गोस्वामी तुलसीदासजी
सती का भ्रम, श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद
* रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी की कथा चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे
संत रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने
किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया
था॥4॥
दोहा :
* कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भावार्थ:-अब मैं अपनी
बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद
कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे
हे मुनि! तुम
सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा॥47॥
चौपाई :
* एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
भावार्थ:-एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए।
उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्
के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥
* रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥2॥
भावार्थ:-मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख
मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य
सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥
* कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3।।
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर
मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को
चले॥3॥
* तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
भावार्थ:-उन्हीं दिनों
पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने
रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से
राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर
रहे थे॥4॥
दोहा :
* हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥
भावार्थ:-शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन
मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे
जाने से सब लोग जान जाएँगे॥ 48 (क)॥
सोरठा :
* संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥
भावार्थ:-श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली
उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं
कि शिवजी के मन में (भेद
खुलने का) डर
था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥48 (ख)॥
चौपाई :
* रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
भावार्थ:-रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी
मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को
प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह
जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती
थी॥1॥
* ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को
साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया॥2॥
* करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
भावार्थ:-मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री
रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को
मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे
खाली देखकर (अर्थात्
वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके
नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥
* बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं
और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी
कोई संयोग-वियोग
नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥4॥
दोहा :
* अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको
पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि
हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात
समझ बैठते हैं॥49॥
चौपाई :
* संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥
भावार्थ:-श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके
हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचंद्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर
देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥
* जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥
भावार्थ:-जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का
नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनंद से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे
थे॥2॥
* सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी ने शंकरजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही
मन कहने लगीं कि) शंकरजी
की सारा जगत् वंदना करता है, वे जगत् के ईश्वर
हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥3॥
* तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥
भावार्थ:-उन्होंने एक
राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया
और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में
प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥
दोहा :
* ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी
नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥
चौपाई :
* बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥
भावार्थ:-देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो
विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के
भंडार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या
अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे?॥1॥
* संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥
भावार्थ:-फिर शिवजी के
वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि
शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा
हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥2॥
* जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर
अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा
स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिए॥3॥
* जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥
भावार्थ:-जिनकी कथा का
अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने
मुनि को सुनाई, ये वही मेरे
इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी
सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥4॥
छंद :
* मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
भावार्थ:-ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और
शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर
जिनकी कीर्ति गाते हैं,
उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त
ब्रह्मांडों के स्वामी,
मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा
रूप भगवान् श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के
मणिरूप में अवतार लिया है।
सोरठा :
* लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
भावार्थ:-यद्यपि शिवजी
ने बहुत बार समझाया, फिर
भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी
मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥
चौपाई :
* जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥
भावार्थ:-जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा
क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ की छाँह
में बैठा हूँ॥1॥
* जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥
भावार्थ:-जिस प्रकार
तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं
कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥2॥
* इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥
भावार्थ:-इधर शिवजी ने
मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का
कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं,
अब सती का कुशल नहीं है॥3॥
* होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥
भावार्थ:-जो कुछ राम ने रच रखा है, वही
होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर
शिवजी भगवान् श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ
सुख के धाम प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥4॥
दोहा :
* पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥
भावार्थ:-सती बार-बार
मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे
(सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा
रामचंद्रजी आ रहे थे॥52॥
चौपाई :
* लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया।
वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी
के प्रभाव को जानते थे॥1॥
* सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥
भावार्थ:-सब कुछ देखने
वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के
स्वामी श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके
स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ
भगवान् श्री रामचंद्रजी हैं॥2॥
* सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती
हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचंद्रजी हँसकर कोमल
वाणी से बोले॥3॥
* जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥
भावार्थ:-पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता
सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप
यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥
दोहा :
* राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥53॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती
हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं,
उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई॥53॥
चौपाई :
* मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥
भावार्थ:-कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब
जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी
के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥1॥
* जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब
उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया।
सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा
कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस
अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानंदमय रूप को
देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह
दूर हो जाए तथा
वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥
* फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर
बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥
भावार्थ:-(तब उन्होंने) पीछे
की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी
सुंदर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री
रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥
* देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा
और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी
की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥4॥
दोहा :
* सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥
भावार्थ:-उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी
के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं॥54॥
चौपाई :
* देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने जहाँ-जहाँ
जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को
भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥1॥
* पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥
भावार्थ:-(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु
श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी
बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥2॥
* सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥
भावार्थ:-(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही
लक्ष्मण और वही सीताजी- सती
ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की
सारी सुध-बुध
जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥3॥
* बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥
भावार्थ:-फिर आँख खोलकर देखा, तो
वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पड़ा। तब
वे बार-बार श्री
रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ
श्री शिवजी थे॥4॥
दोहा :
* गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥
भावार्थ:-जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार
परीक्षा ली, सारी बात सच-सच
कहो॥55॥
मास पारायण, दूसरा विश्राम
मास पारायण, दूसरा विश्राम
चौपाई :
* सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे
शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं
ली, (वहाँ जाकर) आपकी
ही तरह प्रणाम किया॥1॥
* जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥
भावार्थ:-आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे
मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान
करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥
* बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥
भावार्थ:-फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ
कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी
प्रबल है॥3॥
* सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥
भावार्थ:-सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद
हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो
जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥4॥
शिवजी द्वारा सती का
त्याग, शिवजी
की समाधि
दोहा :
* परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥
भावार्थ:-सती परम पवित्र हैं, इसलिए
इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट
करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥56॥
चौपाई :
*तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने
प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर
नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के
इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी
ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥1॥
* अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥
भावार्थ:-स्थिर बुद्धि
शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण
करते हुए अपने घर (कैलास) को चले।
चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की॥2॥
* अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
भावार्थ:-आपको छोड़कर
दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री
रामचन्द्रजी के भक्त हैं,
समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को
सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से
पूछा-॥3॥
*कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
भावार्थ:-हे कृपालु! कहिए, आपने
कौन सी प्रतिज्ञा की है?
हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत
प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥
दोहा :
* सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥
भावार्थ:-सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब
जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ
होती है॥57 (क)॥
सोरठा :
* जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥
भावार्थ:-प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध
के साथ मिलकर) दूध
के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता
रहता है॥57 (ख)॥
चौ.
* हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥
भावार्थ:-अपनी करनी को
याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और
इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर
हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥
* संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥
भावार्थ:-शिवजी का रुख
देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा
त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ
कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर
ही भीतर) कुम्हार
के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥
* सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥
भावार्थ:-वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख
देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार
के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥
* तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥
भावार्थ:-वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़
के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला।
उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥
दोहा :
*सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥
भावार्थ:-तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख
था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥
चौपाई :
* नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥
भावार्थ:-सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि
मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का
अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥
* सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥
भावार्थ:-उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो
उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब
तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है॥2॥
* कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥
भावार्थ:-सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती
सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं
और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, ॥3॥
* तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥
भावार्थ:-तो मैं हाथ
जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी
छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य
है,॥4॥
दोहा :
* तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥
भावार्थ:-तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए
और शीघ्र वह उपाय कीजिए,
जिससे मेरा मरण हो और बिना ही
परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥
चौपाई :
* एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥
भावार्थ:-दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको
इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया
जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥
*राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥2॥
भावार्थ:-शिवजी रामनाम
का स्मरण करने लगे, तब
सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने
जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने
आसन दिया॥2॥
* लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥
भावार्थ:-शिवजी भगवान
हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष
प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना
दिया॥3॥
* बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥
भावार्थ:-जब दक्ष ने
इतना बड़ा अधिकार पाया, तब
उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। जगत में ऐसा
कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥
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सती का दक्ष यज्ञ
में जाना
दोहा :
* दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥
भावार्थ:-दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग
पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया॥60॥
चौपाई :
* किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥
भावार्थ:-(दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व
और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों
सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥1॥
* सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥
भावार्थ:-सतीजी ने देखा, अनेकों प्रकार के सुंदर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव-सुन्दरियाँ मधुर
गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है॥2॥
* पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥
भावार्थ:-सतीजी ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिवजी ने सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर
सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी
मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ॥3॥
* पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥4॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥4॥
भावार्थ:-क्योंकि उनके
हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी
दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सतीजी भय, संकोच
और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं- ॥4॥
दोहा :
* पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥
भावार्थ:-हे प्रभो! मेरे
पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर सहित उसे देखने
जाऊँ॥61॥
चौपाई :
* कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥
भावार्थ:-शिवजी ने कहा- तुमने
बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह
अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया है, किन्तु
हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया॥1॥
* ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥
भावार्थ:-एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी
से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥2॥
* जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥
भावार्थ:-यद्यपि इसमें
संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता
और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो
भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥
* भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥
भावार्थ:-शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर
होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा
कि यदि बिना बुलाए जाओगी,
तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी॥4॥
दोहा :
* कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥
भावार्थ:-शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु
जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि
महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको बिदा कर दिया॥62॥
चौपाई :
* पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥
भावार्थ:-भवानी जब पिता (दक्ष) के
घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल
एक माता
भले ही आदर से मिली। बहिनें बहुत मुस्कुराती
हुई मिलीं॥1॥
* दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख संभु कर भागा॥2॥
भावार्थ:-दक्ष ने तो
उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सतीजी
को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सती
ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया॥2॥
* तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥
भावार्थ:-तब शिवजी ने जो कहा था, वह
उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला
(पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना
नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख इस समय (पति
अपमान के कारण) हुआ॥3॥
* जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति
अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध हो आया। माता
ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया॥4॥
पति के अपमान से
दुःखी होकर सती का योगाग्नि से जल जाना, दक्ष यज्ञ विध्वंस
दोहा :
* सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥
भावार्थ:-परन्तु उनसे
शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे
उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब
वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-॥63॥
चौपाई :
* सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥
भावार्थ:-हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको
उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे॥1॥
* संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥
भावार्थ:-जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ
ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करने वाले) की
जीभ काट लें और
नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ॥2॥
*जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥3॥
पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥3॥
भावार्थ:-त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण
जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मंदबुद्धि
पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य
से उत्पन्न है॥3॥
* तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥
भावार्थ:-इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु
शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग
दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म
कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥4॥
दोहा :
* सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥ ॥
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥ ॥
भावार्थ:-सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर
मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की॥64॥
चौपाई :
* समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥
भावार्थ:-ये सब समाचार
शिवजी को मिले, तब
उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर
यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया॥1॥
* भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥2॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संछेप बखानी॥2॥
भावार्थ:-दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है। यह इतिहास
सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया॥2॥
पार्वती का जन्म और
तपस्या
*सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥
भावार्थ:-सती ने मरते
समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग
रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया॥3॥
*जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥4॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥4॥
भावार्थ:-जब से उमाजी
हिमाचल के घर जन्मीं, तबसे
वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गईं। मुनियों
ने जहाँ-तहाँ
सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए॥4॥
