गोस्वामी तुलसीदासजी
काकभुशुण्डि का अपनी पूर्व
जन्म कथा और कलि महिमा कहना
चौपाई :
* सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई।।
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥1॥
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥1॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रघुनाथजी की प्रभुता सुनिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी
कथा कहता हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥1॥
* राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥
ताते नहिं कछु तुम्हहि दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥2॥
ताते नहिं कछु तुम्हहि दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥2॥
भावार्थ:-हे तात! आप श्री रामजी के कृपा पात्र हैं। श्री हरि के गुणों में आपकी प्रीति है, इसीलिए आप मुझे सुख
देने वाले हैं। इसी से मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाता और अत्यंत रहस्य की
बातें आपको गाकर सुनाता हूँ॥2॥
*सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥3॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी का सहज स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देते, क्योंकि अभिमान जन्म-मरण
रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का
देने वाला है॥3॥
* ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥
जिमि सिसु तन ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥4॥
जिमि सिसु तन ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥4॥
भावार्थ:-इसीलिए कृपानिधि उसे दूर कर देते हैं, क्योंकि सेवक पर उनकी बहुत ही अधिक ममता है। हे
गोसाईं! जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हदय की भाँति चिरा
डालती है॥4॥
दोहा :
* जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ 74 क॥
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ 74 क॥
भावार्थ:-यद्यपि बच्चा पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग के नाश के लिए माता
बच्चे की उस पीड़ा को कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवाह नहीं करती और फोड़े को
चिरवा ही डालती है)॥ 74 (क)॥
*तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ 74 ख॥
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ 74 ख॥
भावार्थ:-उसी प्रकार श्री रघुनाथजी अपने दास का अभिमान उसके हित के लिए हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते
हैं कि ऐसे प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥ 74 (ख)॥
चौपाई :
* राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1॥
भावार्थ:-हे हे गरुड़जी! श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की
बात कहता हूँ, मन लगाकर सुनिए। जब-जब श्री रामचंद्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत
सी लीलाएँ करते हैं॥1॥
* तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2॥
भावार्थ:-तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं
जन्म महोत्सव देखता हूँ और (भगवान् की शिशु लीला में)
लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ॥2॥
* इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3॥
भावार्थ:-बालक रूप श्री रामचंद्रजी मेरे इष्टदेव हैं,
जिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे
गरुड़जी! अपने प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ॥3॥
* लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा॥4॥
भावार्थ:-छोटे से कौए का शरीर धरकर और भगवान् के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँति के बाल चरित्रों को देखा करता हूँ॥4॥
दोहा :
* लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥ 75 क॥
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥ 75 क॥
भावार्थ:-लड़कपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैं, वहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन पड़ती है, वही उठाकर खाता हूँ॥
75 (क)॥
* एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 75 ख॥
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 75 ख॥
भावार्थ:-एक बार श्री रघुवीर ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किए। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही
काकभुशुण्डिजी का शरीर (प्रेमानन्दवश) पुलकित हो गया॥ 75 (ख)॥
चौपाई :
* कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक॥
नृप मंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥1॥
नृप मंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥1॥
भावार्थ:-भुशुण्डिजी कहने लगे- हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी का चरित्र सेवकों को सुख देने वाला है। (अयोध्या
का) राजमहल
सब प्रकार से सुंदर है। सोने के महल में नाना प्रकार के रत्न जड़े
हुए हैं॥1॥
* बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥
बाल बिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥2॥
बाल बिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥2॥
भावार्थ:-सुंदर आँगन का वर्णन नहीं किया जा सकता, जहाँ चारों भाई नित्य खेलते हैं। माता को सुख देने वाले बालविनोद
करते हुए श्री रघुनाथजी आँगन में विचर रहे हैं॥2॥
* मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥3॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥3॥
भावार्थ:-मरकत मणि के समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग में बहुत से कामदेवों की शोभा छाई
