गोस्वामी तुलसीदासजी
कामदेव का देवकार्य के लिए
जाना और भस्म होना
दोहा :
* सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
भावार्थ:-देवताओं
ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर
देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥83॥
चौपाई :
*तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥
भावार्थ:-तथापि
मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के
लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं॥1॥
* अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥
भावार्थ:-यों
कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय
में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥2॥
* तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥
भावार्थ:-तब
उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न
की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी
मर्यादा मिट गई॥3॥
* ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥
भावार्थ:-ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक
की सारी सेना डरकर भाग गई॥4॥
छंद :
* भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
भावार्थ:-विवेक
अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी
पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों
में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे
जगत् में खलबली मच गई (और सब कहने लगे)
हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन
करेगा? ऐसा
दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?
दोहा :
*जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥
भावार्थ:-जगत
में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर
काम के वश में हो गए॥84॥
चौपाई :
* सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥
भावार्थ:-सबके
हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों)
को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम
करने (मिलने-जुलने) लगीं॥1॥
* जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥
भावार्थ:-जब
जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2॥
* मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥
भावार्थ:-सब
लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥3॥
* इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥
भावार्थ:-ये
तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्
योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥
छंद :
* भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
भावार्थ:-जब
योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए,
तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय
देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय
देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के
अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा)
रहा।
सोरठा :
* धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
भावार्थ:-किसी
ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने
जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥85॥
चौपाई :
*उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
भावार्थ:-दो
घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर
गया, तब
सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो
गया।
*भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
भावार्थ:-तुरंत
ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए)
लोग मद (नशा)
उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य
रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2॥
* फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
भावार्थ:-लौट
जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके
उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥
* बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
भावार्थ:-वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए।
जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों
में भी कामदेव जाग उठा॥4॥
छंद :
* जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
भावार्थ:-मरे
हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल
खिल गए, जिन
पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने
लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥
दोहा :
* सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥
भावार्थ:-कामदेव
अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब
कामदेव क्रोधित हो उठा॥86॥
चौपाई :
* देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥
सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥
भावार्थ:-आम
के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प
धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यन्त क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर
उन्हें कान तक तान लिया॥1॥
* छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥
भावार्थ:-कामदेव
ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर
(शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2॥
* सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥
भावार्थ:-जब
आम के पत्तों में (छिपे हुए)
कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों
लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनको देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया॥3॥
* हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥4॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥4॥
भावार्थ:-जगत
में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए,
दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता
करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥4॥
छंद :
* जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
भावार्थ:-योगी
निष्कंटक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती
हुई वह शिवजी के पास गई।
अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ
जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर
(उसको सान्त्वना देने वाले) वचन बोले।
रति को वरदान
दोहा :
* अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥87॥
भावार्थ:-हे
रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना
ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥
चौपाई :
* जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥
भावार्थ:-जब
पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा
पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न)
के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥1॥
* रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥2॥
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं
ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥2॥
* सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥3॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥3॥
भावार्थ:-फिर
वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने
शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥3॥
* बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥
भावार्थ:-कृपा
के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं!
कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो!
आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥4॥
देवताओं का शिवजी से ब्याह
के लिए प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना
दोहा :
*सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥
भावार्थ:-हे
शंकर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे
नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥88॥
चौपाई :
* यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-हे
कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस
उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके
आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया॥1॥
* सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥2॥
भावार्थ:-हे
नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि
वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अंगीकार
कीजिए॥2॥
* सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥
भावार्थ:-ब्रह्माजी
की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक
कहा- 'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो!
देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे॥3॥
* अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥
भावार्थ:-उचित
अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे
पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनंद पहुँचाने वाले) वचन बोले-॥4॥
दोहा :
* कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥
भावार्थ:-नारदजी
के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने
काम को ही भस्म कर डाला॥89॥
मासपारायण, तीसरा विश्राम
मासपारायण, तीसरा विश्राम
चौपाई :
* सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥1॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥1॥
भावार्थ:-यह
सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी
मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने
कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही
रहे!॥1॥
* हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥
भावार्थ:-किन्तु
हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी
को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥2॥
* तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥3॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥3॥
भावार्थ:-तो
हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य
करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है॥3॥
* तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥4॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥4॥
भावार्थ:-हे
तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके
समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेवजी और कामदेव
के संबंध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए॥4॥
दोहा :
* हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥
भावार्थ:-पार्वती
के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे
भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥90॥
चौपाई :
* सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥
भावार्थ:-उन्होंने पर्वतराज
हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी
हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान् ने बहुत सुख माना॥1॥
* हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया
और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही
लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया॥2॥
* पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥3॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥3॥
भावार्थ:-फिर
हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने
जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में
प्रेम समाता न था॥3॥
* लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥
भावार्थ:-ब्रह्माजी
ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से
फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए॥4॥
शिवजी की विचित्र बारात और
विवाह की तैयारी
दोहा :
* लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
भावार्थ:-सब
देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और
विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मंगल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥
चौपाई :
* सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया
गया। शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की
जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥
* ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
भावार्थ:-शिवजी
के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे
कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥
* कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
भावार्थ:-एक
हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे
हैं। शिवजी को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर
के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥
* बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
भावार्थ:-विष्णु
और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बारात में चले। देवताओं का
समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुंदर)
था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥
दोहा :
* बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥
भावार्थ:-तब
विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥
चौपाई :
* बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥
भावार्थ:-हे
भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या
पराए नगर में जाकर हँसी
कराओगे?
विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥
* मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥
भावार्थ:-महादेवजी
(यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं
कि विष्णु भगवान के व्यंग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान)
के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृंगी
को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥
* सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥
भावार्थ:-शिवजी
की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले
अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥
* कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥
भावार्थ:-कोई
बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी
के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक
भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥
छंद :
* तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
भावार्थ:-कोई
बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ
में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से
उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के
प्रेत, पिशाच
और योगिनियों की जमाते
हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
सोरठा :
* नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
भावार्थ:-भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही
विचित्र ढंग से बोलते हैं॥93॥
चौपाई :
* जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ:-जैसा
दूल्हा है, अब
वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र
मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥
* सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥
भावार्थ:-जगत
में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा
जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥
* कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥3॥
भावार्थ:-वे
सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी स्त्रियों और समाजों
के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मंगल गीत गाते हैं॥3॥
* प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥4॥
भावार्थ:-हिमाचल
ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुंदर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना
चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥
छन्द :
* लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
भावार्थ:-नगर
की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुंदर
हैं, उनका
वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मंगल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुंदर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥
दोहा :
* जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥
भावार्थ:-जिस
नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया,
क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढ़ते जाते हैं॥94॥
चौपाई :
* नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥
भावार्थ:-बारात
को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़
गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा
नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥
* हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥
भावार्थ:-देवताओं
के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी
हुए, किन्तु
जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि)
डरकर भाग चले॥2॥
* धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥3॥
भावार्थ:-कुछ
बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर
पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते
हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥
* कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥
भावार्थ:-क्या
कहें, कोई बात
कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके
गहने हैं॥4॥
छन्द :
* तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
भावार्थ:-दूल्हे
के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं,
वह नंगा,
जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक
मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा,
सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का
विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।
दोहा :
* समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥
भावार्थ:-महेश्वर (शिवजी)
का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं
है॥95॥
चौपाई :
* लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
भावार्थ:-अगवान
लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाने लगीं॥1॥
* कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥
भावार्थ:-सुंदर
हाथों में सोने का थाल शोभित है,
इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं।
जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी
भय उत्पन्न हो गया॥2॥
* भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥
भावार्थ:-बहुत
ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के
हृदय में बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया॥3॥
* अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-और
अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस
विधाता ने तुमको ऐसा सुंदर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला
कैसे बनाया?॥4॥
छन्द :
* कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥
भावार्थ:-जिस
विधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल
में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या
समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस
बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।
दोहा :
* भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।
भावार्थ:-हिमाचल
की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या
के स्नेह को याद करके विलाप करती,
रोती और कहती थीं-॥96॥
चौपाई :
* नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥
भावार्थ:-मैंने
नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा
उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥1॥
* साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥
भावार्थ:-सचमुच
उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है,
वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने
वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या
जाने॥2॥
* जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥
भावार्थ:-माता
को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम
सोच मत करो!॥3॥
* करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥4॥
भावार्थ:-जो
मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है,
तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता!