दोहा :
* सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥
प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥
भावार्थ:-उस सुंदर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त
हो गए और वहाँ बहुत तरह की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥65॥
चौपाई :
* सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥
भावार्थ:-सारी नदियों
में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर
सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड़ दिया और पर्वत
पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं॥1॥
* सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥
नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥
भावार्थ:-पार्वतीजी के
घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है
जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए
मंगलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं॥2॥
* नारद समाचार सब पाए। कोतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥
भावार्थ:-जब नारदजी ने
ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के
घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम
आसन दिया॥3॥
* नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥
भावार्थ:-फिर अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया।
हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि
के चरणों पर डाल दिया॥4॥
दोहा :
* त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥
भावार्थ:-(और कहा-) हे
मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ
हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥
चौपाई :
* कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥
सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥
भावार्थ:-नारद मुनि ने
हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की
खान है। यह स्वभाव से ही सुंदर,
सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका
और भवानी इसके नाम हैं॥1॥
* सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥
भावार्थ:-कन्या सब सुलक्षणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका
सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेंगे॥2॥
* होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥
भावार्थ:-यह सारे जगत
में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी
दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता
रूपी तलवार की धार पर चढ़ जाएँगी॥3॥
* सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥
भावार्थ:-हे पर्वतराज! तुम्हारी
कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार
अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन
(लापरवाह)॥4॥
दोहा :
* जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
भावार्थ:-योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी
ही रेखा पड़ी है॥67॥
चौपाई :
* सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
भावार्थ:-नारद मुनि की
वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) को दुःख
हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि
सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥1॥
* सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
भावार्थ:-सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों
में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, (यह
विचारकर) पार्वती
ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया॥2॥
* उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
भावार्थ:-उन्हें शिवजी
के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु
मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर
उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर
बैठ गईं॥3॥
* झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
भावार्थ:-देवर्षि की
वाणी झूठी न होगी, यह
विचार कर हिमवान्, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने
लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब
क्या उपाय किया जाए?॥4॥
दोहा :
* कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥
भावार्थ:-मुनीश्वर ने
कहा- हे हिमवान्! सुनो, विधाता
ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग
और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥68॥
चौपाई :
* तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥
भावार्थ:-तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो
वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैसा
मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया है॥1॥
* जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥
जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥
भावार्थ:-परन्तु मैंने
वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि शिवजी
के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही कहेंगे॥2॥
* जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥3॥
भावार्थ:-जैसे विष्णु
भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो
भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव
अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको
कोई बुरा नहीं कहता॥3॥
*सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥
भावार्थ:-गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर
कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और
गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥
दोहा :
* जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥
भावार्थ:-यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो
वे कल्पभर के लिए
नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के
समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता
है?॥69॥
चौपाई :
* सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥
भावार्थ:-गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी
उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे
पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥
* संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥
भावार्थ:-शिवजी सहज ही
समर्थ हैं, क्योंकि
वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना
बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत
जल्द संतुष्ट हो जाते हैं॥2॥
* जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥
भावार्थ:-यदि तुम्हारी
कन्या तप करे, तो
त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार
में वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है॥3॥
* बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥
भावार्थ:-शिवजी वर देने वाले, शरणागतों
के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन
को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने
पर भी वांछित फल नहीं मिलता॥4॥
दोहा :
* अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को
आशीर्वाद दिया। (और
कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब
यह कल्याण ही होगा॥70॥
चौपाई :
* कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥
भावार्थ:-यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो
चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैंने मुनि के वचनों का
अर्थ नहीं समझा॥1॥
* जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥2॥
भावार्थ:-जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर
और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी
ही रहे (मैं
अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती), क्योंकि हे स्वामिन्! पार्वती
मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥2॥
* जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥
भावार्थ:-यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि
पर्वत स्वभाव से ही जड़ (मूर्ख) होते हैं।
हे स्वामी! इस
बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय
में सन्ताप न हो॥3॥
* अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर
पड़ीं। तब हिमवान् ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं
हो सकते॥4॥
दोहा :
* प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥
भावार्थ:-हे प्रिये! सब
सोच छोड़कर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे
ही कल्याण करेंगे॥71॥
चौपाई :
* अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥
भावार्थ:-अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो
जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी
मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा॥1॥
* नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥2॥
भावार्थ:-नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी
समस्त सुंदर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर
तुम (मिथ्या) संदेह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं॥2॥
* सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥
भावार्थ:-पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरंत
पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू
भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया॥3॥
दोहा :
* बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥
भावार्थ:-फिर बार-बार उसे
हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ
कहा नहीं जाता।
जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता के मन की दशा को जानकर) वे माता को
सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं-॥4॥
दोहा :
* सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥
भावार्थ:-माँ! सुन, मैं
तुझे सुनाती हूँ, मैंने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुंदर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा
उपदेश दिया है-॥72॥
चौपाई :
* करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥
भावार्थ:-हे पार्वती! नारदजी
ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देने
वाला और दुःख-दोष
का नाश करने वाला है॥1॥
* तपबल रचइ प्रपंचु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥
भावार्थ:-तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल
से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार
धारण करते हैं॥2॥
* तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥
भावार्थ:-हे भवानी! सारी सृष्टि
तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर
माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान् को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥3॥
दोहा :
* मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥4॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥4॥
भावार्थ:-माता-पिता
को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं। प्यारे
कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥
दोहा :
*बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥
भावार्थ:-तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबको
समाधान हो गया॥73॥
चौपाई :
* उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥
भावार्थ:-प्राणपति (शिवजी) के
चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं।
पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो
भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया॥1॥
* नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥
भावार्थ:-स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की
सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर
सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥2॥
* कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥3॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई॥3॥
भावार्थ:-कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर
उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन
हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया॥3॥
* पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥
भावार्थ:-फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी
छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गंभीर ब्रह्मवाणी
हुई-॥4॥
दोहा :
* भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥
भावार्थ:-हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा
मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग
दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥74॥
चौपाई :
* अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥
भावार्थ:-हे भवानी! धीर, मुनि
और ज्ञानी बहुत हुए हैं,
पर ऐसा (कठोर) तप
किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य
और निरंतर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर॥1॥
* आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥
भावार्थ:-जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें
सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना॥2॥
* सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥3॥
उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥3॥
भावार्थ:-(इस प्रकार) आकाश
से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष
के मारे) उनका
शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी
भरद्वाजजी से बोले कि-) मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥3॥
* जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥
भावार्थ:-जब से सती ने
जाकर शरीर त्याग किया, तब
से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी
का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ
श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥4॥
दोहा :
* चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥
भावार्थ:-चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनंद देने वाले भगवान
श्री हरि (श्री
रामचन्द्रजी) को
हृदय में धारण कर (भगवान
के ध्यान में मस्त हुए) पृथ्वी
पर विचरने लगे॥75॥
चौपाई :
* कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥
भावार्थ:-वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन
करते थे। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी
हैं॥1॥
* एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥
नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्री रामचन्द्रजी के चरणों
में नित नई प्रीति हो रही है। शिवजी के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में
भक्ति की अटल टेक को (जब श्री रामचन्द्रजी ने) देखा॥2॥
* प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥
बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥
भावार्थ:-तब कृतज्ञ (उपकार मानने वाले), कृपालु, रूप
और शील के भण्डार, महान् तेजपुंज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने
बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥3॥
* बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया।
कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र
करनी का वर्णन किया॥4॥
श्री रामजी का शिवजी
से विवाह के लिए अनुरोध
दोहा :
* अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥
भावार्थ:-(फिर उन्होंने
शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि
मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर
पार्वती के साथ विवाह कर लें॥76॥
चौपाई :
* कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥
भावार्थ:-शिवजी ने कहा- यद्यपि
ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही
परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥1॥
* मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥
भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर
है॥2॥
* प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥
भावार्थ:-शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी संतुष्ट हो
गए। प्रभु ने कहा- हे
हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई।
अब हमने जो कहा
है, उसे हृदय में रखना॥3॥
* अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए।
शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख
ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने
वचन कहे-॥4॥
दोहा :
* पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥
भावार्थ:-आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा
लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती
को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती
को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए॥77॥
सप्तर्षियों की
परीक्षा में पार्वतीजी का महत्व
चौपाई :
* रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥
भावार्थ:-ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती
को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान् तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम
किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?॥1॥
*केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥2॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥2॥
भावार्थ:-तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती
ने कहा-) बात कहते मन बहुत सकुचाता
है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेंगे॥2॥
* मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥3॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥3॥
भावार्थ:-मन ने हठ पकड़ लिया है, वह
उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारदजी ने जो कह
दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उड़ना चाहती हूँ॥3॥
* देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥
भावार्थ:-हे मुनियों! आप
मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ॥4॥
दोहा :
* सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥
भावार्थ:-पार्वतीजी की
बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही
तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो
तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥78॥
चौपाई :
* दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥
भावार्थ:-उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे
उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर
को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु
का हुआ॥1॥
* नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥
भावार्थ:-जो स्त्री-पुरुष
नारद की सीख सुनते हैं,
वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी
है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने
समान बनाना चाहते हैं॥2॥
* तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥3॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥3॥
भावार्थ:-उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो
स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा
और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥3॥
* कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥
भावार्थ:-ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के
बहकावे में आकर
खूब भूलीं। पहले पंचों के कहने से शिव ने सती
से विवाह किया था, परन्तु फिर
उसे त्यागकर मरवा डाला॥
दोहा :
* अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥
भावार्थ:-अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख
माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से
ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥79॥
चौपाई :
* अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥
भावार्थ:-अब भी हमारा
कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर
विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक
और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं॥1॥
* दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥
भावार्थ:-वह दोषों से
रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी
का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर
तुमसे मिला देंगे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं-॥2॥
* सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥
भावार्थ:-आपने यह सत्य
ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ
है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा,
शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही
उत्पन्न होता है, सो वह जलाए
जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोड़ता॥3॥
* नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥
भावार्थ:-अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे
घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं
है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥4॥
दोहा :
* महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥
भावार्थ:-माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर
जिसका मन जिसमें रम गया,
उसको तो उसी से काम है॥80॥
चौपाई :
* जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥
भावार्थ:-हे मुनीश्वरों! यदि
आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे
रखकर सुनती, परन्तु अब तो
मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?॥1॥
* जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥
भावार्थ:-यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो
संसार में वर-कन्या
बहुत हैं। खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता
नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)॥2॥
* जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥
भावार्थ:-मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी
को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो
भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूँगी॥3॥
* मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥4॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥4॥
भावार्थ:-जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर
हो गई। (शिवजी
में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम
देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!॥4॥
दोहा :
* तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥
भावार्थ:-आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के
माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी
के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥81॥
चौपाई :
* जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥
भावार्थ:-मुनियों ने
जाकर हिमवान् को पार्वतीजी के पास भेजा और वे
विनती करके उनको घर ले आए,
फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको
पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई॥1॥
* भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥
भावार्थ:-पार्वतीजी का
प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए।
सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान
करने लगे॥2॥
* तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥3॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥3॥
भावार्थ:-उसी समय तारक
नाम का असुर हुआ, जिसकी
भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक
और लोकपालों को जीत लिया,
सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥3॥
*अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥
भावार्थ:-वह अजर-अमर
था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर
हार गए। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब
देवताओं को दुःखी देखा॥4॥
दोहा :
* सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥
भावार्थ:-ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस
दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको
युद्ध में वही जीतेगा॥82॥
चौपाई :
* मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥
भावार्थ:-मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम
हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने
अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥1॥
* तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥
जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर
शिवजी सब छोड़-छाड़कर
समाधि लगा बैठे
हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि
मेरी एक बात सुनो॥2॥
* पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥
भावार्थ:-तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि
भंग करे)।
तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें
राजी करके) विवाह
करा देंगे॥3॥
* एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥
भावार्थ:-इस प्रकार से
भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत
अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥4॥
Om Tat Sat
(Continued...)
मनुष्य(स्त्री-पुरुष) शरीर नाम रुप धारण कीसने कीया है ?
ReplyDelete*अपनी कमजोरी को*,
Delete*किस खूबसूरती से ढक लेते हैं लोग..*
*कुछ बुरा हो जाए,*
*तो खुदा को दोष देते हैं लोग……*
*यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा।*
*परापवादसस्येषु गां चरन्ती निवारय॥*
*यदि सारे संसार को एक ही कर्म द्वारा अपने वश मे करना चाहता है तो दूसरे की निन्दारूपी खेती मे चरती हुई अपनी जिव्हा को हटा,रोक दे।*
*लोकहित के ताप में खुद को तपा करेगा,*
*जो निज जीवन को कुन्दन करेगा,*
*युग उसी कर्म पुरुष का वंदन करेगा*
*कल राष्ट्र उसी वीर का सन्मान करेगा*
*Destiny decides who touches ur life........ur heart decides who touches ur soul.....*
लफ्ज़ को लफ्ज़ के मानिंद कहने दिया जाये
एहसास को मगर एहसास ही रहने दिया जाये
तोड़कर चट्टाने जब निकली है जू ए जुश्तजू
फिर समंदर तक इसे खामोश बहने दिया जाये
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. बेदार सूफ़ी
जू ए जूश्तजू....तलाश रूपी नदी
*क्यों कहते हो कुछ बेहतर नहीं होता,*
*सच तो ये है जैसा चाहो वैसा नहीं होता,*
*कोई तुम्हारा साथ न दे तो गम मत कर,*
*खुद से बड़ा दुनिया में कोई हम सफर नहीं होता !!*