हुई है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण हैं। सुंदर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी ज्योति से चंद्रमा की
कांति को हरने वाले हैं॥3॥
* ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥4॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥4॥
भावार्थ:-(तलवे में) वज्रादि (वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल) के चार सुंदर चिह्न हैं, चरणों में मधुर
शब्द करने वाले सुंदर नूपुर हैं,
मणियों,
रत्नों से जड़ी हुई सोने की बनी हुई सुंदर करधनी
का शब्द सुहावना लग रहा है॥4॥
दोहा :
* रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गँभीर।
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥ 76॥
उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥ 76॥
भावार्थ:-उदर पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं, नाभि सुंदर और गहरी है। विशाल वक्षःस्थल पर अनेकों प्रकार के
बच्चों के आभूषण और वस्त्र सुशोभित हैं॥ 76॥
चौपाई :
* अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥1॥
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥1॥
भावार्थ:-लाल-लाल हथेलियाँ, नख और अँगुलियाँ मन को हरने वाले हैं और विशाल भुजाओं पर सुंदर आभूषण
हैं। बालसिंह (सिंह के बच्चे) के से कंधे और शंख के समान (तीन रेखाओं से युक्त) गला है। सुंदर ठुड्डी है और मुख तो छवि की सीमा ही है॥1॥
* कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥2॥
ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥2॥
भावार्थ:-कलबल (तोतले) वचन हैं, लाल-लाल होठ हैं। उज्ज्वल, सुंदर और छोटी-छोटी
(ऊपर
और नीचे) दो-दो दंतुलियाँ हैं। सुंदर गाल, मनोहर नासिका और सब
सुखों को देने वाली चंद्रमा की (अथवा सुख देने वाली समस्त कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की) किरणों के समान मधुर मुस्कान है॥2॥
* नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥3॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥3॥
भावार्थ:-नीले कमल के समान नेत्र जन्म-मृत्यु (के बंधन) से छुड़ाने वाले हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक सुशोभित है।
भौंहें टेढ़ी हैं, कान सम और सुंदर हैं, काले और घुँघराले केशों की छबि छा रही है॥3॥
* पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥4॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥4॥
भावार्थ:-पीली और महीन झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती
है। राजा दशरथजी के आँगन में विहार करने वाले रूप की राशि श्री रामचंद्रजी
अपनी परछाहीं देखकर नाचते हैं,॥4॥
* मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥5॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥5॥
भावार्थ:-और मुझसे बहुत प्रकार के खेल करते हैं, जिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! किलकारी
मारते हुए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और मैं भाग चलता, तब मुझे पूआ दिखलाते
थे॥5॥
दोहा :
* आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।
जाऊँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥ 77 क॥
जाऊँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥ 77 क॥
भावार्थ:-मेरे निकट आने पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं और जब मैं उनका चरण स्पर्श करने
के लिए पास जाता हूँ, तब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हुए भाग जाते हैं॥77 (क)॥
* प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥ 77 ख॥
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥ 77 ख॥
भावार्थ:-साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ कि सच्चिदानंदघन प्रभु यह कौन (महत्त्व
का) चरित्र
(लीला) कर
रहे हैं॥ 77 (ख)॥
चौपाई :
* एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥1॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥1॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया
मुझ पर छा गई, परंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति
संसार में डालने वाली हुई॥1॥
* नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥2॥
ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥2॥
भावार्थ:-हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान् के वाहन गरुड़जी! उसे सावधान होकर सुनिए। एक सीतापति श्री
रामजी ही अखंड मानवस्वरूप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं॥2॥
*जौं सब कें रह ज्ञान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥3॥
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥3॥
भावार्थ:-यदि जीवों को एकरस (अखंड) ज्ञान रहे, तो कहिए, फिर ईश्वर और जीव में भेद ही कैसा? अभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्व, रज, तम इन) तीनों
गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है॥3॥
* परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥4॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥4॥
भावार्थ:-जीव परतंत्र है, भगवान्
स्वतंत्र हैं, जीव अनेक हैं, श्री पति भगवान् एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत् है तथापि वह
भगवान् के भजन बिना करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता॥4॥
दोहा :
*रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥ 78 क॥
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥ 78 क॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के भजन बिना जो मोक्ष पद चाहता है, वह मनुष्य ज्ञानवान्
