गोस्वामी तुलसीदासजी
वर्षा ऋतु वर्णन
दोहा :
* प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥12॥
राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥12॥
भावार्थ:-देवताओं ने पहले
से ही उस पर्वत की एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था। उन्होंने सोच रखा था कि कृपा की
खान श्री रामजी कुछ दिन यहाँ आकर निवास करेंगे॥12॥
चौपाई :
* सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥
भावार्थ:-सुंदर वन फूला हुआ
अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब
से प्रभु आए, तब से वन में सुंदर कन्द, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई॥1॥
* देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥2॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥2॥
भावार्थ:-मनोहर और अनुपम पर्वत
को देखकर देवताओं के सम्राट् श्री रामजी छोटे भाई सहित वहाँ रह गए। देवता, सिद्ध और मुनि
भौंरों, पक्षियों
और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे॥2॥
* मंगलरूप भयउ बन तब ते। कीन्ह निवास रमापति जब ते॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥3॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥3॥
भावार्थ:-जब से रमापति श्री
रामजी ने वहाँ निवास किया तब से वन मंगलस्वरूप हो गया। सुंदर स्फटिक मणि
की एक अत्यंत उज्ज्वल शिला है,
उस पर दोनों भाई सुखपूर्वक विराजमान हैं॥3॥
* कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥4॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥4॥
भावार्थ:-श्री राम छोटे भाई
लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए
बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥4॥
दोहा :
* लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥13॥
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥13॥
भावार्थ:-(श्री
रामजी कहने लगे-)
हे लक्ष्मण!
देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में
अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥13॥
चौपाई :
* घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥
भावार्थ:-आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर
घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर
रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की
प्रीति स्थिर नहीं रहती॥1॥
* बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
भावार्थ:-बादल पृथ्वी के समीप
आकर (नीचे
उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे
सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥2॥
* छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥3॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥3॥
भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर
(किनारों
को) तुड़ाती
हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)।
पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥3॥
* समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥
भावार्थ:-जल एकत्र हो-होकर
तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री
हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है॥4॥
दोहा :
* हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥14॥
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥14॥
भावार्थ:-पृथ्वी घास से परिपूर्ण
होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड मत के प्रचार से
सद्ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं॥14॥
चौपाई :
* दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥
भावार्थ:-चारों दिशाओं में
मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद
पढ़ रहे हों। अनेकों वृक्षों में नए पत्ते आ गए हैं, जिससे वे ऐसे हरे-भरे
एवं सुशोभित हो गए हैं जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है॥1॥
* अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥2॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥2॥
भावार्थ:-मदार और जवासा बिना
पत्ते के हो गए (उनके पत्ते झड़ गए)। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उद्यम जाता रहा (उनकी एक भी नहीं चलती)। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध धर्म को
दूर कर देता है। (अर्थात् क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता)॥2॥
* ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥3॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥3॥
भावार्थ:-अन्न से युक्त (लहराती हुई खेती से
हरी-भरी) पृथ्वी
कैसी शोभित हो रही है, जैसी उपकारी पुरुष की संपत्ति। रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों
का समाज आ जुटा हो॥3॥
* महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना॥4॥
भावार्थ:-भारी वर्षा से खेतों
की क्यारियाँ फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निरा रहे
हैं (उनमें
से घास आदि को निकालकर
फेंक रहे हैं।) जैसे विद्वान् लोग मोह, मद और मान का त्याग
कर देते हैं॥4॥
* देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा॥5॥
भावार्थ:-चक्रवाक पक्षी दिखाई
नहीं दे रहे हैं, जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होती है, पर वहाँ घास तक नहीं
उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता॥5॥
* बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥6॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना॥6॥
भावार्थ:-पृथ्वी अनेक तरह
के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि
होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर
इंद्रियाँ (शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं)॥6॥
दोहा :
* कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥15 क॥
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥15 क॥
भावार्थ:-कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने
लगती है, जिससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ
आचरण) नष्ट
हो जाते हैं॥15 (क)॥
* कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥15ख॥
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥15ख॥
भावार्थ:-कभी (बादलों के कारण) दिन
में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे कुसंग पाकर
ज्ञान नष्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है॥15 (ख)॥
शरद ऋतु वर्णन
चौपाई :
* बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
भावार्थ:-हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी
छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में)
अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
* उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥
भावार्थ:-अगस्त्य के तारे
ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों
और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित
संतों का हृदय!॥2॥
* रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
भावार्थ:-नदी और तालाबों का
जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग
करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर
सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥3॥
* पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥
भावार्थ:-न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल
होकर) ऐसी
शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही
हैं, जैसे
मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥
* बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
भावार्थ:-बिना बादलों का निर्मल
आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं।
कहीं-कहीं
(विरले
ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
दोहा :
* चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
भावार्थ:-(शरद्
ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार
और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारों
आश्रम वाले (नाना प्रकार के साधन रूपी)
श्रमों को त्याग देते हैं॥16॥
चौपाई :
* सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
भावार्थ:-जो मछलियाँ अथाह
जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती।
कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता
है॥1॥
* गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥2॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥2॥
भावार्थ:-भौंरे अनुपम शब्द
करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे
हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की
संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है॥2॥
* चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥3॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥3॥
भावार्थ:-पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का
द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन
से पाप दूर हो जाते हैं॥3॥
* देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
भावार्थ:-चकोरों के समुदाय
चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को
पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे
ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥
दोहा :
* भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥
भावार्थ:-(वर्षा
ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे,
वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे
सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥17॥
श्री राम की सुग्रीव पर
नाराजी, लक्ष्मणजी
का कोप
चौपाई :
* बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥
भावार्थ:-वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता
की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में
जानकी को ले आऊँ॥1॥
* कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥
भावार्थ:-कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे
तात! यत्न
करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी
मेरी सुध भुला दी॥2॥
* जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥3॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥3॥
भावार्थ:-जिस बाण से मैंने
बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूँ!
(शिवजी कहते हैं-) हे
उमा! जिनकी
कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं उनको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है? (यह तो लीला मात्र है)॥3॥
* जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥4॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥4॥
भावार्थ:-ज्ञानी मुनि जिन्होंने
श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीला
रहस्य) को जानते हैं। लक्ष्मणजी ने जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर
बाण हाथ में ले लिए॥4॥
दोहा :
* तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥18॥
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥18॥
भावार्थ:-तब दया की सीमा श्री
रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर ले
आओ (उसे
मारने की बात नहीं है)॥18॥
चौपाई :
* इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा॥1॥
भावार्थ:-यहाँ (किष्किन्धा नगरी में) पवनकुमार
श्री हनुमान्जी ने विचार किया कि सुग्रीव ने श्री रामजी के कार्य को भुला दिया।
उन्होंने सुग्रीव के पास जाकर चरणों में सिर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चारों प्रकार की नीति कहकर उन्हें समझाया॥1॥
* सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥
अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा॥2॥
भावार्थ:- हनुमान्जी के वचन सुनकर सुग्रीव ने बहुत ही भय माना। (और कहा-) विषयों ने मेरे ज्ञान को हर
लिया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानरों के यूथ रहते हैं,
वहाँ दूतों के समूहों को भेजो॥2॥
* कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई॥
तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥3॥
तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता॥3॥
भावार्थ:-और कहला दो कि एक
पखवाड़े में (पंद्रह दिनों में) जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथों वध होगा। तब हनुमान्जी ने दूतों को बुलाया और सबका बहुत
सम्मान करके-॥3॥
* भय अरु प्रीति नीति देखराई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥4॥
एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए॥4॥
भावार्थ:-सबको भय, प्रीति और नीति
दिखलाई। सब बंदर चरणों में सिर नवाकर चले। इसी समय लक्ष्मणजी नगर में
आए। उनका क्रोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे॥4॥
दोहा :
* धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार।
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥19॥
ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार॥19॥
भावार्थ:-तदनन्तर लक्ष्मणजी
ने धनुष चढ़ाकर कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूँगा। तब नगरभर को
व्याकुल देखकर बालिपुत्र अंगदजी उनके पास आए॥19॥
चौपाई :
* चर नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥
क्रोधवंत लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना॥1॥
भावार्थ:-अंगद ने उनके चरणों
में सिर नवाकर विनती की (क्षमा-याचना की) तब लक्ष्मणजी ने उनको अभय बाँह दी (भुजा उठाकर कहा कि डरो मत)। सुग्रीव ने अपने कानों से लक्ष्मणजी को
क्रोधयुक्त सुनकर भय से अत्यंत व्याकुल होकर कहा-॥1॥
* सुनु हनुमंत संग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥2॥
तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना॥2॥
भावार्थ:-हे हनुमान् सुनो, तुम तारा को साथ ले
जाकर विनती करके राजकुमार को समझाओ (समझा-बुझाकर शांत करो)। हनुमान्जी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की वंदना की और
प्रभु के सुंदर यश का बखान किया॥2॥
* करि बिनती मंदिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥3॥
तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥3॥
भावार्थ:-वे विनती करके उन्हें
महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलँग पर बैठाया। तब वानरराज सुग्रीव
ने उनके चरणों में सिर नवाया और लक्ष्मणजी ने हाथ पकड़कर उनको गले से
लगा लिया॥3॥
* नाथ विषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करइ छन माहीं।
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥4॥
सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा॥4॥
भावार्थ:-(सुग्रीव
ने कहा-) हे नाथ! विषय के समान और कोई मद नहीं है। यह मुनियों के मन में भी क्षणमात्र
में मोह उत्पन्न कर देता है (फिर मैं तो विषयी जीव ही ठहरा)। सुग्रीव के विनययुक्त वचन सुनकर लक्ष्मणजी ने सुख पाया और उनको बहुत प्रकार से
समझाया॥4॥
* पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गए दूत समुदाई॥5॥
भावार्थ:-तब पवनसुत हनुमान्जी ने
जिस प्रकार सब दिशाओं में दूतों के समूह गए थे वह सब हाल सुनाया॥5॥
सुग्रीव-राम संवाद और सीताजी की खोज के लिए बंदरों का
प्रस्थान
दोहा :
* हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि कपि साथ।
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥20॥
रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥20॥
भावार्थ:-तब अंगद आदि वानरों
को साथ लेकर और श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात् उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव
हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आए॥20॥
चौपाई :
* नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥
अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥
अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के
चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नहीं है। हे देव! आपकी
माया अत्यंत ही प्रबल है। आप जब दया करते हैं, हे राम! तभी यह छूटती है॥1॥
* बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी॥ मैं पावँर पसु कपि अति कामी॥
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा॥2॥
नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा॥2॥
भावार्थ:-हे स्वामी! देवता, मनुष्य और मुनि सभी विषयों के वश में हैं। फिर मैं तो पामर पशु और पशुओं
में भी अत्यंत कामी बंदर हूँ। स्त्री का नयन बाण जिसको नहीं लगा, जो भयंकर
क्रोध रूपी अँधेरी रात में भी जागता रहता है (क्रोधान्ध नहीं होता)॥2॥
* लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
भावार्थ:-और लोभ की फाँसी
से जिसने अपना गला नहीं बँधाया,
हे रघुनाथजी!
वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त
होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥
* तब रघुपति बोले मुसुकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई॥
अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥4॥
अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥4॥
भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी
मुस्कुराकर बोले- हे भाई! तुम मुझे भरत के समान प्यारे हो। अब मन लगाकर वही उपाय करो जिस उपाय से सीता की
खबर मिले॥4॥
दोहा :
* एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ।
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरूथ॥21॥
नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरूथ॥21॥
भावार्थ:-इस प्रकार बातचीत हो रही थी
कि वानरों के यूथ (झुंड) आ गए। अनेक रंगों के वानरों के दल सब दिशाओं में दिखाई देने लगे॥21॥
चौपाई :
* बानर कटक उमा मैं देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा॥
आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥1॥
आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा॥1॥
भावार्थ:-(शिवजी
कहते हैं-) हे उमा! वानरों की वह सेना मैंने देखी थी। उसकी जो गिनती करना चाहे वह
महान् मूर्ख है। सब वानर आ-आकर श्री रामजी के चरणों में मस्तक नवाते हैं और (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) श्रीमुख
के दर्शन करके कृतार्थ होते हैं॥1॥
* अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीं॥
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई॥2॥
यह कछु नहिं प्रभु कइ अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई॥2॥
भावार्थ:-सेना में एक भी वानर
ऐसा नहीं था जिससे श्री रामजी ने कुशल न पूछी हो, प्रभु के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं
है, क्योंकि
श्री रघुनाथजी विश्वरूप तथा सर्वव्यापक हैं (सारे रूपों और सब स्थानों में हैं)॥2॥
* ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई॥
राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा॥3॥
राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ:-आज्ञा पाकर सब जहाँ-तहाँ
खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने सबको समझाकर कहा कि हे वानरों के समूहों! यह
श्री रामचंद्रजी का कार्य है और मेरा निहोरा (अनुरोध) है, तुम चारों ओर जाओ॥3॥
* जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई॥
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ॥4॥
अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवइ बनिहि सो मोहि मराएँ॥4॥
भावार्थ:-और जाकर जानकीजी
को खोजो। हे भाई! महीने भर में वापस आ जाना। जो (महीने भर की) अवधि बिताकर बिना पता लगाए ही लौट आएगा उसे मेरे द्वारा मरवाते ही बनेगा (अर्थात् मुझे उसका
वध करवाना ही पड़ेगा)॥4॥
दोहा :
* बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरंत।
तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत॥22॥
तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल हनुमंत॥22॥
भावार्थ:-सुग्रीव के वचन सुनते
ही सब वानर तुरंत जहाँ-तहाँ (भिन्न-भिन्न दिशाओं में) चल दिए। तब सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमान्
आदि प्रधान-प्रधान योद्धाओं को बुलाया (और कहा-)॥22॥
चौपाई :
* सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥
सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहू॥1॥
भावार्थ:-हे धीरबुद्धि और
चतुर नील, अंगद, जाम्बवान् और हनुमान! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का
पता पूछना॥1॥
* मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु सँवारेहु॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥
भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी॥2॥
भावार्थ:-मन, वचन तथा कर्म
से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्री रामचंद्रजी का कार्य संपन्न (सफल) करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से (सामने
से) सेवन करना चाहिए, परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए॥2॥
* तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव सोका॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥3॥
देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई॥3॥
