गोस्वामी तुलसीदासजी
रुद्राष्टक
* करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥107 ख॥
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि॥107 ख॥
भावार्थ:-प्रेम सहित दण्डवत् करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का
विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे-॥107 (ख)॥
छंद :
* नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
भावार्थ:-हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता
हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित),
(मायिक)
गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में
धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले)
आपको मैं भजता हूँ॥1॥
* निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥
भावार्थ:-निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत),
वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे,
कैलासपति,
विकराल,
महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं
नमस्कार करता हूँ॥2॥
* तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥3॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥3॥
भावार्थ:-जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं,
जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं
शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा
और गले में सर्प सुशोभित है॥3॥
* चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥
भावार्थ:-जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र
धारण किए और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥4॥
* प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥
भावार्थ:-प्रचण्ड (रुद्ररूप),
श्रेष्ठ,
तेजस्वी,
परमेश्वर,
अखण्ड, अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए,
भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥5॥
* कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥6॥
भावार्थ:-कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले
कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥6॥
* न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥
भावार्थ:-जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक
में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर
(हृदय
में) निवास
करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए॥7॥
* न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥8॥
भावार्थ:-मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो!
मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो!
बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी
की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर!
हे शम्भो!
मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥8॥
श्लोक :
* रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9॥
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9॥
भावार्थ:-भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो
मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥9॥
गुरुजी का शिवजी से अपराध
क्षमापन, शापानुग्रह
और काकभुशुण्डि की आगे की कथा
दोहा :
* सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥108 क॥
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु॥108 क॥
भावार्थ:-सर्वज्ञ शिवजी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा। तब मंदिर में
आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ!
वर माँगो॥108
(क)॥
* जौं प्रसन्न प्रभो मो पर नाथ दीन पर नेहु।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥108 ख॥
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु॥108 ख॥
भावार्थ:-(ब्राह्मण ने कहा-) हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे नाथ! यदि इस दीन पर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों
की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिए॥108 (ख)॥
* तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥108 ग॥
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥108 ग॥
भावार्थ:-हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है। हे कृपा के समुद्र
भगवान्! उस पर क्रोध न कीजिए॥108 (ग)॥
* संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥108 घ॥
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल॥108 घ॥
भावार्थ:-हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा कीजिए),
जिससे हे नाथ!
थोड़े ही समय में इस पर शाप के बाद अनुग्रह (शाप
से मुक्ति) हो जाए॥108 (घ)॥
चौपाई :
* एहि कर होइ परम कल्याना। सोइ करहु अब कृपानिधाना॥
बिप्र गिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥1॥
बिप्र गिरा सुनि परहित सानी। एवमस्तु इति भइ नभबानी॥1॥
भावार्थ:-हे कृपानिधान! अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो। दूसरे के हित
से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई-
'एवमस्तु' (ऐसा ही हो)॥1॥
* जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥2॥
तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥2॥
भावार्थ:-यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी
साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा॥2॥
* छमासील जे पर उपकारी। ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥3॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि। जन्म सहस अवस्य यह पाइहि॥3॥
भावार्थ:-हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्री
रामचंद्रजी। हे द्विज! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा। यह हजार जन्म अवश्य पाएगा॥3॥
* जनमत मरत दुसह दुख होई। एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥4॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना। सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना॥4॥
भावार्थ:-परंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी
भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। हे शूद्र! मेरा प्रामाणिक (सत्य) वचन
सुन॥4॥