होने पर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है॥ 78 (क)॥
* राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ 78 ख॥
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ 78 ख॥
भावार्थ:-सभी तारागणों के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं उन सब में दावाग्नि
लगा दी जाए, तो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥ 78 (ख)॥
चौपाई :
* ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जीवों का
क्लेश नहीं मिटता। श्री हरि के सेवक को अविद्या नहीं व्यापती। प्रभु की
प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है॥1॥
* ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥2॥
भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥2॥
भावार्थ:-हे पक्षीश्रेष्ठ! इससे दास का नाश नहीं होता और भेद भक्ति बढ़ती है। श्री रामजी ने मुझे जब
भ्रम से चकित देखा, तब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए॥2॥
* तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3॥
जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3॥
भावार्थ:-उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जाना, न छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतल वाले बाल रूप श्री रामजी
घुटने और हाथों के बल मुझे पकड़ने को दौड़े॥3॥
* तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4॥
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4॥
भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! तब मैं भाग चला। श्री रामजी ने मुझे पकड़ने के लिए भुजा फैलाई। मैं जैसे-जैसे
आकाश में दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ श्री हरि की भुजा को अपने पास देखता था॥4॥
दोहा :
* ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ 79 क॥
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ 79 क॥
भावार्थ:-मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखा, तो हे तात! श्री रामजी की भुजा में और मुझमें
केवल दो ही अंगुल का बीच था॥ 79
(क)॥
* सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ 79 ख॥
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ 79 ख॥
भावार्थ:-सातों आवरणों को भेदकर जहाँ तक मेरी गति थी वहाँ तक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभु की भुजा को
(अपने
पीछे) देखकर
मैं व्याकुल हो गया॥ 79 (ख)॥
चौपाई :
* मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1॥
भावार्थ:-जब मैं भयभीत हो गया, तब मैंने आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरी में पहुँच
गया। मुझे देखकर श्री रामजी मुस्कुराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके
मुख में चला गया।1॥
* उदर माझ सुनु अंडज राया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! सुनिए, मैंने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डों के
समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थे, जिनकी रचना एक से एक की बढ़कर थी॥2॥
* कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥
अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3॥
भावार्थ:-करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी,
अनगिनत तारागण, सूर्य और चंद्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत
और भूमि,॥3॥
* सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4॥
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4॥
भावार्थ:-असंख्य समुद्र, नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य, किन्नर तथा चारों
प्रकार के जड़ और चेतन
जीव देखे॥4॥
दोहा :
* जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥80 क॥
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥80 क॥
भावार्थ:-जो कभी न देखा था, न
सुना था और जो मन में भी नहीं समा सकता था (अर्थात जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी), वही सब अद्भुत सृष्टि मैंने देखी। तब उसका किस प्रकार वर्णन किया जाए!॥80 (क)॥
* एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥80 ख॥
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥80 ख॥
भावार्थ:-मैं एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सौ वर्ष तक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्माण्ड देखता फिरा॥80 (ख)॥
चौपाई :
* लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥1॥
नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥1॥
भावार्थ:-प्रत्येक लोक में भिन्न-भिन्न ब्रह्मा, भिन्न-भिन्न विष्णु, शिव, मनु, दिक्पाल, मनुष्य, गंधर्व, भूत, वैताल, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, सर्प,॥1॥
* देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥2॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥2॥
भावार्थ:-तथा नाना जाति के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब सृष्टि
वहाँ दूसरे ही दूसरी प्रकार की थी॥2॥
* अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा। दाखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥3॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥3॥
भावार्थ:-प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैंने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक
भुवन में न्यारी ही अवधपुरी, भिन्न ही सरयूजी और भिन्न प्रकार के ही नर-नारी थे॥3॥
* दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥4॥