भावार्थ:-माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के दिव्य धाम की प्राप्ति के
लिए भगवत्सेवा रूप साधन) करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएँ। हे भाई!
देह धारण करने का यही फल है कि सब कामों (कामनाओं) को
छोड़कर श्री रामजी का भजन ही किया जाए॥3॥
* सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥
आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई॥4॥
भावार्थ:-सद्गुणों को पहचानने
वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो श्री रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। आज्ञा
माँगकर और चरणों में फिर सिर नवाकर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए सब
हर्षित होकर चले॥4॥
* पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी॥5॥
भावार्थ:-सबके पीछे पवनसुत
श्री हनुमान्जी ने सिर नवाया। कार्य का विचार करके प्रभु ने उन्हें अपने
पास बुलाया। उन्होंने अपने करकमल से उनके सिर का स्पर्श किया तथा अपना
सेवक जानकर उन्हें अपने हाथ की अँगूठी उतारकर दी॥5॥
* बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥
हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना॥6॥
भावार्थ:-(और
कहा-) बहुत प्रकार
से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर तुम शीघ्र लौट आना। हनुमान्जी ने
अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण करके वे चले॥6॥
* जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता॥7॥
भावार्थ:-यद्यपि देवताओं की
रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं, तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे
हैं (नीति
की मर्यादा रखने के लिए सीताजी का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानरों को भेज रहे हैं)॥7॥
दोहा :
* चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह।
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह॥23॥
राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह॥23॥
भावार्थ:-सब वानर वन, नदी, तालाब, पर्वत और पर्वतों की
कन्दराओं में खोजते हुए चले जा रहे हैं। मन श्री रामजी के कार्य में लवलीन है।
शरीर तक का प्रेम (ममत्व) भूल गया है॥23॥
चौपाई :
* कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा॥
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥1॥
बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलइ ताहि सब घेरहिं॥1॥
भावार्थ:-कहीं किसी राक्षस
से भेंट हो जाती है, तो एक-एक चपत में ही उसके प्राण ले लेते हैं। पर्वतों और वनों को बहुत प्रकार से खोज
रहे हैं। कोई मुनि मिल जाता है तो पता पूछने के लिए उसे सब घेर लेते हैं॥1॥
गुफा में तपस्विनी के दर्शन, वानरों का समुद्र तट पर आना, सम्पाती से भेंट और बातचीत
* लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने॥
मन हनुमान् कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना॥2॥
मन हनुमान् कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना॥2॥
भावार्थ:-इतने में ही सबको
अत्यंत प्यास लगी, जिससे सब अत्यंत ही व्याकुल हो गए, किंतु जल कहीं नहीं मिला। घने जंगल
में सब भुला गए। हनुमान्जी ने मन में अनुमान किया कि जल पिए बिना सब लोग
मरना ही चाहते हैं॥2॥
* चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबर एक कौतुक पेखा॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं॥3॥
चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने पहाड़ की
चोटी पर चढ़कर चारों ओर देखा तो पृथ्वी के अंदर एक गुफा में उन्हें एक कौतुक
(आश्चर्य) दिखाई
दिया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे हैं और बहुत से पक्षी उसमें प्रवेश कर रहे हैं॥3॥
* गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥4॥
आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-पवन कुमार हनुमान्जी
पर्वत से उतर आए और सबको ले जाकर उन्होंने वह गुफा दिखलाई। सबने हनुमान्जी
को आगे कर लिया और वे गुफा में घुस गए, देर नहीं की॥4॥
दोहा :
* दीख जाइ उपबन बर सर बिगसित बहु कंज।
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥24॥
मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज॥24॥
भावार्थ:-अंदर जाकर उन्होंने
एक उत्तम उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, जिसमें बहुत से कमल खिले हुए हैं। वहीं एक सुंदर मंदिर है, जिसमें एक तपोमूर्ति
स्त्री बैठी है॥24॥
चौपाई :
* दूरि ते ताहि सबन्हि सिरु नावा। पूछें निज बृत्तांत सुनावा॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥1॥
तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुंदर फल नाना॥1॥
भावार्थ:-दूर से ही सबने उसे
सिर नवाया और पूछने पर अपना सब वृत्तांत कह सुनाया। तब उसने कहा- जलपान करो और भाँति-भाँति के रसीले सुंदर फल खाओ॥1॥
* मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥2॥
तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई॥2॥
भावार्थ:-(आज्ञा
पाकर) सबने स्नान किया, मीठे फल खाए और फिर सब उसके पास चले आए। तब उसने अपनी सब कथा कह सुनाई (और
कहा-) मैं
अब वहाँ जाऊँगी जहाँ श्री रघुनाथजी हैं॥2॥
* मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा॥3॥
नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़े सकल सिंधु कें तीरा॥3॥