* रघुपति पुरीं जन्म तव भयऊ। पुनि मैं मम सेवाँ मन दयऊ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥5॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें। राम भगति उपजिहि उर तोरें॥5॥
भावार्थ:-(प्रथम तो) तेरा जन्म श्री रघुनाथजी की पुरी में हुआ। फिर
तूने मेरी सेवा में मन
लगाया। पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में
रामभक्ति उत्पन्न होगी॥5॥
* सुनु मम बचन सत्य अब भाई। हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥6॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥6॥
भावार्थ:-हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन। द्विजों की सेवा ही भगवान् को प्रसन्न करने वाला व्रत है।
अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना। संतों को अनंत श्री भगवान् ही के समान जानना॥6॥
* इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला। कालदंड हरि चक्र कराला॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥7॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई। बिप्र द्रोह पावक सो जरई॥7॥
भावार्थ:-इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्री हरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोह
रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है॥7॥
* अस बिबेक राखेहु मन माहीं। तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥8॥
औरउ एक आसिषा मोरी। अप्रतिहत गति होइहि तोरी॥8॥
भावार्थ:-ऐसा विवेक मन में रखना। फिर तुम्हारे लिए जगत् में कुछ भी दुर्लभ न होगा। मेरा एक और भी आशीर्वाद
है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी (अर्थात् तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोक
के जा सकोगे)॥8॥
दोहा :
* सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥109 क॥
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि॥109 क॥
भावार्थ:-(आकाशवाणी के द्वारा) शिवजी के वचन सुनकर गुरुजी हर्षित होकर 'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और
शिवजी के चरणों को हृदय में रखकर अपने घर गए॥109 (क)॥
* प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल॥109 ख॥
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल॥109 ख॥
भावार्थ:-काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ। फिर कुछ काल बीतने पर बिना ही परिश्रम
(कष्ट) के
मैंने वह शरीर त्याग दिया।109
(ख)॥
* जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥109 ग॥
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान॥109 ग॥
भावार्थ:-हे हरिवाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम
वैसे ही सुखपूर्वक त्याग
देता था,
जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता
है॥109 (ग)॥
* सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस।
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस॥109 घ॥
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस॥109 घ॥
भावार्थ:-शिवजी ने वेद की मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया। इस प्रकार हे पक्षीराज! मैंने
बहुत से शरीर धारण किए, पर मेरा ज्ञान नहीं गया॥109
(घ)॥
चौपाई :
* त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥1॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ। गुर कर कोमल सील सुभाऊ॥1॥
भावार्थ:-तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी),
देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ
(उस-उस शरीर
में) मैं
श्री रामजी का भजन जारी रखता। (इस प्रकार मैं सुखी हो गया),
परंतु एक शूल मुझे बना रहा। गुरुजी का कोमल, सुशील स्वभाव मुझे
कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसे कोमल स्वभाव दयालु गुरु का अपमान किया, यह दुःख मुझे
सदा बना रहा)॥1॥
* चरम देह द्विज कै मैं पाई। सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥2॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला। करउँ सकल रघुनायक लीला॥2॥
भावार्थ:-मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं। मैं वहाँ (ब्राह्मण
शरीर में) भी बालकों में मिलकर खेलता तो श्री रघुनाथजी की ही सब लीलाएँ
किया करता॥2॥
* प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा। समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥3॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥3॥
भावार्थ:-सयाना होने पर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे। मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं
लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गईं। केवल श्री रामजी के चरणों में
लव लग गई॥3॥
* कहु खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥4॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई॥4॥
भावार्थ:-हे गरुड़जी! कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गदही
की सेवा करेगा? प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता। पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर
हार गए॥4॥
* भय कालबस जब पितु माता। मैं बन गयउँ भजन जनत्राता॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥5॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ। आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ॥5॥
भावार्थ:-जब पिता-माता कालवश हो गए (मर गए),
तब मैं भक्तों की रक्षा करने वाले श्री रामजी का भजन करने
के लिए वन में चला गया। वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों के आश्रम पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता॥5॥
* बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा। कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥6॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा। अब्याहत गति संभु प्रसादा॥6॥
भावार्थ:-हे गरुड़जी ! उनसे मैं श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछता।
वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता। इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्री हरि के गुणानुवाद सुनता फिरता।
शिवजी की कृपा से मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात् मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता
था)॥6॥
* छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी॥
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥7॥