क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलंक का टीका
मत लो॥4॥
छन्द :
* जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥
भावार्थ:-हे
माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने
का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय
भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।
दोहा :
* तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥
भावार्थ:-इस
समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥97॥
चौपाई :
* तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥
भावार्थ:-तब
नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगज्जनी भवानी है॥1॥
* अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥
भावार्थ:-ये
अजन्मा, अनादि
और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धांग में रहती हैं। ये जगत
की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं॥2॥
* जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥
भावार्थ:-पहले
ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थीं। यह कथा
सारे जगत में प्रसिद्ध है॥3॥
* एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-एक
बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए (राह में)
रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो
गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया॥4॥
छन्द :
* सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया॥
भावार्थ:-सतीजी
ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में
ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होंने
तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह
छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धांगिनी) हैं।
दोहा :
* सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥98॥
भावार्थ:-तब
नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥98॥
चौपाई :
* तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥
भावार्थ:-तब
मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥1॥
* लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥
भावार्थ:-नगर
में मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के
कलश सजाए। पाक शास्त्र
में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)॥2॥
*सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥3॥
भावार्थ:-जिस
घर में स्वयं माता भवानी रहती हों,
वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया
जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को
बुलवाया॥3॥
* बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-भोजन
(करने वालों) की बहुत सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मंडलियाँ
देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥4॥
छन्द :
* गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥
भावार्थ:-सब
सुंदरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं।
देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे
हैं। भोजन के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।
दोहा :
*बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥
भावार्थ:-फिर
मुनियों ने लौटकर हिमवान् को लगन (लग्न पत्रिका)
सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥99॥
चौपाई :
* बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥
भावार्थ:-सब
देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई
और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं॥1॥
* सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥
भावार्थ:-वेदिका
पर एक अत्यन्त सुंदर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुंदरता) का वर्णन नहीं किया
जा सकता, क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर
और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन
पर बैठ गए॥2॥
* बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिंगारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥
भावार्थ:-फिर
मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के
रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुंदरता
का वर्णन कर सके?॥3॥
* जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥
भावार्थ:-पार्वतीजी
को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता
की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥
छन्द :
* कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥
भावार्थ:-जगज्जननी पार्वतीजी
की महान शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी
तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं,
तब मंदबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुंदरता और शोभा की
खान माता भवानी मंडप के बीच में,
जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी
भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा)
था।
शिवजी का विवाह
दोहा :
* मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥
भावार्थ:-मुनियों
की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि
समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥
चौपाई :
* जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥
भावार्थ:-वेदों
में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल
ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी)
जानकर शिवजी को समर्पण किया॥1॥
* पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥2॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥2॥
भावार्थ:-जब
महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए।
श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥2॥
* बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥
भावार्थ:-अनेकों
प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया॥3॥
* दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥4॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥4॥
भावार्थ:-दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि
अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥
छन्द :
* दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥
भावार्थ:-बहुत
प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर!
आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर)
वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी
ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय
मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा-)।
दोहा :
* नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
भावार्थ:-हे
नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और
इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥
चौपाई :
* बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर
माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-॥1॥
* करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥
भावार्थ:-हे
पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म
है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥
* कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥
भावार्थ:-(फिर बोलीं कि) विधाता
ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों
कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा॥3॥
* पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥
सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥
भावार्थ:-मैना
बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर
पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों
से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा
लिपटीं॥4॥
छन्द :
* जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
भावार्थ:-पार्वतीजी
माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं।
महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा
करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।
दोहा :
* चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥
भावार्थ:-तब
हिमवान् अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥102॥
चौपाई :
* तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥
भावार्थ:-पर्वतराज हिमाचल
तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने
आदर, दान, विनय और बहुत
सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥
* जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥
भावार्थ:-जब
शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले
गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि)
पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता॥2॥
* करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥
भावार्थ:-शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने
गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय
बीत गया॥3॥
* जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥
भावार्थ:-तब
छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर
को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और
सारा जगत उसे जानता है॥4॥
छन्द :
* जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
भावार्थ:-षडानन (स्वामिकार्तिक)
के जन्म,
कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा
है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।
दोहा :
* चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥
भावार्थ:-गिरिजापति महादेवजी
का चरित्र समुद्र के समान (अपार)
है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका
वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥
चौपाई :
* संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥
भावार्थ:-शिवजी
के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने
की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो
गई॥1॥
* प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥
भावार्थ:-वे
प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत
प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥
* सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥
भावार्थ:-शिवजी
के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे
नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥
* सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥
भावार्थ:-शिवजी
के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री
को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया।
हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा
है?॥4॥
दोहा :
* प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥
भावार्थ:-मैंने
पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के
पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥104॥
चौपाई :
*मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥
भावार्थ:-मैंने
तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि!
सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा
सकता॥1॥
*राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥
भावार्थ:-हे
मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी
उसे नहीं कह सकते। तथापि
जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी
का स्मरण करके कहता हूँ॥2॥
*सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥
भावार्थ:-सरस्वतीजी कठपुतली
के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं। अपना
भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया
करते हैं॥3॥
* प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥
भावार्थ:-उन्हीं
कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता
हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥4॥
दोहा :
* सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥105॥
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥105॥
भावार्थ:-सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों
के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकन्द श्री महादेवजी
की सेवा करते हैं॥105॥
चौपाई :
* हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥
भावार्थ:-जो
भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न
में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब
काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है॥1॥
* त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥
भावार्थ:-वहाँ
तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध)
वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती
है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार
प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत
आनंद हुआ॥2॥
*निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥
भावार्थ:-अपने
हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ
गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और
वे मुनियों के से (वल्कल)
वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥
* तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥4॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥4॥
भावार्थ:-उनके
चरण नए (पूर्ण
रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति
भक्तों के हृदय का अंधकार हरने वाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर
के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा)
के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
No comments:
Post a Comment