भावार्थ:-तुम लोग आँखें मूँद
लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीताजी को पा जाओगे, पछताओ नहीं (निराश न होओ)।
आँखें मूँदकर फिर जब आँखें खोलीं तो सब वीर क्या देखते हैं कि सब समुद्र के तीर
पर खड़े हैं॥3॥
* सो पुनि गई जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्हीं। अनपायनी भगति प्रभु दीन्हीं॥4॥
नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्हीं। अनपायनी भगति प्रभु दीन्हीं॥4॥
भावार्थ:-और वह स्वयं वहाँ
गई जहाँ श्री रघुनाथजी थे। उसने जाकर प्रभु के चरण कमलों में मस्तक नवाया
और बहुत प्रकार से विनती की। प्रभु ने उसे अपनी अनपायिनी (अचल) भक्ति दी॥4॥
दोहा :
* बदरीबन कहुँ सो गई प्रभु अग्या धरि सीस।
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥25॥
उर धरि राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥25॥
भावार्थ:-प्रभु की आज्ञा सिर
पर धारण कर और श्री रामजी के युगल चरणों को, जिनकी ब्रह्मा और महेश भी वंदना करते हैं, हृदय में धारण कर वह
(स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम
को चली गई॥25॥
चौपाई :
* इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥
सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लएँ करब का भ्राता॥1॥
भावार्थ:-यहाँ वानरगण मन में
विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ न हुआ। सब मिलकर आपस में
बात करने लगे कि हे भाई! अब तो सीताजी की खबर लिए बिना लौटकर भी क्या करेंगे!॥1॥
* कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥2॥
इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गएँ मारिहि कपिराई॥2॥
भावार्थ:-अंगद ने नेत्रों
में जल भरकर कहा कि दोनों ही प्रकार से हमारी मृत्यु हुई। यहाँ तो सीताजी
की सुध नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज सुग्रीव मार डालेंगे॥2॥
* पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥3॥
पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं॥3॥
भावार्थ:-वे तो पिता के वध
होने पर ही मुझे मार डालते। श्री रामजी ने ही मेरी रक्षा की, इसमें सुग्रीव
का कोई एहसान नहीं है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे हैं कि अब मरण हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥3॥
* अंगद बचन सुन कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए॥4॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस बचन कहत सब भए॥4॥
भावार्थ:-वानर वीर अंगद के
वचन सुनते हैं, किंतु कुछ बोल नहीं सकते। उनके नेत्रों से जल बह रहा है। एक क्षण के लिए सब
सोच में मग्न हो रहे। फिर सब ऐसा वचन कहने लगे-॥4॥
* हम सीता कै सुधि लीन्हें बिना। नहिं जैहैं जुबराज प्रबीना॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥5॥
अस कहि लवन सिंधु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई॥5॥
भावार्थ:-हे सुयोग्य युवराज! हम
लोग सीताजी की खोज लिए बिना नहीं लौटेंगे। ऐसा कहकर लवणसागर के तट पर जाकर सब वानर
कुश बिछाकर बैठ गए॥5॥
* जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥6॥
तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु॥6॥
भावार्थ:-जाम्बवान् ने अंगद
का दुःख देखकर विशेष उपदेश की कथाएँ कहीं। (वे बोले-) हे तात! श्री रामजी को मनुष्य न मानो, उन्हें निर्गुण
ब्रह्म, अजेय
और अजन्मा समझो॥6॥
* हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी॥7॥
भावार्थ:-हम सब सेवक अत्यंत बड़भागी
हैं, जो
निरंतर सगुण ब्रह्म (श्री रामजी) में प्रीति रखते हैं॥7॥
दोहा :
* निज इच्छाँ प्रभु अवतरइ सुर मह गो िद्वज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥26॥
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि॥26॥
भावार्थ:-देवता, पृथ्वी, गो और ब्राह्मणों के
लिए प्रभु अपनी इच्छा से (किसी कर्मबंधन से नहीं) अवतार लेते हैं। वहाँ सगुणोपासक (भक्तगण
सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकार के मोक्षों को त्यागकर उनकी सेवा में साथ रहते हैं॥26॥
चौपाई :
* एहि बिधि कथा कहहिं बहु भाँती। गिरि कंदराँ सुनी संपाती॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥1॥
बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार जाम्बवान्
बहुत प्रकार से कथाएँ कह रहे हैं। इनकी बातें पर्वत की कन्दरा में
सम्पाती ने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे। (तब वह बोला-) जगदीश्वर
ने मुझको घर बैठे बहुत सा आहार भेज दिया!॥1॥
* आजु सबहि कहँ भच्छन करऊँ। दिन हबु चले अहार बिनु मरऊँ॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥2॥
कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा॥2॥
भावार्थ:-आज इन सबको खा जाऊँगा।
बहुत दिन बीत गए, भोजन के बिना मर रहा था। पेटभर भोजन कभी नहीं मिलता। आज विधाता ने
एक ही बार में बहुत सा भोजन दे दिया॥2॥
* डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी॥3॥
कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-गीध के वचन कानों
से सुनते ही सब डर गए कि अब सचमुच ही मरना हो गया। यह हमने जान लिया। फिर
उस गीध (सम्पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हुए। जाम्बवान् के मन में विशेष सोच हुआ॥3॥
* कह अंगद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं॥
राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥4॥
राम काज कारन तनु त्यागी। हरि पुर गयउ परम बड़भागी॥4॥
भावार्थ:-अंगद ने मन में विचार
कर कहा- अहा! जटायु के समान धन्य कोई नहीं है। श्री रामजी के कार्य के लिए शरीर छोड़कर
वह परम बड़भागी भगवान् के परमधाम को चला गया॥4॥
* सुनि खग हरष सोक जुत बानी। आवा निकट कपिन्ह भय मानी॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई॥5॥
तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई॥5॥
भावार्थ:-हर्ष और शोक से युक्त
वाणी (समाचार) सुनकर वह पक्षी (सम्पाती) वानरों के पास आया। वानर डर गए। उनको अभय करके (अभय वचन देकर) उसने पास जाकर जटायु का वृत्तांत पूछा, तब उन्होंने सारी
कथा उसे कह सुनाई॥5॥
* सुनि संपाति बंधु कै करनी। रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी॥6॥
भावार्थ:-भाई जटायु की करनी सुनकर
सम्पाती ने बहुत प्रकार से श्री रघुनाथजी की महिमा वर्णन की॥6॥
दोहा :
* मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि।
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥27॥
बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि॥27॥
भावार्थ:-(उसने
कहा-) मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूँ। इस सेवा के बदले
मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूँगा (अर्थात् सीताजी कहाँ हैं सो बतला दूँगा), जिसे तुम खोज रहे हो उसे पा
जाओगे॥27॥
चौपाई :
* अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥1॥
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई॥1॥
भावार्थ:-समुद्र के तीर पर
छोटे भाई जटायु की क्रिया (श्राद्ध आदि) करके सम्पाती अपनी कथा कहने लगा- हे वीर वानरों! सुनो, हम दोनों भाई उठती जवानी में एक बार आकाश में उड़कर
सूर्य के निकट चले गए॥1॥
* तेज न सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा॥
जरे पंख अति तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥2॥
जरे पंख अति तेज अपारा। परेउँ भूमि करि घोर चिकारा॥2॥
भावार्थ:-वह (जटायु) तेज नहीं सह सका, इससे लौट आया (किंतु), मैं अभिमानी था इसलिए सूर्य के पास चला गया। अत्यंत अपार तेज से मेरे पंख
जल गए। मैं बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर गिर पड़ा॥2॥
* मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखि करि मोही॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुड़ावा॥3॥
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छुड़ावा॥3॥
भावार्थ:-वहाँ चंद्रमा नाम
के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने बहुत प्रकार से
मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित (देह संबंधी) अभिमान को छुड़ा दिया॥3॥
* त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥4॥
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता॥4॥
भावार्थ:-(उन्होंने कहा-) त्रेतायुग
में साक्षात् परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करेंगे। उनकी स्त्री को राक्षसों
का राजा हर ले जाएगा। उसकी खोज में प्रभु दूत भेजेंगे। उनसे मिलने पर तू
पवित्र हो जाएगा॥4॥
* जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता। तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥5॥
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू। सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू॥5॥
भावार्थ:-और तेरे पंख उग आएँगे, चिंता न कर। उन्हें
तू सीताजी को दिखा देना। मुनि की वह वाणी आज सत्य हुई। अब मेरे
वचन सुनकर तुम प्रभु का कार्य करो॥5॥
* गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज असंका॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई॥6॥
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई॥6॥
भावार्थ:-त्रिकूट पर्वत पर
लंका बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का
उपवन (बगीचा) है, जहाँ
सीताजी रहती हैं। (इस समय भी) वे सोच में मग्न बैठी हैं॥6॥
समुद्र लाँघने का परामर्श, जाम्बवन्त का हनुमान्जी को बल याद दिलाकर
उत्साहित करना, श्री
राम-गुण का माहात्म्य
दोहा :
* मैं देखउँ तुम्ह नाहीं गीधहि दृष्टि अपार।
बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥28॥
बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार॥28॥
भावार्थ:-मैं उन्हें देख रहा
हूँ, तुम
नहीं देख सकते, क्योंकि गीध की दृष्टि अपार होती है (बहुत दूर तक जाती है)। क्या करूँ? मैं बूढ़ा हो गया, नहीं तो तुम्हारी
कुछ तो सहायता अवश्य करता॥28॥
चौपाई :
* जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मति आगर॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥1॥
भावार्थ:-जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिनिधान होगा, वही श्री रामजी का कार्य
कर सकेगा। (निराश होकर घबराओ मत) मुझे देखकर मन में धीरज धरो। देखो, श्री रामजी की कृपा से (देखते ही देखते) मेरा शरीर कैसा हो गया (बिना पाँख का बेहाल था, पाँख उगने से सुंदर
हो गया) !॥1॥
* पापिउ जाकर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥2॥
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई राम हृदयँ धरि करहु उपाई॥2॥
भावार्थ:-पापी भी जिनका नाम
स्मरण करके अत्यंत पार भवसागर से तर जाते हैं। तुम उनके दूत हो, अतः कायरता