राम चरन बारिज जब देखौं। तब निज जन्म सफल करि लेखौं॥7॥
भावार्थ:-मेरी तीनों प्रकार की (पुत्र की, धन की और मान की) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गईं और हृदय में एक यही लालसा अत्यंत बढ़ गई कि जब
श्री रामजी के चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ॥7॥
* जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥8॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई। सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई॥8॥
भावार्थ:-जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है। यह निर्गुण मत मुझे नहीं
सुहाता था। हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही थी॥8॥
काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के
पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पाना
दोहा :
* गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110 क॥
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110 क॥
भावार्थ:-गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण
नया-नया
प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता फिरता था॥110 (क)॥
* मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110 ख॥
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110 ख॥
भावार्थ:-सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों
में सिर नवाया और अत्यंत दीन वचन कहे॥110 (ख)॥
* सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥110 ग॥
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज॥110 ग॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! मेरे अत्यंत नम्र और कोमल वचन सुनकर कृपालु
मुनि मुझसे आदर के साथ पूछने लगे- हे ब्राह्मण! आप किस कार्य से यहाँ आए हैं॥110 (ग)॥
* तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥110 घ॥
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान॥110 घ॥
भावार्थ:-तब मैंने कहा- हे कृपा निधि! आप सर्वज्ञ हैं और सुजान हैं। हे भगवान् मुझे सगुण ब्रह्म की आराधना (की
प्रक्रिया) कहिए। 110 (घ)॥
चौपाई :
* तब मुनीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥1॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानी। मोहि परम अधिकारी जानी॥1॥
भावार्थ:-तब हे पक्षीराज! मुनीश्वर ने श्री रघुनाथजी के गुणों की कुछ कथाएँ आदर सहित कहीं। फिर
वे ब्रह्मज्ञान परायण विज्ञानवान् मुनि मुझे परम अधिकारी जानकर-॥1॥
* लागे करन ब्रह्म उपदेसा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा॥
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥2॥
अकल अनीह अनाम अरूपा। अनुभव गम्य अखंड अनूपा॥2॥
भावार्थ:-ब्रह्म का उपदेश करने लगे कि वह अजन्मा है, अद्वैत है, निर्गुण है और हृदय का स्वामी (अंतर्यामी) है।
उसे कोई बुद्धि के द्वारा माप नहीं सकता, वह इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव से जानने योग्य, अखण्ड और उपमारहित
है॥2॥
* मन गोतीत अमल अबिनासी। निर्बिकार निरवधि सुख रासी॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा। बारि बीचि इव गावहिं बेदा॥3॥
भावार्थ:-वह मन और इंद्रियों से परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित और सुख की राशि है। वेद ऐसा गाते हैं कि वही तू है, (तत्वमसि), जल और जल की लहर की भाँति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है॥3॥
* बिबिधि भाँति मोहि मुनि समुझावा। निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा। सगुन उपासन कहहु मुनीसा॥4॥
भावार्थ:-मुनि ने मुझे अनेकों प्रकार से समझाया, पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं बैठा। मैंने फिर मुनि के चरणों में
सिर नवाकर कहा- हे मुनीश्वर! मुझे सगुण ब्रह्म की
उपासना कहिए॥4॥
* राम भगति जल मम मन मीना। किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया। निज नयनन्हि देखौं रघुराया॥5॥
भावार्थ:-मेरा मन रामभक्ति रूपी जल में मछली हो रहा है (उसी में रम रहा है)। हे चतुर मुनीश्वर ऐसी दशा
में वह उससे अलग कैसे हो सकता है?
आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) कहिए
जिससे मैं श्री रघुनाथजी को अपनी आँखों से देख सकूँ॥5॥
* भरि लोचन बिलोकि अवधेसा। तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा। खंडि सगुन मत अगुन निरूपा॥6॥
भावार्थ:-(पहले) नेत्र भरकर श्री अयोध्यानाथ को देखकर, तब निर्गुण का उपदेश सुनूँगा। मुनि ने फिर अनुपम
हरिकथा कहकर, सगुण मत का खण्डन करके निर्गुण का निरूपण किया॥6॥
* तब मैं निर्गुन मत कर दूरी। सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा। मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा॥7॥
भावार्थ:-तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रत्युत्तर
किया, इससे
मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गए॥7॥
* सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ। उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ॥
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥8॥
अति संघरषन जौं कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई॥8॥
भावार्थ:-हे प्रभो! सुनिए, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में
क्रोध उत्पन्न हो जाता
है। यदि कोई चंदन की लकड़ी को बहुत अधिक रग़ड़े, तो उससे भी अग्नि
प्रकट हो जाएगी॥8॥
दोहा :
*बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥111 क॥
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिधि अनुमान॥111 क॥
भावार्थ:-मुनि बार-बार क्रोध सहित ज्ञान का निरूपण करने लगे। तब मैं बैठा-बैठा अपने मन में अनेकों प्रकार के अनुमान करने
लगा॥111 (क)॥
*क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥111 ख॥॥2॥
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥111 ख॥॥2॥
भावार्थ:-बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने
वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?॥111 (ख)॥
* कबहुँ कि दुःख सब कर हित ताकें। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें॥
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥1॥
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका॥1॥
भावार्थ:-सबका हित चाहने से क्या कभी दुःख हो सकता है?
जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है? दूसरे से द्रोह करने
वाले क्या निर्भय हो सकते हैं और कामी क्या कलंकरहित (बेदाग) रह सकते हैं?॥1॥
* बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें। कर्म की होहिं स्वरूपहि चीन्हें॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥2॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी॥2॥
भावार्थ:-ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? स्वरूप की पहिचान (आत्मज्ञान) होने पर क्या (आसक्तिपूर्वक) कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के संग से
क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है?॥2॥
* भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें॥3॥
भावार्थ:-परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मरण (के चक्कर) में पड़ सकते हैं? भगवान् की निंदा करने वाले कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? श्री हरि के चरित्र
वर्णन करने पर क्या पाप रह सकते हैं?॥3॥
* पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥4॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना॥4॥
भावार्थ:-बिना पुण्य के क्या पवित्र यश (प्राप्त) हो सकता है? बिना पाप के भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं और उस हरि भक्ति
के समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है?॥4॥
* हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥5॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना॥5॥
भावार्थ:-हे भाई! जगत् में
क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्री रामजी
का भजन न किया जाए? चुगलखोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है? और हे गरुड़जी! दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है?॥5॥
* एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेस न सादर सुनउँ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥6॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा। तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा॥6॥
भावार्थ:-इस प्रकार मैं अनगिनत युक्तियाँ मन में विचारता था और आदर के साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता
था। जब मैंने बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया, तब मुनि क्रोधयुक्त वचन बोले- ॥6॥
* मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि। उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥7॥
सत्य बचन बिस्वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥7॥
भावार्थ:-अरे मूढ़! मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूँ, तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत से उत्तर-प्रत्युत्तर
(दलीलें) लाकर
रखता है। मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता। कौए की भाँति सभी से डरता है॥7॥
* सठ स्वपच्छ तव हृदयँ बिसाला। सपदि होहि पच्छी चंडाला॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥8॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई। नहिं कछु भय न दीनता आई॥8॥
भावार्थ:-अरे मूर्ख! तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है, अतः तू शीघ्र
चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। मैंने आनंद के साथ मुनि के शाप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे
न कुछ भय हुआ, न दीनता ही आई॥8॥
दोहा :
* तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥112 क॥
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ॥112 क॥
भावार्थ:-तब मैं तुरंत ही कौआ हो गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी
का स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला॥112 (क)॥
* उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥112 ख॥
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥112 ख॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जो श्री रामजी के चरणों के प्रेमी हैं और काम, अभिमान तथा क्रोध से रहित हैं, वे जगत् को अपने
प्रभु से भरा हुआ देखते हैं, फिर वे किससे वैर करें॥112 (ख)॥
चौपाई :
* सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन। उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥1॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी। लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी॥1॥
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी ने कहा-)
हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, इसमें ऋषि का कुछ भी दोष नहीं था। रघुवंश
के विभूषण श्री रामजी ही सबके हृदय में प्रेरणा करने वाले हैं। कृपा सागर
प्रभु ने मुनि की बुद्धि को भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली॥1॥
* मन बच क्रम मोहि निज जन जाना। मुनि मति पुनि फेरी भगवाना॥
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥2॥
रिषि मम महत सीलता देखी। राम चरन बिस्वास बिसेषी॥2॥
भावार्थ:-मन, वचन
और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना दास जान लिया, तब भगवान् ने मुनि की बुद्धि फिर
पलट दी। ऋषि ने मेरा महान् पुरुषों का सा स्वभाव (धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) और श्री रामजी के चरणों में विशेष विश्वास देखा,॥2॥
* अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई। सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई॥
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥3॥
मम परितोष बिबिधि बिधि कीन्हा। हरषित राममंत्र तब दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-तब मुनि ने बहुत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेकों प्रकार से
मेरा संतोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राममंत्र दिया॥3॥
* बालकरूप राम कर ध्याना। कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥4॥
सुंदर सुखद मोहि अति भावा। सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा॥4॥
भावार्थ:-कृपानिधान मुनि ने मुझे बालक रूप श्री रामजी का ध्यान (ध्यान की विधि) बतलाया। सुंदर और सुख देने वाला यह
ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वह ध्यान मैं आपको पहले ही सुना चुका हूँ॥4॥
* मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा। रामचरितमानस तब भाषा॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥5॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई। पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई॥5॥
भावार्थ:-मुनि ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उन्होंने रामचरित मानस वर्णन किया। आदरपूर्वक मुझे यह
कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुंदर वाणी बोले-॥5॥
* रामचरित सर गुप्त सुहावा। संभु प्रसाद तात मैं पावा॥
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥6॥
तोहि निज भगत राम कर जानी। ताते मैं सब कहेउँ बखानी॥6॥
भावार्थ:-हे तात! यह सुंदर और गुप्त रामचरित मानस मैंने शिवजी की कृपा से पाया था। तुम्हें श्री रामजी
का 'निज
भक्त' जाना, इसी से मैंने तुमसे
सब चरित्र विस्तार के साथ कहा॥6॥
* राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं॥
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥7॥
मुनि मोहि बिबिधि भाँति समुझावा। मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा॥7॥
भावार्थ:-हे तात! जिनके हृदय में श्री रामजी की भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए।
मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया। तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों
में सिर नवाया॥7॥
* निज कर कमल परसि मम सीसा। हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा॥
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥8॥
राम भगति अबिरल उर तोरें। बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें॥8॥
भावार्थ:-मुनीश्वर ने अपने करकमलों से मेरा सिर स्पर्श करके हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी
कृपा से तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम भक्ति बसेगी॥8॥
दोहा :
* सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान॥113 क॥
कामरूप इच्छामरन ग्यान बिराग निधान॥113 क॥
भावार्थ:-तुम सदा श्री रामजी को प्रिय होओ और कल्याण रूप गुणों के धाम, मानरहित, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, इच्छा मृत्यु (जिसकी
शरीर छोड़ने की इच्छा करने पर ही मृत्यु हो, बिना इच्छा के मृत्यु न हो) एवं
ज्ञान और वैराग्य के भण्डार होओ॥113 (क)॥
* जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥113 ख॥
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत॥113 ख॥
भावार्थ:-इतना ही नहीं, श्री भगवान् को स्मरण करते हुए तुम जिस आश्रम में निवास करोगे वहाँ एक योजन
(चार
कोस) तक
अविद्या (माया मोह) नहीं व्यापेगी॥113 (ख)॥
चौपाई :
* काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥1॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना॥1॥
भावार्थ:-काल, कर्म, गुण, दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों
प्रकार के सुंदर श्री रामजी के रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण), जो इतिहास और पुराणों में गुप्त और प्रकट हैं। (वर्णित और लक्षित हैं)॥1॥
* बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥2॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं॥2॥
भावार्थ:-तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम जान जाओगे। श्री रामजी के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम
हो। अपने मन में तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्री हरि की कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी
दुर्लभ नहीं होगी॥2॥।
* सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥3॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी॥3॥
भावार्थ:-हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनिए, मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में गंभीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे
ज्ञानी मुनि! तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है॥3॥
* सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥4॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई॥4॥
भावार्थ:-आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा।
तदनन्तर मुनि की विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर- ॥4॥
* हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥5॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा॥5॥
भावार्थ:-मैं हर्ष सहित इस आश्रम में आया। प्रभु श्री रामजी की कृपा से मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे
पक्षीराज! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गए॥5॥
* करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥6॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा॥6॥
भावार्थ:-मैं यहाँ सदा श्री रघुनाथजी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते
हैं। अयोध्यापुरी में जब-जब श्री रघुवीर भक्तों के (हित के) लिए मनुष्य शरीर धारण करते हैं,॥6॥
* तब तब जाइ राम पुर रहऊँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥7॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा॥7॥
भावार्थ:-तब-तब मैं जाकर श्री रामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की शिशुलीला देखकर सुख प्राप्त करता
हूँ। फिर हे पक्षीराज! श्री रामजी के शिशु रूप को हृदय में रखकर मैं अपने आश्रम में आ
जाता हूँ॥7॥
* कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देहि जेहिं कारन पाई॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥8॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी॥8॥
भावार्थ:-जिस कारण से मैंने कौए की देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर
कहे। अहा! रामभक्ति की बड़ी भारी महिमा है॥8॥
दोहा :
* ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥114 क॥
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह॥114 क॥
भावार्थ:-मुझे अपना यह काक शरीर इसीलिए प्रिय है कि इसमें मुझे श्री रामजी के चरणों का प्रेम प्राप्त
हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब संदेह जाते
रहे (दूर
हुए)॥114 (क)॥
मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम
मासपारायण, उनतीसवाँ विश्राम
Om Tat Sat
(Continued...)
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