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥4॥
भावार्थ:-हे तात! सुनिए, दशरथजी, कौसल्याजी और भरतजी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपों के थे। मैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड
में रामावतार और उनकी अपार बाल लीलाएँ देखता फिरता॥4॥
दोहा :
* भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥81 क॥
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥81 क॥
भावार्थ:-हे हरिवाहन! मैंने सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यंत विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्माण्डों
में फिरा, पर प्रभु श्री रामचंद्रजी को मैंने दूसरी तरह का नहीं देखा॥81 (क)॥
* सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥81 ख॥
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥81 ख॥
भावार्थ:-सर्वत्र वही शिशुपन, वही शोभा और वही कृपालु श्री रघुवीर! इस प्रकार मोह रूपी पवन की प्रेरणा
से मैं भुवन-भुवन में देखता-फिरता था॥81 (ख)॥
चौपाई :
*भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥1॥
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥1॥
भावार्थ:-अनेक ब्रह्माण्डों में भटकते मुझे मानो एक सौ कल्प बीत गए। फिरता-फिरता
मैं अपने आश्रम में आया और कुछ काल वहाँ रहकर बिताया॥1॥
* निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥
देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥2॥
देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥2॥
भावार्थ:-फिर जब अपने प्रभु का अवधपुरी में जन्म (अवतार) सुन पाया, तब प्रेम से परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठ दौड़ा। जाकर मैंने जन्म
महोत्सव देखा, जिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ॥2॥
* राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥3॥
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥3॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के पेट में मैंने बहुत से जगत् देखे, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किए जा
सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान माया के स्वामी कृपालु भगवान् श्री राम को
देखा॥3॥
* करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥4॥
उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥4॥
भावार्थ:-मैं बार-बार विचार करता था। मेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही
घड़ी में देखा। मन में विशेष मोह होने से मैं थक गया॥4॥
दोहा :
* देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥82 क॥
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥82 क॥
भावार्थ:-मुझे व्याकुल देखकर तब कृपालु श्री रघुवीर हँस दिए। हे धीर बुद्धि गरुड़जी! सुनिए, उनके हँसते ही मैं
मुँह से बाहर आ गया॥82 (क)॥
* सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥82 ख॥
कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥82 ख॥
भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकार से
मन को समझाता था, पर वह शांति नहीं पाता था॥82
(ख)॥
चौपाई :
* देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥1॥
धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥1॥
भावार्थ:-यह (बाल) चरित्र देखकर और पेट के अंदर (देखी
हुई) उस
प्रभुता का स्मरण कर मैं शरीर की सुध भूल गया और हे आर्तजनों के रक्षक! रक्षा
कीजिए, रक्षा
कीजिए, पुकारता
हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती थी!॥1॥
* प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥2॥
कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥2॥
भावार्थ:-तदनन्तर प्रभु ने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभु ने अपना करकमल
मेरे सिर पर रखा। दीनदयालु ने मेरा संपूर्ण दुःख हर लिया॥2॥
* कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥3॥
प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥3॥
भावार्थ:-सेवकों को सुख देने वाले, कृपा के समूह (कृपामय) श्री रामजी ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहले वाली प्रभुता को
विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष हुआ॥3॥
* भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥4॥
सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥4॥
भावार्थ:-प्रभु की भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनंद से) नेत्रों
में जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की॥4॥
दोहा :
* सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥83 क॥
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥83 क॥
भावार्थ:-मेरी प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमानिवास श्री रामजी
सुखदायक, गंभीर और कोमल वचन बोले-॥83 (क)॥
* काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥83 ख॥
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥83 ख॥
भावार्थ:-हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा
संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष,॥83 (ख)॥
चौपाई :
*ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥1॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत् में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे
दूँगा, इसमें
संदेह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले॥1॥
* सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥2॥