छोड़कर श्री रामजी को हृदय में धारण करके उपाय करो॥2॥
* अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह के मन अति बिसमय भयऊ॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥3॥
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥3॥
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते
हैं-) हे
गरुड़जी! इस प्रकार कहकर जब गीध चला गया, तब उन (वानरों) के मन में अत्यंत विस्मय हुआ। सब किसी ने अपना-अपना
बल कहा। पर समुद्र के पार जाने में सभी ने संदेह प्रकट किया॥3॥
* जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥4॥
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी॥4॥
भावार्थ:-ऋक्षराज जाम्बवान्
कहने लगे- मैं बूढ़ा हो गया। शरीर में पहले वाले बल का लेश भी नहीं रहा। जब खरारि (खर
के शत्रु श्री राम) वामन बने थे, तब मैं जवान था और
मुझ में बड़ा बल था॥4॥
दोहा :
* बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाइ।
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥29॥
उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाइ॥29॥
भावार्थ:-बलि के बाँधते समय
प्रभु इतने बढ़े कि उस शरीर का वर्णन नहीं हो सकता, किंतु मैंने दो ही घड़ी में दौड़कर (उस
शरीर की) सात प्रदक्षिणाएँ कर लीं॥29॥
चौपाई :
* अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सबही कर नायक॥1॥
भावार्थ:-अंगद ने कहा- मैं पार तो चला जाऊँगा, परंतु लौटते समय के लिए हृदय में कुछ संदेह है। जाम्बवान् ने कहा- तुम
सब प्रकार से योग्य हो, परंतु तुम सबके नेता हो, तुम्हे कैसे भेजा जाए?॥1॥
* कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥
भावार्थ:-ऋक्षराज जाम्बवान्
ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान्! हे बलवान्! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक
और विज्ञान की खान हो॥2॥
* कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥3॥
भावार्थ:-जगत् में कौन सा
ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा
अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्जी पर्वत के आकार के (अत्यंत विशालकाय) हो
गए॥3॥
* कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥4॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा॥4॥
भावार्थ:-उनका सोने का सा
रंग है, शरीर
पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान्जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही
लाँघ सकता हूँ॥4॥
* सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥5॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥5॥
भावार्थ:- और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे
जाम्बवान्! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना (कि मुझे क्या करना चाहिए)॥5॥
* एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥6॥
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना॥6॥
भावार्थ:-(जाम्बवान्
ने कहा-) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर
कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से (ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे, केवल) खेल
के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे॥6॥
छंद :
* कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनि हैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥
जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानि हैं॥
जो सुनत गावत कहत समुक्षत परमपद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई॥
भावार्थ:-वानरों की सेना साथ
लेकर राक्षसों का संहार करके श्री रामजी सीताजी को ले आएँगे। तब देवता और
नारदादि मुनि भगवान् के तीनों लोकों को पवित्र करने वाले सुंदर यश का बखान
करेंगे, जिसे
सुनने, गाने, कहने और समझने से
मनुष्य परमपद पाते हैं और जिसे श्री रघुवीर के चरणकमल का मधुकर (भ्रमर) तुलसीदास
गाता है।
दोहा :
* भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥30 क॥
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि॥30 क॥
भावार्थ:-श्री रघुवीर का यश
भव (जन्म-मरण) रूपी
रोग की (अचूक) दवा है। जो पुरुष और स्त्री इसे सुनेंगे, त्रिशिरा के शत्रु श्री रामजी उनके सब मनोरथों
को सिद्ध करेंगे॥30 (क)॥
सोरठा :
* नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥30 ख॥
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक॥30 ख॥
भावार्थ:-जिनका नीले कमल के
समान श्याम शरीर है, जिनकी शोभा करोड़ों कामदेवों से भी अधिक है और जिनका नाम पापरूपी
पक्षियों को मारने के लिए बधिक (व्याधा) के समान है, उन श्री राम के गुणों के समूह (लीला) को अवश्य सुनना चाहिए॥30 (ख)॥
मासपरायण, तेईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ: सोपानः समाप्त :।
कलियुग के समस्त पापों के नाश करने वाले श्री रामचरित् मानस का यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।
(किष्किंधाकांड समाप्त)
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ: सोपानः समाप्त :।
कलियुग के समस्त पापों के नाश करने वाले श्री रामचरित् मानस का यह चौथा सोपान समाप्त हुआ।
(किष्किंधाकांड समाप्त)
Om Tat Sat
(End of Kishkinda Kanda)
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