतिबिम्ब) एक साथ ही दिखती है॥2॥
* मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥
भावार्थ:-समस्त पुरवासी प्रेम में उमँगकर केवट से मिलकर (उसके) भाग्य की सराहना करते हैं। श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं
को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला
मार गया हो॥3॥
*प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥
भावार्थ:-सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर
दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्री रामजी
ने उनको सान्त्वना दी॥4॥
दोहा :
* भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
भावार्थ:-फिर श्री रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥244॥
* गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
भावार्थ:-फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की
पत्नी अरुंधतीजी के चरणों की वंदना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान
सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं॥1॥
* गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
भावार्थ:-तब दोनों भाई
पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे।
मानो किसी अत्यन्त दरिद्र की सम्पत्ति से भेंट हो गई हो। फिर दोनों
भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े।
प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं॥2॥
* अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
भावार्थ:-बड़े ही स्नेह
से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों
से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष
और विषाद को कवि कैसे कहे?
जैसे गूँगा
स्वाद को कैसे बतावे?॥3॥
* मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित माता
कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर पधारिए।
तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और
थल का सुभीता देख-देखकर
उतर गए॥4॥
दोहा :
* महिसुर मंत्री मातु गुरु गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किए भरत लखन रघुनाथ॥245॥
पावन आश्रम गवनु किए भरत लखन रघुनाथ॥245॥
भावार्थ:-ब्राह्मण, मंत्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने
लोगों को साथ लिए हुए, भरतजी, लक्ष्मणजी और श्री रघुनाथजी पवित्र आश्रम को चले॥245॥
चौपाई :
* सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी आकर
मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और
उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों
सहित गुरु पत्नी अरुन्धतीजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम
था, वह कहा नहीं जाता॥1॥
* बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।
सासु सकल सब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥
सासु सकल सब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥
भावार्थ:-सीताजी ने सभी के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय (अनुकूल) लगने वाले आशीर्वाद पाए। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब
उन्होंने सहमकर
अपनी आँखें बंद कर लीं॥2॥
* परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥
भावार्थ:-(सासुओं की बुरी दशा देखकर) उन्हें
ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिक के वश में पड़
गई हों। (मन
में सोचने लगीं कि) कुचाली
विधाता ने क्या कर डाला?
उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहावे, वह सब सहना ही पड़ता है॥3॥
* जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥
भावार्थ:-तब जानकीजी
हृदय में धीरज धरकर, नील
कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर
मिलीं। उस समय पृथ्वी पर करुणा (करुण
रस) छा गई॥4॥
दोहा :
* लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
भावार्थ:-सीताजी सबके
पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेम से मिल रही हैं और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से आशीर्वाद
दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो (अर्थात सदा सौभाग्यवती रहो)॥246॥
चौपाई :
* बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥
भावार्थ:-सीताजी और सब
रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी
गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष्ठजी ने जगत
की गति को मायिक कहकर (अर्थात
जगत माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थ की कथाएँ
(बातें) कहीं॥1॥
* नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥2॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥2॥
भावार्थ:-तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथजी के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथजी ने
दुःसह दुःख पाया और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धीरधुरन्धर
श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गए॥2॥
* कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहूँ राजु अकाजेउ आजू॥3॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहूँ राजु अकाजेउ आजू॥3॥
भावार्थ:-वज्र के समान
कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी
और सब रानियाँ विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यन्त
व्याकुल हो गया! मानो
राजा आज ही मरे हों॥3॥
* मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥4॥
ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्री रामजी को समझाया। तब उन्होंने समाज सहित श्रेष्ठ
नदी मंदाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निर्जल
व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया॥4॥
दोहा :
* भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥
भावार्थ:-दूसरे दिन सबेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब कार्य प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्ति सहित आदर के साथ किया॥247॥
चौपाई :
* करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥
भावार्थ:-वेदों में जैसा कहा गया है, उसी
के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अंधकार के नष्ट करने
वाले सूर्यरूप श्री रामचन्द्रजी शुद्ध हुए! जिनका नाम पाप रूपी रूई के (तुरंत जला डालने के) लिए अग्नि है और जिनका
स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है,॥1॥
* सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुसरिजस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥
भावार्थ:-वे (नित्य शुद्ध-बुद्ध) भगवान श्री रामजी शुद्ध हुए! साधुओं
की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के
आवाहन से गंगाजी शुद्ध होती हैं! (गंगाजी तो स्वभाव से ही
शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है, उलटे
वे ही गंगाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार
सच्चिदानंद रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही शुद्ध
हो गए।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए
तब श्री रामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुरुजी से बोले-॥2॥
* नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु आहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! सब
लोग यहाँ अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कंद, मूल, फल
और जल का ही आहार करते हैं। भाई शत्रुघ्न सहित भरत को, मंत्रियों
को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल
युग के समान बीत रहा है॥3॥
* सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥
भावार्थ:-अतः सबके साथ
आप अयोध्यापुरी को पधारिए (लौट जाइए)। आप यहाँ हैं और राजा अमरावती (स्वर्ग) में हैं (अयोध्या
सूनी है)! मैंने
बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा
ही कीजिए॥4॥
दोहा :
* धर्म सेतु करुनायतन कस न कहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥
भावार्थ:-(वशिष्ठजी ने
कहा-) हे राम! तुम
धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो? लोग
दुःखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शांति लाभ कर लें॥248॥
चौपाई :
* राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो
बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो, परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की
श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस जहाज
के लिए मानो हवा अनुकूल हो गई॥1॥
* पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥2॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥2॥
भावार्थ:-सब लोग पवित्र पयस्विनी नदी में (अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में) तीनों समय (सबेरे, दोपहर
और सायंकाल) स्नान
करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो
जाते हैं और मंगल मूर्ति श्री रामचन्द्रजी को दण्डवत प्रणाम कर-करके उन्हें
नेत्र भर-भरकर
देखते हैं॥2॥
* राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥3॥
झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥3॥
भावार्थ:-सब श्री रामचन्द्रजी के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ
सभी सुख हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार
की (शीतल, मंद, सुगंध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) तापों को हर लेती है॥3॥
* बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥4॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥4॥
भावार्थ:-असंख्य जात के वृक्ष, लताएँ
और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुंदर शिलाएँ
हैं। वृक्षों की छाया सुख देने वाली है। वन की शोभा किससे वर्णन की जा
सकती है?॥4॥
वनवासियों द्वारा
भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चाताप
दोहा :
* सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥
भावार्थ:-तालाबों में
कमल खिल रहे हैं, जल
के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु
वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥
चौपाई :
* कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥
भावार्थ:-कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान
स्वादिष्ट मधु (शहद) को
सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर
तथा कंद, मूल, फल और अंकुर
आदि की जूड़ियों (अँटियों) को॥1॥
* सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥
भावार्थ:-सबको विनय और
प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद
(प्रकार), गुण और नाम
बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर
वे नहीं लेते और लौटा देने में श्री रामजी की दुहाई देते हैं॥2॥
* कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥
भावार्थ:-प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु
लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप
हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या
वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न
कीजिए)। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम
नीच निषाद हैं। श्री रामजी की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए हैं॥3॥
* हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥
भावार्थ:-हम लोगों को
आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे
मरुभूमि के लिए गंगाजी की धारा दुर्लभ है! (देखिए) कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने
निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे राजा हैं वैसा ही उनके
परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए॥4॥
दोहा :
* यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥
भावार्थ:-हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिए और हमको
कृतार्थ करने के लिए ही फल, तृण और अंकुर लीजिए॥250॥
चौपाई :
* तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥
भावार्थ:-आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं। हे
स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों
की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और पत्तों
ही तक है॥1॥
* यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥2॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥2॥
भावार्थ:-हमारी तो यही
बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन
नहीं चुरा लेते। हम लोग जड़ जीव हैं, जीवों
की हिंसा करने वाले हैं,
कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि
और कुजाति हैं॥2॥
* पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥3॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-हमारे दिन-रात पाप
करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं।
हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्री रघुनाथजी के दर्शन
का प्रभाव है॥3॥
* जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥4॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥4॥
भावार्थ:-जब से प्रभु के चरण कमल देखे, तब
से हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गए। वनवासियों के वचन सुनकर
अयोध्या के लोग प्रेम में भर गए और उनके भाग्य की सराहना करने लगे॥4॥
छन्द :
* लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
भावार्थ:-सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन
सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्री सीता-रामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब
सुख पा रहे हैं। उन कोल-भीलों
की वाणी सुनकर सभी नर-नारी
अपने प्रेम का निरादर करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)।
तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्री
रामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया॥
सोरठा :
* बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥251॥
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥251॥
भावार्थ:-सब लोग दिनोंदिन परम आनंदित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा के
जल से मेंढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते हैं)॥251॥
चौपाई :
* पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥
भावार्थ:-अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त
मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी
सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब सासुओं
की आदरपूर्वक एक सी सेवा करती हैं॥1॥
* लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥2॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ (पराशक्ति महामाया) श्री सीताजी की माया में ही
हैं। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में
कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए॥2॥
* लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥3॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥3॥
भावार्थ:-सीताजी समेत
दोनों भाइयों (श्री राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल
रानी कैकेयी भरपेट पछताई। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किन्तु
धरती बीच (फटकर समा
जाने के लिए रास्ता) नहीं
देती और विधाता मौत नहीं देता॥3॥
* लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥4॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्री रामजी से विमुख हैं, उन्हें
नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता! श्री रामचन्द्रजी का
अयोध्या जाना होगा या नहीं॥4॥
दोहा :
* निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥252॥
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥252॥
भावार्थ:-भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न
दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे
नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती
है॥252॥
चौपाई :
* कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥
भावार्थ:-(भरतजी सोचते
हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय
आ उपस्थित हो। अब श्री रामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो
एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता॥1॥
* अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥2॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥2॥
भावार्थ:-गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्री रामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे, परन्तु
मुनि वशिष्ठजी तो श्री रामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे। ( अर्थात वे श्री
रामजी की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे)। माता कौसल्याजी के कहने से भी श्री रघुनाथजी लौट सकते हैं, पर
भला, श्री रामजी को जन्म देने वाली माता क्या कभी हठ करेगी?॥2॥
* मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥3॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥3॥
भावार्थ:-मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें
भी समय खराब है (मेरे
दिन अच्छे नहीं हैं) और विधाता
प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा, क्योंकि
सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन) है॥3॥
* एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥4॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥4॥
भावार्थ:-एक भी युक्ति
भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते ही सोचते रात
बीत गई। भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सिर
नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा॥4॥
श्री वशिष्ठजी का
भाषण
दोहा :
* गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥253॥
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥253॥
भावार्थ:-भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री
आदि सभी सभासद आकर जुट गए॥253॥
चौपाई :
* बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य
महाराज श्री रामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं॥1॥
* सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतु॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥2॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥2॥
भावार्थ:-वे सत्य प्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्री रामजी का अवतार ही जगत के
कल्याण के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले
हैं। दुष्टों के दल का नाश करने वाले और देवताओं के हितकारी हैं॥2॥
* नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥3॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥3॥
भावार्थ:-नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्री रामजी के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई
नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल,॥3॥
* अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥4॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥4॥
भावार्थ:-शेषजी और (पृथ्वी एवं पाताल के अन्यान्य) राजा
आदि जहाँ तक प्रभुता है और योग की सिद्धियाँ, जो
वेद और शास्त्रों में गाई गई हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर
देखो, (तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि) श्री
रामजी की आज्ञा इन सभी के सिर पर है (अर्थात श्री रामजी ही सबके एक मात्र महान महेश्वर हैं)॥4॥
दोहा :
* राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥254॥
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥254॥
भावार्थ:-अतएव श्री रामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। (इस तत्त्व और रहस्य को
समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको
सम्मत हो, वही मिलकर करो॥254॥
चौपाई :
* सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी का राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल
और आनंद का मूल यही एक मार्ग है। (अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही
उपाय किया जाए॥1॥
* सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥
भावार्थ:-मुनिश्रेष्ठ
वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ
और स्वार्थ (लौकिक
हित) में सनी हुई वाणी सबने आदरपूर्वक
सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचार शक्ति
से रहित) हो गए। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े॥2॥
* भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥
भावार्थ:-(और कहा-) सूर्यवंश
में एक से एक अधिक बड़े बहुत से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के कारण
पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते
हैं॥3॥
* दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥
भावार्थ:-आपकी आशीष ही
एक ऐसी है, जो
दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है, यह जगत जानता
है। हे स्वामी! आप
ही हैं, जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी रोक
दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो
निश्चय कर दिया) उसे
कौन टाल सकता है?॥4॥
* बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचनगुर उर उमगा अनुरागु॥255॥
सुनि सनेहमय बचनगुर उर उमगा अनुरागु॥255॥
भावार्थ:-अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय
वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया॥255॥
चौपाई :
* तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1।
भावार्थ:-(वे बोले-) हे तात! बात सत्य है, पर
है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी
सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं
एक बात कहने में सकुचाता हूँ। बुद्धिमान लोग
सर्वस्व जाता देखकर (आधे
की रक्षा के लिए) आधा
छोड़ दिया करते हैं॥1॥
* तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥2॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥2॥
भावार्थ:-अतः तुम दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता
और श्री रामचन्द्र को लौटा दिया जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई
हर्षित हो गए। उनके सारे अंग परमानंद से परिपूर्ण हो गए॥2॥
* मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥3॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥3॥
भावार्थ:-उनके मन प्रसन्न हो गए। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथजी उठे हों और श्री
रामचन्द्रजी राजा हो गए हों! अन्य
लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई, परन्तु
रानियों को दुःख-सुख
समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन में
रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो
पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे सब
रोने लगीं॥3॥
* कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥4॥
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥4॥
भावार्थ:-भरतजी कहने
लगे- मुनि ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का
फल होगा। (चौदह
वर्ष की कोई अवधि नहीं) मैं
जन्मभर वन में वास करूँगा। मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है॥4॥
दोहा :
* अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी और सीताजी हृदय की जानने वाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं।
यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनों को प्रमाण कीजिए (उनके अनुसार व्यवस्था कीजिए)॥256॥
चौपाई :
* भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥
भावार्थ:-भरतजी के वचन
सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि
वशिष्ठजी विदेह हो गए (किसी को
अपने देह की सुधि न रही)।
भरतजी की महान महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि
उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है॥1॥
* गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥2॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥2॥
भावार्थ:-वह (उस
समुद्र के) पार जाना चाहती है, इसके
लिए उसने हृदय में उपाय भी ढूँढे! पर
(उसे पार करने
का साधन) नाव, जहाज
या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा? तलैया
की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है?॥2॥
* भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥3॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥3॥
भावार्थ:-मुनि वशिष्ठजी की अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे
और वे समाज सहित श्री रामजी के पास आए। प्रभु श्री रामचन्द्रजी
ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनि की आज्ञा
सुनकर बैठ गए॥3॥
* बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥4॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥4॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन
बोले- हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे धर्म, नीति, गुण
और ज्ञान के भण्डार राम! सुनिए-॥4॥
दोहा :
* सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥257॥
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥257॥
भावार्थ:-आप सबके हृदय
के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें
पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए॥257॥
चौपाई :
* आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥
भावार्थ:-आर्त (दुःखी) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को
अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्री रघुनाथजी कहने
लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है॥1॥
* सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किए मुदित फुर भाषें॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥2॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥2॥
भावार्थ:-आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर
प्रसन्नता पूर्वक पालन करने में ही सबका हित
है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूँ॥2॥
* पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥3॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥3॥
भावार्थ:-फिर हे गोसाईं! आप
जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)। मुनि
वशिष्ठजी कहने लगे- हे
राम! तुमने सच कहा। पर भरत के
प्रेम ने विचार
को नहीं रहने दिया॥3॥
* तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥4॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥4॥
भावार्थ:-इसीलिए मैं
बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में तो
भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह
सब शुभ ही होगा॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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