प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥2॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने
सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही॥2॥
* भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥3॥
भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥3॥
भावार्थ:-भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ। भजन से
रहित सुख किस काम के? हे पक्षीराज! ऐसा विचार कर मैं बोला-॥3॥
* जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥4॥
मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥4॥
भावार्थ:-हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करते हैं, तो हे स्वामी! मैं
अपना मनभाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥4॥
दोहा :
*अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥84 क॥
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥84 क॥
भावार्थ:-आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा
से कोई विरला ही जिसे पाता है॥84 (क)॥
* भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥84 ख॥
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥84 ख॥
भावार्थ:-हे भक्तों के (मन इच्छित फल देने वाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान श्री रामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए॥84 (ख)॥
चौपाई :
* एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥1॥
सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥1॥
भावार्थ:-'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के स्वामी परम सुख देने वाले वचन बोले- हे काक! सुन, तू स्वभाव से ही बुद्धिमान् है। ऐसा वरदान
कैसे न माँगता?॥1॥
* सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥2॥
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥2॥
भावार्थ:-तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग ली, जगत् में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योग की
अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं,
करोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्ति को) नहीं पाते॥2॥
* रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥3॥
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥3॥
भावार्थ:-वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत ही अच्छी लगी। हे
पक्षी! सुन, मेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे॥3॥
* भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥4॥
जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥4॥
भावार्थ:-भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग- इन सबके भेद को तू मेरी कृपा से
ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा॥4॥
दोहा :
*माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥85 क॥
जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥85 क॥
भावार्थ:-माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादि, अजन्मा, अगुण (प्रकृति के गुणों से
रहित) और
(गुणातीत
दिव्य) गुणों की खान ब्रह्म
जानना॥85
(क)॥
* मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥85 ख॥
कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥85 ख॥
भावार्थ:-हे काक! सुन, मुझे भक्त निरंतर प्रिय हैं,
ऐसा विचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना॥85 (ख)॥
चौपाई :
* अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥
निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1॥
भावार्थ:-अब मेरी सत्य, सुगम, वेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह 'निज सिद्धांत' सुनाता हूँ। सुनकर
मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥1॥
* बमम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2॥
भावार्थ:-यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे
उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥2॥
* तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥3॥
तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥3॥
भावार्थ:-उन मनुष्यों में द्विज, द्विजों में भी वेदों को (कंठ में) धारण करने वाले, उनमें भी वेदोक्त धर्म पर चलने वाले,
उनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानों
में फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यंत प्रिय विज्ञानी हैं॥3॥
* तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥4॥
पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥4॥
भावार्थ:-विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास है,
जिसे मेरी ही गति (आश्रय) है, कोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे
बार-बार
सत्य ('निज सिद्धांत') कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान प्रिय कोई भी नहीं है॥4॥
* भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥5॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥5॥
भावार्थ:-भक्तिहीन ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय है, परंतु भक्तिमान् अत्यंत नीच भी प्राणी मुझे प्राणों
के समान प्रिय है, यह मेरी घोषणा है॥5॥
दोहा :
* सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग॥86॥
श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग॥86॥
भावार्थ:-पवित्र, सुशील और सुंदर बुद्धि वाला सेवक,
बता, किसको प्यारा नहीं लगता? वेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक!
सावधान होकर सुन॥86॥
चौपाई :
* एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा॥
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥1॥
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥1॥
भावार्थ:-एक पिता के बहुत से पुत्र पृथक-पृथक् गुण, स्वभाव और आचरण वाले होते हैं। कोई पंडित होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानी, कोई धनी, कोई शूरवीर, कोई दानी,॥1॥
* कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥2॥
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥2॥
भावार्थ:-कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का प्रेम इन सभी पर समान होता है, परंतु इनमें
से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं
जानता,॥2॥
* सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥3॥
एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥3॥
भावार्थ:-वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय होता है, यद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही
हो। इस प्रकार तिर्यक् (पशु-पक्षी),
देव, मनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं,॥3॥
*अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥4॥
तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥4॥
भावार्थ:-(उनसे भरा हुआ) यह संपूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है।
अतः सब पर मेरी बराबर दया है, परंतु इनमें से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है,॥4॥
दोहा :
* पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥87 क॥
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥87 क॥
भावार्थ:-वह पुरुष हो, नपुंसक हो, स्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता है, वही मुझे परम प्रिय है॥87 (क)॥
सोरठा :
* सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥87 ख॥
अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥87 ख॥
भावार्थ:-हे पक्षी! मैं तुझसे सत्य कहता हूँ, पवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा
छोड़कर मुझी को भज॥87 (ख)॥
चौपाई :
* कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥1॥
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥1॥
भावार्थ:-तुझे काल कभी नहीं व्यापेगा। निरंतर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभु के वचनामृत सुनकर
मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही
हर्षित हो रहा था॥1॥
* सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥2॥
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥2॥
भावार्थ:-वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह
सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं। उनके वाणी तो है नहीं॥2॥
* बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितई मातु लागी अति भूखा॥3॥
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितई मातु लागी अति भूखा॥3॥
भावार्थ:-मुझे बहुत प्रकार से भलीभाँति समझकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे।
नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा (सा) बनाकर उन्होंने माता की ओर देखा- (और
मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है॥3॥
* देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥4॥
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥4॥
भावार्थ:-यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ीं और कोमल वचन कहकर उन्होंने श्री रामजी को छाती से लगा लिया।
वे गोद में लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्री रघुनाथजी (उन्हीं) की
ललित लीलाएँ गाने लगीं॥4॥
सोरठा :
* जेहि सुख लाग पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥88 क॥
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥88 क॥
भावार्थ:-जिस सुख के लिए (सबको) सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण किया, उस सुख में अवधपुरी
के नर-नारी निरंतर निमग्न रहते हैं॥88 (क)॥
* सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥88 ख॥
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥88 ख॥
भावार्थ:-उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षीराज! वे सुंदर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते॥88 (ख)॥
चौपाई :
*मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥1॥
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥1॥
भावार्थ:-मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने श्री रामजी की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। श्री रामजी
की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया। तदनन्तर प्रभु के चरणों की वंदना
करके मैं अपने आश्रम पर लौट आया॥1॥
* तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार जब से श्री रघुनाथजी ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्री हरि
की माया ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा॥2॥
* निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3॥
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान् के भजन बिना क्लेश दूर
नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिए, श्री रामजी की कृपा
बिना श्री रामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती,॥3॥
* जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4॥
भावार्थ:-प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना
भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं॥4॥
सोरठा :
* बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥89 क॥
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥89 क॥
भावार्थ:-गुरु के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? इसी तरह वेद और पुराण
कहते हैं कि श्री हरि की भक्ति के बिना क्या सुख मिल सकता है?॥89 (क)॥
* कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥89 ख॥
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥89 ख॥
भावार्थ:-हे तात! स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा
सकता है? (चाहे) करोड़ों उपाय करके पच-पच मारिए, (फिर भी) क्या कभी जल के बिना नाव चल सकती है?॥89 (ख)॥
चौपाई :
* बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥1॥
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥1॥
भावार्थ:-संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता और
श्री राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं? बिना धरती के भी कहीं पेड़
उग सकता है?॥1॥
*बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥2॥
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥2॥
भावार्थ:-विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता है? आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा
सकता है? श्रद्धा के बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वी तत्त्व के बिना कोई गंध पा सकता है?॥2॥
* बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥3॥
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥3॥
भावार्थ:-तप के बिना क्या तेज फैल सकता है? जल-तत्त्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता है? पंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त
हो सकता है? हे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता॥3॥
Om Tat Sat
(Continued...)
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